अवध की शाही रसोई पर भी कोरोना का साया, 1839 में बादशाह मुहम्मद अली ने की थी शुरू

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लखनऊ। तहजीब के शहर-ए-लखनऊ का हर रंग निराला है। मेहमाननवाजी और गंगा जमुनी तहजीब का उहाहरण इससे इतर कहीं और नहीं मिलता। अवध के तीसरे बादशाह मुहम्मद अली ने 1839 में जिस हुसैनाबाद ट्रस्ट की स्थापना कर गंगा-जमुनी तहजीब की विरासत को कायम रखने का काम किया था तो बदस्तूर अभी तक चालू है। उन्हीं के जमाने में छोटे इमामबाड़े में स्थापित शाही रसोई सदियों बाद भी गरीबों और यतीमों की भूख मिटाती है।

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कोरोना संक्रमण की वजह से शाही रसोई भले ही ठंडी हो, लेकिन यहां की यादें अभी लोगाें की भलाई का पैगाम देते हैं। हुसैनाबाद ट्रस्ट की ओर से मिलने वाला राशन न केवल मुस्लिम समुदाय के गरीबों को दिया जाता है बल्कि अन्य जाति धर्म के गरीबों को भी इसका वितरण किया जाता रहा है।

मस्जिदों में जाता है खाना

नवाबी वंशजों के साथ ही गरीबों को भोजन मिल सके इसके लिए हुसैनाबाद ट्रस्ट की ओर से शाही रसोई में भोजन बनाया जाता था और शहर की प्रमुख मस्जिदों में इसे बांटा जाता था। माह-ए-रमजान के साथ ही मुहर्रम में भी यतीमों को भोजन यही शाही रसोई ही कराती थी। सुरक्षा कारणों से इस बार भोजन नहीं बनेगा और शाही रसोई बंद रहेगी।

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मुहर्रम में तबर्रुख और रमजान में इफ्तारी

नवाबीन-ए-अवध के साथ ही शहर के कई हिस्सों में मुहर्रम पर तबर्रुख और रमजान में ‘इफ्तारी बांटी जाती है। ट्रस्ट की ओर से मोहर्रम पर बड़े इमामबाड़े, इमामबाड़ा शाहनजफ और छोटा इमामबाड़ा में दो हजार लोगों को तबर्रुख वितरित किया जाता है।

जबकि गारवाली कर्बला में 1500, रौजा-ए-काजमैन और इमामबाड़ा आगा अब्बू साहब में एक एक हजार और मकबरा सआदत अली खां में 500 लोगों को तबर्रुख बंटता है। रोजा इफ्तार में भी शहर की 15 प्रमुख मस्जिदों में हजारों लोगों को इफ्तारी दी जाती है।इस बार ऐसा कुछ नहीं होगा। इमामबाड़ा भी संक्रमण के चलते बंद करने की तैयारी चल रही है।

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सामाजिक एकता और भाईचारे की इस शाही रसोई में पकने वाला भोजन यतीतों और गरीबों की भूख मिटाता है। मुहर्रम में तबर्रुख और माह-ए-रमजान में इफ्तारी वितरण की ऐतिहासिक परंपरा में पिछले बार सुरक्षा के चलते राशन बांटा गया था। इस बार संक्रमण के चलते कुछ भी वितरित नही होगा। जिला प्रशासन को आगे का निर्णय लेना है। फिलहाल इमामबाड़ा भी बंद करने की तैयारी की जा रही है।

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