वह खूबसूरत गायिका, जिनका गीत सुनने को उमड़े दर्शक

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       दिनेश श्रीनेत

-जन्मदिन-

एक तरफ “मेरा सुंदर सपना बीत गया” जैसे गीत से गीता राय की पहचान बनी तो साल 1950 में केदार शर्मा की ‘जोगन’ फिल्म में उनकी आवाज़ राग-विराग की गोधुलि से उठती है। खास तौर पर मीरा बाई के दो भजन उन्होंने जिस तरह गाए हैं, उन पर गौर करना चाहिए। (Beautiful Singer Geeta Dutt)

“हे री मैं तो प्रेम दीवानी” को उन्होंने तेज लय में पूरी तरह से डूबकर गाया है। मानो प्रेम की पीड़ा ने ही किसी अनिवर्चनीय सुख का रूप ले लिया हो। वहीं इसी फिल्म का “घूंघट के पट खोल रे” भजन लगभग निर्वेद की स्थिति में ले जाता है। यह हैरत की बात है कि ठीक ऐसी ही निर्लिप्तता उनकी खुशी में भी दिखती है। बाद के सालों में लोकप्रिय हुए उन चहकते हुए गीतों में भी वे अपनी आवाज से एक खास किस्म का आइरनी पैदा कर देती थीं।

सन् 1951 में फिल्म ‘बाज़ी’ आई, जहां पश्चिमी संगीत और जै़ज़ धुनों से सराबोर उनकी आवाज़ में एक नई उठान, नई रंगत नज़र आती है।

 

डरता है ज़माने की

निगाहों से भला क्यूँ

निगाहों से भला क्यूँ

इनसाफ़ तेरे साथ है

इलज़ाम उठा ले,

इलज़ाम उठा ले

अपने पे भरोसा है

तो ये दांव लगा ले

लगा ले दांव लगा ले

इस गीत के बारे में एसडी बर्मन कहते हैं, “इस फिल्म का सबसे मुख्य प्रयोग था एक ग़ज़ल-‘तदबीर से बिगड़ी हुई तकदीर बना ले’। इसे पाश्चात्य संगीत की शैली में ढाला गया था इसे पार्श्व गायिका गीता राय ने गाया था। जब फिल्म रिलीज के लिए तैयार थी तो मैं भी चिंतित था। क्या मैंने गलती की?” (Beautiful Singer Geeta Dutt)

यह एक किस्म का फ्यूज़न था, एक अनोखा प्रयोग। साहिर की लिखी ग़ज़ल को एक वेस्टर्न धुन में पिरोना। मगर इसी वजह से यह गीत इतना अनूठा बन पड़ा। सिर्फ इस गीत को सुनने के लिए दर्शक बार-बार बाजी फिल्म देखने जाने लगे थे।

यही वो साल था जब वे निर्देशक अभिनेता गुरू दत्त से प्रेम कर बैठीं… 21 साल की उम्र में प्रेम और 23 साल की उम्र में शादी। जब देव आनंद ने एक पार्टी में पहली बार गुरू दत्त और गीता राय की मुलाकात कराई थी तो वे शोहरत की ऊँचाइयों पर थीं। जबकि गुरू दत्त उन दिनों इंडस्ट्री में अपने पांव जमाने की कोशिश कर रहे थे।

देव ने गीता को बताया कि उनकी अगली फिल्म बाज़ी को गुरू दत्त ही डायरेक्ट करने जा रहे हैं। फिल्म का पहला दृश्य गीता बाली पर फिल्माया जाना था। जिसके लिए सचिन देव बर्मन ने गीत तैयार किया था, “तदबीर से बिगड़ी हुई तकदीर बना ले”। (Beautiful Singer Geeta Dutt)

गाने की रिकार्डिंग के वक्त जब गुरू दत्त ने गीता को देखा तो उनकी आवाज़ के जादू में तो डूबे ही, उनकी शख़्सियत से भी सम्मोहित हो उठे। बंगाल में लंबा वक्त बिता चुकी पादुकोण फैमिली का बंगाली भाषा और संस्कृति से गहरा नाता था।

नसरीन मुन्नी कबीर लिखती हैं, “गीता राय ने माटुंगा में गुरु दत्त से मिलना शुरू कर दिया और अपनी सफलता व प्रसिद्धि के बावजूद उन्होंने विनम्रता दिखाई, जिसने उन्हें पूरे पादुकोण परिवार का चहेता बना दिया। वसंती पादुकोण याद करती हैं कि जब उनका पसंदीदा बँगला गाना ‘तुमी जोदी बोलो भालोबाशा’ गाया करती थीं, गुरु दत्त जो उसके प्यार में थे, बहुत खुश होते थे।”

जानी-मानी पेंटर और गुरू दत्त की बहन ललिता लाजमी बताती हैं, “उनकी मधुर आवाज के अलावा, मैं सुंदरता से स्तब्ध रह गई थी। वह अजंता की तस्वीरों जैसी थीं, सलोनी और अति सुंदर! जल्द ही, गुरुदत्त और उन्हें प्यार हो गया। उनका प्रेम लंबा चला, लगभग तीन साल तक। उन्होंने मेरे माध्यम से पत्रों का आदान-प्रदान किया। उनके बंगले की बालकनी में एक पूर्णिमा की रात, उन्होंने स्वीकार किया, “मैं तुम्हारे भाई से शादी करने जा रही हूँ!”

बाज़ी का गीत हिट हो चुका था-

क्या खाक वो जीना है

जो अपने ही लिये हो

अपने ही लिये हो

खुद मिटके किसी और को

मिटने से बचा ले

अपने पे भरोसा हैं तो

ये दांव लगा ले

लगा ले दांव लगा ले

गीता के परिवार ने शुरू में ऐतराज किया मगर जल्दी ही शादी तय हो गई। ललिता उस शादी को याद करती हैं, “गीता लाल रंग की बनारसी साड़ी में अत्यंत सुंदर लग रही थी। माथे पर सिंदूर व चंदन की बिंदियाँ और शरीर पर गहनों से उसकी सुंदरता में चार चाँद लग रहे थे। गुरु दत्त सफेद रेशमी कुरता और धोती में थे। दोनों बहुत प्यारे और बेहद खुश लग रहे थे। उनकी सुहागरात की सेज फूलों से सजी हुई थी। गीता को अपनी माँ से मिले तोहफों तथा गहनों को सबके देखने के लिए रखा गया था। मैंने पहली बार इतने भव्य रूप से शादी रचाते हुए देखा। इतनी चमक-दमक और धूमधाम मैंने पहली बार देखी थी। आज भी मैं शहनाई की गूँज और शंखनाद नहीं भूल सकती।” (Beautiful Singer Geeta Dutt)

इसी दौर में लोगों ने जाना कि गीता की आवाज़ में दुःख और विरह नहीं, कुछ चुहल भी है, शोखी और तुर्शी भी है। फिल्म ‘आर-पार’ के इस गीत में गीता दत्त को बिल्कुल अलग अंदाज़ में देखा जा सकता था-

गीता की खूबी यह थी कि उनके शोखी भरे गीतों में भी एक अजीब सी आइरनी पैदा हो जाती थी। जैसे दुनियादारी, उसके फरेब, उसकी धूप-छांव को जानते-बूझते हुए कोई बस इन सबके बीच अपना किरदार निभा रहा हो। सन छप्पन में आई ‘सीआईडी’ के इस गीत में मुहम्मद रफी के गाए इस गीत के अंत में मानों धूल और राख झाड़ती हुई एक आवाज़ ऊपर उठती है-

                                                    बुरा दुनिया को है कहता,

ऐसा भोला तो ना बन

जो है करता, वो है भरता,

है यहाँ का ये चलन

दादागिरी नहीं चलने की यहाँ

ये है बॉम्बे, ये है बॉम्बे

ये है बॉम्बे मेरी जाँ

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व फिल्म समीक्षक हैं)


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