मोईन खान
भारत, जिसने आजाद होते ही अपने हर नागरिक को समान अधिकार दिए. हाशिये पर खड़ी महिलाओं को बराबरी पर लाने के लिए आरक्षण की व्यवस्था की. फिर आखिर क्या कारण है कि महिलाओं की एक बड़ी आबादी आर्थिक, शैक्षिक और सामाजिक स्तर पर पिछड़ेपन के जंजाल में फंसी है. उनके खिलाफ हिंसक घटनाएं चरम पर हैं. हर रोज देश के किसी न किसी हिस्से वे बलात्कार, आत्महत्या और कथित आत्मसम्मान के कारण मौत की भेंट चढ़ रही हैं. (Law Equal Rights Women Discriminating)
28 फरवरी 1909 में सोशल पॉर्टी ऑफ अमेरिका ने पहला अंतरराष्ट्रीय दिवस न्यूयॉर्क शहर में मनाया था. उस समय दो कैलेंडर चलते थे. ग्रेगेरियन कैलेंडर के मुताबिक उस दिन 8 मार्च था. आगे चलकर 1975 में संयुक्त राष्ट्रसंघ ने भी अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की तारीख 8 मार्च ही मुकर्रर कर दी. तब से दुनिया भर में इस तारीख को महिलाओं के योगदान, उनकी उपलब्धियों का जिक्र करके सम्मानित किए जाने का सिलसिला जारी है.
अब हम भारत में महिलाओं के अधिकार और उनकी स्थिति को संविधान की रोशनी में समझने का प्रयास करते हैं, आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक-इन तीन बिंदुओं पर.
सामाजिक स्थिति और संविधान
भारती संविधान का अनुच्छेद 14 समानता के अधिकार की बात करता है. हाल ही में सुप्रीमकोर्ट ने कुछ महत्वपूर्ण फैसले दिए. जो धर्म को आधार बनाकर महिलाओं के खिलाफ भेदभाव और कुरीतियों से जुड़े हैं. इसमें एक बार में तीन तलाक और सबरीमाला केस प्रमुख है. महिलाओं के लिए दोनों मामले बेहद अहमद है. एक बार में तीन तलाक के खिलाफ महिलाओं ने लंबी कानूनी लड़ाई लड़ी. सुप्रीमकोर्ट के आदेश के बाद केंद्र सरकार ने मुस्लिम महिला विवाह अधिकार संरक्षण कानून-2019 बनाया.
दरअसल, अनुच्छेद 14 में दो बातें साफ हैं. ये समानता की बात तो करता ही है, दूसरी तरफ राज्य को ये भी अधिकार देता है कि वह सकारात्मक नजरिये से भेदभाव भी कर सकता है. हाल ही में केंद्र सरकार ने सामान्य वर्ग के आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग के लिए इकॉनमिक वीकर सेक्शन आरक्षण व्यवस्था लागू की है.
जो उसी सकारात्मक और तर्कसंगत भेदभाव का दूसरा पहलू है. इसी तरह अनुच्छेद 15 (3) में देखने को मिलता है कि राज्य महिलाओं और बच्चों के लिए विशेष प्रावधान बना सकते हैं. यहीं से महिलाआें के लिए आरक्षण का रास्ता बनता है, ताकि इतिहास में हुए भेदभाव से उबरकर महिलाएं बराबरी पर आ सकें.
आजादी के साथ ही वोट का अधिकार
आजाद भारत ने महिला-पुरुष दोनों को मताधिकार दिया. जिससे देश और सरकार में सबकी भागीदारी सुनिश्चित की जा सके. इसके साथ ही समय आने पर स्थानीय निकाय चुनाव में महिलाओं के लिए आरक्षण प्रणाली की व्यवस्था की. राजनीति में उनका प्रतिनिधित्व बढ़ाने के लिए ये प्रयास होते रहे.
आर्थिक समानता का जटिल रास्ता
अनुच्छेद 39 (D)समान आय और समान काम के विषय में बात करता है. लेकिन इसका पालन करना काफी मुश्किल है. इसका बड़ा कारण है महिलाओं को लेकर हमारे समाज की सोच में. जिसे बदले बना आर्थिक समानता का रास्ता सुगम नहीं होगा. पहला-महिलाओं को लेकर समाज को अपना नजरिया बदलना होगा, वो ये कि वे केवल घेरलू कामों के लिए बनी हैं.
घर से मिटाना होगा भेदभाव
आज जो स्थितियां हैं, उससे एक बात तो साफ है कि कानून ने महिलाओं को बराबरी का अधिकार दिया है. मगर वे अपने परिवार और समाज में भेदभाव का शिकार हैं. इसलिए महिलाओं को बराबरी का दर्जा देने के लिए हर व्यक्ति को अपने घर से शुरुआत करनी होगी. लड़का-लड़की में रत्ती भर भी फर्क किए बिना उनकी शिक्षा, प्रगति पर ध्यान केंद्रित करने की जरूरत है. धार्मिक आधार पर भेदभाव, कुरीतियों से बचना होगा. ऐसा समाज बनाना होगा जहां महिलाएं बेफिक्री के साथ जी सकें.
(लेखक छात्र हैं, ये उनके निजी विचार हैं.)