#SaveBuxwahaForest: इस पड़ाव पर पहुंची लाखाें लोगों की सांस और वन्यजीवों की जिंदगी बचाने की जंग

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इसी कोरोना काल में मध्य प्रदेश के सीहोर के एक आदिवासी किसान पर दो पेड़ काटने के एवज में एक करोड़ 20 लाख का मुआवजा देने का दंड कोर्ट ने लगाया था। उसमें कोर्ट की टिप्पणी थी कि ऑक्सीजन देने वाला पेड़ अमूल्य है। हैरानी की बात यह है कि इसी समय में 2 लाख 75 हजार से अधिक पेड़ों के पूरे जंगल को काटने की इजाजत दी जा रही है, क्योंकि उसके साथ पूंजीपतियों का मुनाफा जुड़ा हुआ है। जबकि पूरा देश जानता है कि कोरोना की दूसरी लहर में लोग ऑक्सीजन के लिए कितना छटपटाए और कितने लोग प्राणवायु न मिलने से असमय मौत मारे गए।

लाखों लोगों की सांस और अनगिनत वन्यजीवों की जिंदगी जुड़ा यह मामला मध्यप्रदेश के बक्सवाहा वन का है। हीरा खनन के लिए मध्यप्रदेश सरकार ने हजारों साल पुराने इस 382.131 हेक्टेयर में फैले जंगल के 2 लाख 75 हजार 875 पेड़ काटने की अनुमति दे दी है। इस वन को बचाने की मुहिम भी इसी के साथ छेड़ी जा चुकी है, जिसने पहला पड़ाव पार कर लिया है। दायर याचिका पर 17 जून को एनजीटी में पेशी हुई और वाद मंजूर कर लिया गया। मध्यप्रदेश सरकार को 30 जून तक अपना जवाब मय हलफनामा पेश करने का निर्देश दिया गया है। अगली सुनवाई 30 जून को होगी।

वाद दाखिल करने वाले पहले आवेदक ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी, सोनीपत में लॉ सेकेंड ईयर के छात्र हैं, जबकि एक अन्य अधिवक्ता हैं। रिट में कहा गया है कि रियो टिंटो एक्सप्लोरेशन इंडिया प्राइवेट लिमिटेड (आरटीईआईपीएल) नामक एक ऑस्ट्रेलियाई कंपनी ने बक्सवाहा संरक्षित वन, सगोरिया गांव, बक्सवाहा तहसील, छतरपुर जिले में बंदर डायमंड ब्लॉक की 2008 में खोज की थी। आरटीईआईपीएल ने 954 हेक्टेयर क्षेत्र में खनन पट्टे के लिए आवेदन किया था।

जुलाई 2019 में इस इलाके में मौजूद बंदर हीरा परियोजना के लिए खनन पट्टा देने की नीलामी की गई। ई-नीलामी प्रक्रिया, एस्सेल माइनिंग एंड इंडस्ट्रीज, जो आदित्य बिड़ला समूह की कंपनी (जिसे बाद में ईएमआईएल के रूप में संदर्भित किया गया) द्वारा जीती गई थी। ईएमआईएल को ‘पसंदीदा बोलीदाता’ के रूप में घोषित किया गया।

19 दिसंबर 2019 को एक आशय पत्र जारी किया गया। ईएमआईएल को बंदर डायमंड ब्लॉक के लिए 364 हेक्टेयर से अधिक क्षेत्र के खनन पट्टा दिया गया। प्रस्तावित परियोजना की अनुमानित लागत तकरीबन 2500 करोड़ रुपए है। ईएमआईएल को सिर्फ 364 हेक्टेयर क्षेत्र का खनन पट्टा दिया गया, जबकि कंपनी ने 382.131 हेक्टेयर क्षेत्र की पूर्व पर्यावरण मंजूरी के लिए आवेदन किया है, जो आवंटित क्षेत्र से लगभग 22.131 हेक्टेयर अधिक है। परियोजना में हीरे की निकासी के उद्देश्य से 382.131 हेक्टेयर में फैले 46 किस्मों के पेड़ों को काटना होगा।

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रिट दाखिल करने वालों की तरफ से कहा गया है कि पूरे बुंदेलखंड क्षेत्र में पहले से ही घटती जल उपलब्धता को यह परियोजना और खराब करेगी। इसके परिणामस्वरूप पारिस्थितिकी तंत्र का विनाश होगा। इस परियोजना के लिए ईएमआईएल एक मौसमी नाले को भी मोड़ देगा, जो खनिज क्षेत्र में है। इस पानी को बांध बनाकर एक जलाशय की ओर भेजा जाएगा। खदान और अयस्क प्रसंस्करण संयंत्र के लिए रोजाना 16,050 लीटर पानी की जरूरत होगी, यानी हर साल 5.9 मिलियन लीटर।

वन क्षेत्र का मौसमी नाला, जिसका पानी ईएमआईएल द्वारा उपयोग किया जाएगा, भूजल पुनरुद्धार का एक स्रोत है, जो बेतवा नदी में अहम योगदान देता है। इसी बेतवा नदी पर पूरा बुंदेलखंड क्षेत्र निर्भर करता है। इस तरह परियोजना न केवल स्थानीय लोगों के जीवन और जीने के साधनों को अस्त-व्यस्त कर देगी, बल्कि क्षेत्र में पारिस्थितिकीय संतुलन पूरी तरह से बाधित कर देगी।

एनजीटी में दाखिल रिट में यह भी कहा गया है कि इस परियोजना को लागू करने के लिए 40 से अधिक प्रजातियों के पेड़ काटे जाने हैं। अगर वन को काटा गया तो 1972 की अनुसूची में सूचीबद्ध सात प्रजातियों सहित जीवों की विविधता बुरी तरह से प्रभावित होगी। इनमें भारतीय गज़ेल, चौसिंघा, सुस्ती भालू, तेंदुआ, मॉनिटर छिपकली, भारतीय दुम वाला गिद्ध और मयूर इनमें शामिल हैं। साइट निरीक्षण रिपोर्ट को खारिज करते हुए कहा गया है कि इस क्षेत्र के गांवों में रहने वाले लोग इन जंगलों पर निर्भर हैं।

एनजीटी का ध्यान वन संरक्षण अधिनियम, 1980 की तरफ भी ध्यान दिलाया गया है। अधिनियम कहता है कि जब किसी क्षेत्र किसी परियोजना के विकास के लिए जंगल को साफ किया जाना है, तो उतनी ही भूमि को वनरोपण के उद्देश्य के लिए डायवर्ट किया जाना है, और यह नई जमीन रखरखाव के लिए वन विभाग को सौंपी जानी है।

रिट में सुप्रीम कोर्ट की कई टिप्पणियों की तरफ भी ध्यान दिलाया गया है, जिसमें उच्चतम न्यायाल ने वनों को राष्ट्रीय धरोहर बताया है। न्यायालय ने इस बात पर भी प्रकाश डाला कि गैर-वन गतिविधियों के खिलाफ कानूनी संरक्षण प्राप्त है, जिसमें अवैध शिकार, खनन, पेड़ों की कटाई आदि शामिल है।

आगे यह स्पष्ट किया गया है कि एक बार किसी क्षेत्र को संरक्षित वन के रूप में घोषित करने के बाद, यह एक संरक्षित वन बन जाता है, इस तथ्य के बावजूद कि उस क्षेत्र का एक हिस्सा बेकार है। एक क्षेत्र को संरक्षित वन घोषित करने के पीछे का विचार था, केवल मौजूदा वन की सुरक्षा ही नहीं बल्कि वनरोपण भी है।

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रिट में मांग की गई है कि पर्यावरण के हित में उत्तरदाताओं को निर्देश दें कि वे बहुमूल्य बक्सवाहा आरक्षित वन क्षेत्र में दो लाख पेड़ गिराने की अनुमति न दें। प्रतिवादी को खनन प्रक्रिया तभी शुरू करने का निर्देश दें, जब नीति के अनुसार वैकल्पिक वनरोपण पर 100 प्रतिशत पर पौध जीवित रहने की दर प्राप्त हो और उसके बाद तीन साल बीत चुके हों।

देशभर के पर्यावरणविद भी वन तबाह कर हीरा खनन की परियोजना के खासे खिलाफ हैं। उनकी चिंता सिर्फ जंगल को लेकर नहीं है, बल्कि इससे बिगड़ने वाली पारिस्थितिकी और आसपास के लोगों के जीवन पर पड़ने वाला प्रभाव है।

उनका कहना है कि हीरा खनन के इस प्रोजेक्ट में कुल 300 से 400 लोगों को (अधिकारी, कर्मचारी, मजदूर सहित) रोजगार मिलने की बात कही जा रही है। यह इलाका पहले से ही पानी की कमी से जूझ रहा है। पेड़ों के कटान से यह मुश्किल और बढ़ेगी। इसके अलावा माइनिंग से पानी के जहरीला होने का भी खतरा है।

लिहाजा उन्होंने ‘बक्सवाहा जंगल बचाओ’ मुहिम से जुड़े युवाओं, सामाजिक संगठनों और सामाजिक कार्यकर्ताओं की ओर से प्रदेश और राष्ट्रीय स्तर पर समन्वय समिति बनाने की तैयारी शुरू कर दी है। इसके लिए एक आनलाइन बातचीत के जरिए तदर्थ समिति का गठन किया गया है।

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मेधा पाटकर, डॉ सुनीलम, अरविंद श्रीवास्तव और राजकुमार सिन्हा के मार्गदर्शन में गठित इस तदर्थ समिति में शुरुआती तौर पर 15 युवा और सामाजिक कार्यकर्ता शामिल हैं। यह तदर्थ समिति देश-प्रदेश के विभिन्न संगठनों के जरिए युवाओं, छात्रों, आमजन तक पहुंचकर बक्सवाहा बचाओ अभियान को तेज करेगी।

बक्सवाहा बचाओ तदर्थ समिति के सदस्य और वरिष्ठ अधिवक्ता डॉ. पुष्पराग का कहना है, ”प्रोजेक्ट क्षेत्र के आसपास 20 गांव है। इन गांवों में रहने वाले 8 हजार लोगों पर पड़ने वाले प्रभाव को परियोजना के हित में अनदेखा कर दिया गया है। यह पानी की कमी वाला क्षेत्र है, जहां पीने के पानी का संकट बना रहता है। माइनिंग के लिए बड़ी मात्रा में पानी की जरूरत होगी, जिससे संकट और अधिक गहरा जाएगा। इतना ही नहीं माइनिंग और अयस्क की सफाई के दौरान अपनाई जाने वाली रासायनिक प्रक्रियाओं से दूषित जल, भूमि और पेयजल को प्रदूषित कर देगा और जल पीने लायक नहीं रहेगा।”

 ”इस क्षेत्र का एक मात्र अस्पताल और सेकेंडरी स्कूल बक्सवाहा में ही पड़ता है। पशुपालन इस क्षेत्र के रोजगार का बड़ा साधन है, जो कि जंगल पर निर्भर हो कर ही चल रहा है। इस क्षेत्र के गरीब लोग सीजन पर महुआ के फल और बीज इकट्ठा करते हैं और तेंदू पत्ता इकट्ठा करते हैं, यह उनकी आजीविका का एकमात्र साधन है। इस रोशनी में देखा जाए तो परियोजना अन्यायपूर्ण है। पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से आज जंगलों का संरक्षण और अधिक पेड़ लगाने की आवश्यकता है, क्योंकि जंगलों की इसी प्रकार होती आ रही अनाप-शनाप कटाई से हर प्रकार का प्रदूषण बढ़ा है और ग्लोबल वार्मिंग भी खतरनाक स्तर पर पहुंच गई है।”

पर्यावरणविदों का साफ कहना है कि बक्सवाहा प्रोजेक्ट जनहितकारी नहीं है। एक पूंजीपति के व्यक्तिगत लाभ के लिए आमजन के जीवन और पर्यावरण की इतनी बड़ी हानि को स्वीकार नहीं किया जा सकता है। उन्होंने सरकार से मांग की है कि इस प्रोजेक्ट को रद्द किया जाए। पूंजीपतियों के मुनाफे के लिए आम जनता के हित की बलि चढ़ाना बंद किया जाना चाहिए।


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