आशीष आनंद-
क्या आप जानते हैं कि बॉयलर चिकन पूरी तरह से मानव निर्मित है! हमारी धरती पर मौजूदा वक्त में 2300 करोड़ बॉयलर चिकन मानवों का भोजन बनने को तैयार हैं। इस तरह ये चिकन भूमि पर पाए जाने वाले कशेरुकी यानी रीढ़ की हड्डी वाले जीवों की सबसे बड़ी प्रजाति है।
इंसान ने उनके जीन को बदलकर उनके चयापचय को नियंत्रित करने वाले रिसेप्टर (ग्राही) को म्यूटेट (परिवर्तित होना) कर दिया है जिसके चलते वे हमेशा भूखे रहते हैं। वे ज्यादा से ज्यादा खाते हैं और उनका साइज बढ़ता है।
उनका पूरा जीवन चक्र इंसान की बनाई तकनीक से नियंत्रित होता है। मसलन, मुर्गियां जिस कारखाने में अपने अंडों से निकलती हैं, वहां का तापमान और नमी कंप्यूटर से नियंत्रित किए जाते हैं। पहले ही दिन से उन्हें बिजली की रोशनी में रखा जाता है ताकि उनके भोजन के घंटे बढ़ाए जा सकें। इसका पता एक खास अध्ययन से लगाया गया, जिसका मकसद एंथ्रोपोसीन युग यानी एक नए मानव युग के आगमन की पड़ताल करना था।
अब नजर डालिए धरती की पहली बायोमास गणना के नतीजों पर। इसके अनुसार, 760 करोड़ मनुष्य धरती के कुल बायोमास का केवल 0.01 प्रतिशत हिस्सा हैं। कुल बायोमास में बैक्टीरिया की हिस्सेदारी 13 प्रतिशत है। पेड़-पौधों की हिस्सेदारी सबसे अधिक 83 प्रतिशत है। इसके अलावा बाकी जीव जंतु हैं।
वैज्ञानिकों ने पाया कि 83 प्रतिशत जंगली स्तनधारियों और आधे पेड़-पौधों की विलुप्ति की वजह मनुष्य हैं। मनुष्य केवल प्रजातियों के विलुप्ति की वजह ही नहीं है बल्कि वह यह भी तय कर रहा है कि कौन-सी प्रजाति जीवित रहेगी और आगे बढ़ेगी।
इसे इस तरह समझ सकते हैं कि दुनिया में शेष बचे पक्षियों में 70 प्रतिशत पोल्ट्री मुर्गियां या अन्य जीन में बदलाव कर तैयार किए गए घरेलू पक्षी हैं। दुनिया में बचे स्तनधारियों में 60 प्रतिशत मवेशी हैं, जिनमें 36 प्रतिशत सुअर हैं और केवल 4 प्रतिशत जंगली पशु हैं। साफ है कि केवल मनुष्य के लिए उपयोगी पशु ही बच रहे हैं, शेष तेजी से खत्म हो रहे हैं।
मनुष्यों और पालतू मवेशियों का बायोमास जंगली स्तनधारियों को बहुत पीछे छोड़ चुका है। पोल्ट्री बायोमास (खासतौर पर चिकन) जंगली पक्षियों से तीन गुना ज्यादा है। इसी तरह 40 प्रतिशत उभयचर प्रजातियों पर विलुप्ति का खतरा मंडरा रहा है।
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दुनियाभर में 12 प्रतिशत स्तनधारियों, 12 प्रतिशत पक्षियों, 31 प्रतिशत सरीसृपों, 30 प्रतिशत उभयचरों और 37 प्रतिशत मछलियों पर विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है। पौधों एवं बिना मेरुदंड वाले जीवों का आकलन अभी नहीं हुआ है लेकिन हम मान सकते हैं कि उन पर भी गंभीर खतरा मंडरा रहा है।
बायोमास की यह गणना 2019 में जारी की गई। इसके नतीजे चौंकाने वाले थे। इस गणना में न केवल धरती की जैव विविधता में विनाशकारी परिवर्तन दिखे बल्कि एंथ्रोपोसीन का प्रभाव भी नजर आया। धरती पर मौजूद कुल 550 गीगाटन बायोमास यानी जैव भार की संरचना का पता लगाया गया। 550 गीगाटन धरती पर जीवन शुरू होने के बाद से अब तक का कुल बायोमास है।
हार्वर्ड जीवविज्ञानी ईओ विल्सन का अनुमान है कि प्रति वर्ष 30 हजार प्रजातियां (या प्रति घंटे तीन प्रजातियां) विलुप्त हो रही हैं। धरती की प्राकृतिक विलुप्ति दर प्रति दस लाख प्रजातियां, प्रति वर्ष है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि संकट कितना गहरा है।
वर्तमान विलुप्ति बाकी विलुप्तियों से अलग है क्योंकि इसके लिए एकमात्र प्रजाति जिम्मेदार है, वह है मानव। जैसे-जैसे मानव नई जगहों पर गए हैं, विलुप्ति की घटनाओं में बढ़ोतरी दर्ज की गई है। ऐसे में सवाल बनता है कि क्या हम विलुप्ति की दहलीज पर खड़ी प्रजातियों को बचा सकते हैं? क्या हम अपनी धरती के कायाकल्प के लिए विज्ञान पर भरोसा कर सकते हैं?
आज विश्व पर्यावरण दिवस के मौके पर इस सच्चाई को स्वीकारने की जरूरत है कि हम मानवों के विकास की दिशा कुछ ऐसी तय हो चुकी है कि अब प्रकृति का बचाने से ज्यादा प्रकृति के मनमाफिक निर्माण से बहुत कुछ तय होना है।
नए युग में प्राकृतिक वातावरण का कोई मतलब नहीं रह जाता क्योंकि इस धरती पर सजीव या निर्जीव, ऐसा कुछ नहीं बचा जिसके साथ मानवों ने छेड़छाड़ न की हो।
ड्यूक यूनिवर्सिटी में कानून के प्रोफेसर और “आफ्टर नेचर: ए पॉलिटिक्स फॉर द एंथ्रोपोसीन” के लेखक जेडेडाया पर्डी के शब्दों में, “सवाल यह नहीं है कि प्राकृतिक दुनिया को मानव घुसपैठ से कैसे बचाया जाए, सवाल यह है कि हम इस नई दुनिया को कैसा आकार देंगे क्योंकि हम इसे परिवर्तित किए बिना नहीं रह सकते।”
यह एंथ्रोपोसीन क्या है?
इसको भी समझ लिया जाए। वैज्ञानिकों ने आपसी सहमति से मई 2019 में इस युग को एंथ्रोपोसीन यानी मानव युग घोषित करने के पक्ष में मतदान किया था। भूवैज्ञानिक घटनाक्रम की देखरेख करने वाले अंतरराष्ट्रीय स्ट्रेटिग्राफी आयोग के अंतर्गत आने वाली क्वाटर्नेरी स्ट्रैटिग्राफी उपसमिति ने एंथ्रोपोसीन वर्किंग ग्रुप (एडब्ल्यूजी) नामक वैज्ञानिकों का एक 34 सदस्यीय पैनल गठित किया है। यह पैनल जल्द ही नए युग की शुरुआत की घोषणा का औपचारिक प्रस्ताव समिति के सामने रखने वाला है।
होलोसीन (अभिनव युग) नामक वर्तमान युग का अंत बस होने ही वाला है। यह युग 12,000 से 11,500 साल पहले शुरू हुआ था और वर्तमान वैज्ञानिकों ने बाद में इसे सूचीबद्ध किया था। यही वह समय था जब धरती की जलवायु में परिवर्तन हुए और उसके बाद मनुष्यों ने एक जगह टिककर खेती करना शुरू कर दिया था।
बढ़ते तापमान के साथ पैलियोलिथिक आइस एज (पुरापषाण युग) भी अपनी समाप्ति पर था और पृथ्वी का भूगोल, जनसांख्यिकी और पारिस्थितिकी तंत्र, सब कुछ एक बदलाव की ओर अग्रसर था। ग्लेशियर पिघलते गए और मैमथ एवं बालदार गैंडे नई गर्म जलवायु में विलुप्त हो गए।
धरती के बहुत बड़े इलाके में जंगल उग आए और मनुष्यों ने घूम-घूम कर शिकार एवं भोजन इकट्ठा करने की बजाय एक जगह टिककर रहना शुरू कर दिया। बढ़ते तापमान के साथ हिमयुग की कड़कती ठंड में भी कमी आई। इससे इंसानों की आबादी भी बढ़ी।
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आज हजारों वर्षों बाद मनुष्यों ने पूरी धरती पर कब्जा करके इसके भूगोल एवं पारिस्थितिकी तंत्र को इस हद तक प्रभावित किया है कि अब एक नए युग की घोषणा करनी पड़ रही है। 34 में से 29 सदस्यों ने 20वीं शताब्दी के मध्य को युग की शुरुआत घोषित करने के प्रस्ताव का समर्थन किया। इस कालखंड को लेकर हुई बहसों में वैज्ञानिकों ने कहा कि इस नए युग की शुरुआत औद्योगिक क्रांति (सन 1760) के साथ हुई।
उसी दौर में उपनिशवेशवादी व्यवस्था मजबूत हुई। उपनिवेशवाद एवं विलुप्ति के बीच का संबंध इस बात से समझ जा सकता है कि 2000 साल पहले जैसे ही मेडागास्कर उपनिवेश बनाया गया, हिप्पो, लंगूर एवं कई बड़े पक्षी विलुप्त हो गए। बड़े रीढ़दार प्राणी सबसे पहले विलुप्त होने वालों में थे क्योंकि शासक और व्यापारी वर्ग ने उनका शिकार किया या कराया।
विलुप्ति लहर 10,000 साल पहले भी शुरू हुई थी, जब कृषि की खोज के कारण आबादी में इजाफा हुआ जिसके फलस्वरूप जंगल कटे, नदियों पर बांध बने और जानवरों के झुंड के झुंड पालतू बनाए गए।
सबसे बड़ी लहर 1800 में जीवाश्म ईंधन के दोहन के साथ शुरू हुई। सस्ती ऊर्जा की उपलब्धि के फलस्वरूप मानव आबादी 1800 में 1 अरब से आज बढ़कर 7.5 अरब तक पहुंच गई है।
यह प्रक्रिया इसी तरह चलती रही तो मानव आबादी 2050 तक 9 से 15 अरब तक पहुंच जाएंगी। फिलहाल, मनुष्य प्रतिवर्ष पृथ्वी की स्थलीय शुद्ध प्राथमिक उत्पादकता का 42 प्रतिशत, समुद्री शुद्ध प्राथमिक उत्पादकता का 30 प्रतिशत और मीठे पानी का 50 प्रतिशत इस्तेमाल कर जाते हैं।
धरती की कुल भूमि का 40 प्रतिशत मानवों के भोजन की आपूर्ति के काम आ रही है। वर्ष 1700 में यह 7 प्रतिशत था। धरती का आधा हिसा मानव उपयोग के लिए रूपांतरित कर दिया गया है। मनुष्य अकेले ही बाकी सभी प्राकृतिक प्रक्रियाओं जितनी नाइट्रोजन उत्सर्जित करते हैं।
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आर्थिक विकास और उसके फलस्वरूप लगातार बढ़ती आबादी ने धरती को पूरी तरह से बदलकर रख दिया और वर्ष 2007 में क्रुटजेन ने ही इसे “ग्रेट एक्सेलेरेशन” के नाम से परिभाषित किया था। वायु, जल एवं भूमि प्रदूषण, अंधाधुंध कटते जंगल, विलुप्त होती प्रजातियां, जलवायु परिवर्तन और ओजोन परत में छेद इन बदलावों में से प्रमुख हैं।
रेडियोन्यूक्लाइड्स, परमाणु परीक्षणों के अवशेष होते हैं और ये हजारों वर्षों तक वातावरण में बने रह सकते हैं। ये एंथ्रोपोसीन के आगमन को दर्शाने वाले सबसे अहम संकेत हैं।
वैज्ञानिक ऐसी साइटें ढूंढ रहे हैं जहां पृथ्वी के पारिस्थितिक तंत्रों में हम मानवों द्वारा किए गए हस्तक्षेप के ऐसे सबूत मिलने की संभावना है। ये सबूत एंथ्रोपोसीन यानी मानव युग की शुरुआत की घोषणा करने में सहायक होंगे। खासतौर पर वे 1945 में हुए पहले परमाणु हथियार परीक्षण से निकले रेडियोन्यूक्लाइड कणों की खोज में लगे हैं। ये कण दुनियाभर में फैलकर पृथ्वी की मिट्टी, पानी, पौधों और ग्लेशियरों का हिस्सा बन गए हैं।
एंथ्रोपोसीन विचार के जनक डच रसायनशास्त्री 2000 में नोबेल पुरस्कार विजेता पॉल क्रुटजेन और अमेरिकी जीवविज्ञानी यूजीन पी स्टोरमर थे। इसको लोकप्रियता दो साल बाद मिली जब क्रुटजेन का लेख “द जियोलॉजी ऑफ मैनकाइंड” नेचर पत्रिका में छपा। कुछ ही समय में यह लेख शिक्षाविदों के बीच चर्चा का विषय बन गया।
इंसानों की वजह से जीवमंडल में कई मूलभूत बदलाव आए हैं लेकिन वे बदलाव आने वाली सहस्राब्दियों को भी प्रभावित करेंगे या नहीं, यह अब तक साफ नहीं हो पाया है। यह भूवैज्ञानिकों के लिए दुविधा की स्थिति है क्योंकि वे किसी युग का नामकरण “गोल्डन स्पाइक” के आधार पर करते हैं।
“गोल्डन स्पाइक” दरअसल धरती की परतों में मिलने वाले संकेत हैं जो लाखों वर्षों के क्रम में इकट्ठा होते हैं। उदाहरण के लिए, होलोसीन युग का गोल्डन स्पाइक ग्रीनलैंड स्थित एक 1,492 मीटर गहरी आइस-कोर में संरक्षित है। इसी तरह, डायनासोर का युग कहे जानेवाले क्रीटेशस काल का गोल्डन स्पाइक इरिडियम धातु है जो उस उल्कापिंड का अवशेष है जिसे डायनासोरों की विलुप्ति के लिए जिम्मेदार माना जाता है।
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धरती पर युग के बदलने का निर्णय पृथ्वी के ही अंदर मिले कुछ विश्वव्यापी संकेतों के माध्यम से किया जाता है। धरती की अंदरूनी परतों में पाए जाने वाले कुछ विशेष पदार्थों के स्तरों में वृद्धि ऐसा ही एक संकेत है। हालांकि रेडियोधर्मी तत्वों का प्रसार इस तरह का सबसे अच्छा संकेत है लेकिन कई अन्य नए, मानव निर्मित पदार्थ भी हैं जो इन “टेक्नोफोसिल” की श्रेणी में आते हैं। एल्युमिनियम, कंक्रीट, प्लास्टिक इत्यादि इस तेजी से विकसित होते समूह के कुछ सदस्य हैं।
रासायनिक खादों के अत्यधिक प्रयोग के फलस्वरूप उत्पन्न नाइट्रोजन, ध्रुवीय बर्फ में जमा कार्बन, पेड़ों के छल्लों और आइस कोर में अवशोषित ग्रीनहाउस गैसों में वृद्धि एवं पृथ्वी की सतह में पाए जाने वाले प्लास्टिक एवं माइक्रो-प्लास्टिक कुछ अन्य संकेत हैं जो ऐसे परिवर्तन का मजबूत समर्थन करते हैं।
तथ्य स्रोत: डाउन टू अर्थ पत्रिका