लीजिए, यह रहा शिक्षा में हिजाब का हिसाब

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आशीष आनंद-

धर्मनिरपेक्ष संविधान मानने वाले भारत के राज्य कर्नाटक में हिजाब पर बवाल मचा है। इस मामले पर बहस अब पूरे देश में है और अदालतों में भी यह मसला जेरे-बहस है, जिसका नतीजा देर सबेर आना है। मंगलवार को इस मामले पर कर्नाटक हाईकोर्ट में सुनवाई भी हुई, जो अभी जारी है. हर किसी को उम्मीद है कि अदालत संविधान की हिफाजत करेगी। (Hijab In Education)

दरअसल, कर्नाटक में हिजाब को लेकर जिस तरह का माहौल बनाया गया है, कमोबेश इसी तरह की सांप्रदायिक गतिविधियां वहां पहले भी होती रही हैं। इसके दो बड़े कारण हमें कर्नाटक में मौजूद ट्रेड यूनियन नेता अमानुल्ला खान ने बताए। एक, पूरे कर्नाटक में मुस्लिम आबादी लगभग 13 प्रतिशत है, लेकिन जिस जगह ताजा विवाद खड़ा हुआ है, उस कोस्टल एरिया में मुस्लिम आबादी 25 प्रतिशत से ज्यादा है।

पूरे कोस्टल एरिया में मौजूद मुस्लिम आबादी का जीवन स्तर, बाकी कर्नाटक के मुसलमानों से हर लिहाज में बेहतर है। उनका रहन सहन, शिक्षा-सबकुछ। कारोबार, व्यापार, नौकरी में भी उनका ठीक दखल है, जो सांप्रदायिक प्रतिद्वंद्विता में निशाने पर आ गया है।

ऐसा नहीं है कि सांप्रदायिक बहुसंख्यक ताकतें सिर्फ मुसलमानों को ही टारगेट करती हैं, उनके लक्ष्य इससे पहले ईसाई भी बन चुके हैं या फिर दलित समुदाय।

यूनिफॉर्म ड्रेस कोड के नाम पर असल में कई घटनाओं पर पर्दा डाल दिया गया है। जैसे, उसी कर्नाटक के कॉलेजों में शिक्षकों की कमी पर आंदोलन चल रहा है, खाली पदों पर नियुक्तियों की मांग हो रही है। यह खबर सिरे से गायब हो गई और हिजाब मुद्​दा बन गया। (Hijab In Education)

कोस्टल वर्कर्स की मजदूरी या फिर कारोबार की मंदी से पैदा होने वाला असंतोष नजरंदाज कर दिया गया, हिजाब सुर्खियों में आ गया। वह भी उस देश में, जहां धार्मिक पहचान खुद प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति अपनाते रहे हैं सार्वजनिक तौर पर। कभी गुफा में तपस्या, तो कभी हवन या फिर कुछ और। पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल रहीं हों या पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, सिर पर पल्लू सबके रहा।

शायद ही ऐसा कोई विभाग हो, जहां तिलक लगाकर या बिंदी लगाकर नौकरी न की जाती हो। कॉलेजों में भी अगर कोई छात्र तिलक या ऐसे ही किसी और प्रतीक के साथ आता है तो कभी भी उसको कक्षा में प्रवेश से नहीं रोका गया।

हिजाब, पल्लू, घूंघट पितृसत्तात्मक समाज की परंपराएं हैं, जिन पर ऐतराज या विरोध उस समाज की महिलाएं खुद कर सकती हैं। लेकिन अगर वे ‘ऐसा करके’ ही कुछ कदम आगे बढ़ा सकती हैं तो उनको रोकने का हक किसी को नहीं है। (Hijab In Education)

लड़कियों को पढ़ने की जरूरत थी तो पर्दे से नाइत्तफाकी रखने वाली रुकैया सखावत हुसैन ने कभी स्कूल खोले तो बाकायदा पर्दे नकाब को अनिवार्य किया, सिर्फ इसलिए कि दकियानूसी रवायतों की वजह से बच्चियों की शिक्षा न रुके। शिक्षा की इस मूर्ति की प्रतिमा को देखकर एक नजर में कोई यह भी नहीं बता सकता कि वे मुसलमान थीं या हिंदू।

हिजाब वैसे भी बुर्का या पर्दा नहीं है। हिजाब में रहकर ही आज यूएई की जहरा लारी शीर्ष आइस स्केटर हैं। दक्षिणपंथी विरोध के बावजूद पिछले साल नीदरलैंड में कौथार नाम की युवती पार्लियामेंट सदस्य चुनी गईं। उरूशा अर्शिद हिजाब में ब्रिटेन की फायर फाइटर बन गईं।

सऊदी अरब में हिजाबी लड़कियां हाईस्पीड ट्रेन चलाने की ट्रेनिंग ले रही हैं और उनको सशस्त्र बल के तौर पर मक्का में तैनाती दी गई है। हिजाब पहनने वाली इल्हान उमर अमेरिकी मुस्लिम लोकसेवक चुनी गई हैं। संयुक्त अरब अमीरात में मंगल मिशन का नेतृत्व करने वाली भी एक हिजाबी महिला ही थीं।

गौर करने की बात यह भी है कि जब कर्नाटक में लड़कियों को हिजाब की वजह से कॉलेज में आने से रोका जा रहा था, ठीक उसी समय फिलीपीन कोस्टल गार्ड ने हिजाब को मंजूरी दी और वहां हिजाब में लड़कियां मशीनगन लेकर दुश्मनों से मुकाबला करने को मोर्चे पर तैनात हैं। (Hijab In Education)

फिलीपीन कोस्टल गार्ड

यह फैसला वहां इसलिए लिया गया कि मुस्लिम लड़कियों का इस नौकरी में आना आसान बनाया जा सके। फिलीपीन काेई इस्लामिक देश नहीं है, वहां सिर्फ 6 फीसद मुसलमान हैं।

ऐसी लड़कियों के दर्जनों उदाहरण हैं, जो हिजाब, पल्लू में रहकर तरक्की की छलांग लगा चुकी हैं या फिर लगा रही हैं। बांग्लादेश की राष्ट्रपति शेख हसीना भी उनमें शुमार हैं। (Hijab In Education)

शेख हसीना

क्या भाजपा की प्रखर नेता रहीं सुषमा स्वराज को उनमें नहीं गिना जाना चाहिए, या फिर स्मृति ईरानी को नहीं गिना जाना चाहिए, जो अपनी धार्मिक पहचान के साथ संसद में अहम भूमिका निभाती रहीं हैं।

स्मृति ईरानी-सुषमा स्वराज

सबसे ज्यादा जरूरी तो माता सावित्री बाई फुले और माता फातिमा शेख को याद रखना है, जिन्होंने तमाम मुश्किलों के बीच बेटियों की शिक्षा के लिए सबकुछ दांव पर लगाा दिया। जिनकी वजह से भारत में महिला शिक्षा की वो बुनियाद रखी जा सकी, जिसके दम पर आज बेटी पढ़ाओ का नारा देने का साहस भारत के अंदर आ सका।

माता सावित्री बाई फुले और माता फातिमा शेख

ऐसा न होता तो 1951 में बालिका साक्षरता दर, जो 9 प्रतिशत से भी कम थी, वो 2011 में 64 फीसद से ज्यादा कभी नहीं पहुंचती, जब मुस्लिम बालिका की साक्षरता दर 48 प्रतिशत के आसपास थी। (Hijab In Education)

बालिकाओं के लिए सांप्रदायिक चश्मे से शिक्षा के दरवाजे बंद करने की कोशिश सावित्री बाई फुले और फातिमा शेख का अपमान है। गौर से देखें वो ‘नेत्रहीन सांप्रदायिक लोग’ इन महान माताओं की तस्वीरों को, सिर पर पल्लू और हिजाब दिखाई देगा।


यह भी पढ़ें: फिलीपीन कोस्ट गार्ड में महिला मुस्लिम कर्मियों को हिजाब पहनने की मंजूरी


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