कम से कम तीन पक्षियों के अंडे हम इंसान से रहे हैं। दुनियाभर की बात नहीं, अपने देश की बात है। हमारे देश में तीन अलग-अलग पक्षियों की प्रजाति को विलुप्त होने से बचाने के लिए उनके अंडे इंसानों को सेने पड़ रहे हैं।
यूं तो धरती की उम्र लगभग 4.5 अरब साल मानी जाती है। अगर समय के हिसाब से देखा जाए तो 300 साल इन साढ़े चार अरब सालों में कुछ भी नहीं हैं। लेकिन, बीते तीन सौ सालों ने कुदरत के सारे करिश्मे को, सारे कार्य-व्यापार को उलट कर रख दिया है।
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कुदरत के कानून को अपने हिसाब से अदलने-बदलने का काम तो इंसान दस हजार साल पहले से ही करने लगा था। लेकिन, पूरी धरती के क्रियाचक्र को इस तरह से प्रभावित करने की क्षमता उसमें बीते तीन सालों में ही जमा हुई।
इसमें भी बीते सौ साल कुछ ज्यादा ही खराब तरीके से बीत रहे हैं। अब वो पूरी कायनात को ही अपना गुलाम बनाने में जुटा हुआ है।
इन सौ सालों में सैकड़ों प्रजातियां विलुप्त हो गईं। सैकड़ों विलुप्त होने की कगार पर हैं। एक पर्यावास नष्ट होता है। उस पर्यावास के नष्ट होते ही वहां रहने वाले लाखों-करोड़ों बाशिंदे नष्ट हो जाते हैं।
याद कीजिए ऑस्ट्रेलिया के जंगलों की लगी आग। इस आग में करोड़ों छोटे-बड़े जीवन काल-कवलित हो गए। जंगलों में आग की घटना तो यदा-कदा की है। लेकिन, इंसानों की गतिविधियां हर क्षण इस ग्रह को तबाह कर रही हैं। इन्हीं गतिविधियों के चलते ये तीन पक्षी आज विलुप्त होने की कगार पर पहुंच चुके हैं।
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सोन चिरइया या गोडावण या ग्रेट इंडियन बस्टर्ड भारत का सबसे बड़ा पक्षी है। यह सबसे बड़ा उड़ने वाला पक्षी है। शुतुरमुर्ग सबसे बड़ा पक्षी है। लेकिन, वह उड़ नहीं पाता। कभी यह सोने की चिड़िया भारत के एक बड़े हिस्से में पाई जाती थी। लेकिन, अब इसकी आबादी थार के रेगिस्तान तक सिमट कर रह गई है।
भारत में इनकी संख्या 150 के करीब मानी जाती है। इसमें से लगभग 122 सोन चिरइया राजस्थान में हैं। इन्हें राजस्थान के राज्यपक्षी का भी दर्जा है। वन्यजीव विशेषज्ञ इनके घोसलों पर नजर रखते हैं।
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भारी-भरकम होने के चलते ये जमीन पर ही घोसले बनाते हैं। आवारा कुत्ते, सियार आदि इनके घोसले में मौजूद अंडों को खा जाते हैं। वन्यजीव विशेषज्ञ इन अंडों को चुरा लाते हैं।
कृत्रिम इंक्यूबेशन से इन अंडों को सेने का काम किया जाता है। जब इनमें से बच्चे निकलते हैं तो उन्हें प्राकृतिक आवास में छोड़ दिया जाता है। हाल के दिनों में वन्यजीव विशेषज्ञों ने इस तरह के 14 बच्चों को कृत्रिम इंक्यूबेशन से पैदा किया है और उनका पालन-पोषण किया जा रहा है।
खरमोर यानी लेसर फ्लोरिकन के साथ भी कुछ ऐसा ही है। इस पक्षी की संख्या एक हजार से कम रह गई है। ये भी जमीन पर बनाए घोसले में अंडे देते हैं। मेटिंग के लिए अपने साथी को पुकारते समय नर खरमोर सात-आठ फुट की ऊंचाई तक उछलते हैं। इस दौरान उनके गले से मेढक की तरह टिट्-टिट् की आवाज निकलती है।
इस खूबसूरत मेटिंग इवेंट या प्रेम प्रदर्शन को देखना पक्षी विशेषज्ञों के लिए किसी सौभाग्य से कम नहीं है। यह प्रेम प्रदर्शन पक्षियों के लिए जानलेवा भी साबित हो जाता है। शिकारियों के उनकी लोकेशन पता चल जाती है और वे मारे जाते हैं।
इस पक्षी को विलुप्त होने से बचाने के लिए भी अंडे सेने और बच्चे निकलने पर उन्हें प्राकृतिक आवास में छोड़ने की तकनीक का सहारा लिया जा रहा है। बीते महीने ही खरमोर के दो बच्चे इस तरह से पैदा कराए गए हैं। खुद राजस्थान के मुख्यमंत्री ने इसकी जानकारी ट्वीट करके साझा की।
जबकि, गिद्धों के बारे में आज लगभग सभी को जानकारी है। पेन किलर के तौर पर इस्तेमाल की जाने वाली डायक्लोफेनॉक दवा के चलते गिद्धों की लगभग 99 फीसदी आबादी समाप्त हो चुकी है। यह सब कुछ इतनी तेजी से हुआ कि जब तक गिद्धों की मौत का कारण वैज्ञानिक समझ पाते तब तक उनकी संख्या बेहद कम हो गई।
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अब उनके संरक्षण के तमाम कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। इनमें अंडों को सेने के बाद उनके बच्चों का पालन-पोषण करने और उसके बाद उन्हें बाहर छोड़ देने का तरीका भी शामिल है।
पिंजौर में बनाए गए संरक्षण केन्द्र से इसी प्रकार मनुष्यों द्वारा पाले-पोषे गए सात गिद्धों को आसमान में आजाद किया गया है। हालांकि, इंसानों के बीच पले-बढ़े होने के चलते वे काफी देर तक उड़ान भरने से ही कतराते रहे और अपने इंक्लोजर के आसपास ही भटकते रहे।
ये सिर्फ तीन उदाहरण है। दुनिया भर में इस तरह के न जाने कितने कार्यक्रम चल रहे हैं। पर असली बात तो यह है कि अगर उनके पर्यावास को नष्ट करना बंद नहीं किया गया, उनकी जीवनचर्या में दखलअंदाजी बंद नहीं हुई, उन्हें प्रकृति के साथ जिंदा नहीं रहने दिया गया तो आखिर कितने पक्षियों के अंडे इंसान से सकता है।
क्या इसका कोई अंत है?
(पर्यावरण व वन्यजीवों को समर्पित ब्लॉग जंगलकथा से साभार)