मृणाल सेन की भुला दी गई फिल्म, जिसने मानवीय रिश्तों को गहराई से टटोला

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– दिनेश श्रीनेत 


सन् 1984 में रिलीज़ ‘खंडहर’ मृणाल सेन की एक यादगार मगर लगभग भुला दी गई और दुर्लभ फिल्म है। इस फिल्म को निर्विवाद रूप से मृणाल सेन की कुछ सबसे बेहतरीन फिल्मों में रखा जा सकता है। यह उनके लिए एक टर्निंग प्वाइंट भी है, विषय के चयन और शैली दोनों में सेन अपनी पिछली फिल्मों से बहुत अलग हैं।

तीखे राजनीतिक विमर्श और प्रयोगधर्मी शैली से दूर मृणाल दा इस फिल्म में मानवीय संबंधों को जिस तरह टटोलते हैं, वह कहीं न कहीं अस्तित्वपरक दार्शनिकता को छूता है।

इस फिल्म पर बात करना आसान नहीं है। यह बतौर दर्शक आपसे ज्यादा सजगता और संवेदनशीलता की मांग करती है। जो स्क्रीन पर दिखता है, वह जैसे आइसबर्ग का ऊपरी हिस्सा भर है। दूर तक फैले उजाड़ के बीच महज सात पात्रों को फ्रेम में समेटे यह फिल्म अनोखे कंट्रास्ट रचती है।

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उन खंडहरों में शहर से छुट्टियां बिताने तीन युवक आए हैं। दीपू (पंकज कपूर) का यह पुश्तैनी गांव है और साथ में उसके दो दोस्त हैं सुभाष (नसीरुद्दीन शाह) और अनिल (अन्नु कपूर)। सुभाष एक फोटोग्राफर है और वह जर्जर हो चुकी इमारतों को अपने कैमरे की निगाह से देखता रहता है।

इन्हीं खंडहरों के एक हिस्से में जामिनी (शबाना आज़मी) अपनी अंधी और चलने-फिरने में असमर्थ मां (गीता सेन) के साथ रहती है। उसकी मां को अभी भी अपने दूर के रिश्तेदार निरंजन का इंतज़ार है, जिससे उसने कभी जामिनी का रिश्ता तय कर रखा था। यह बात सिर्फ जामिनी को पता है कि वह शख़्स शादी कर चुका है और कभी इन खंडहरों में नहीं लौटने वाला।

दीपू अपने दोस्त सुभाष के साथ जामिनी की मां से मिलने जाता है और मां यह समझ बैठती है कि दीपू के साथ निरंजन है। सुभाष मां के इस भ्रम को बना रहने देता है। आगे का कुछ समय और ये तीनों दोस्त इन खंडहरों में घूमते-फिरते, तस्वीरें खींचते, धूप सेंकते बिताते हैं और फिर वहां से रवाना हो जाते हैं।

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इस बीच सुभाष और जामिनी के बीच कोई अव्यक्त से संबंध की संभावना भर बनती है मगर जब तक वह कोई रूप ले सके सुभाष को अपने दोस्तों के साथ लौटना पड़ता है और जामिनी एक बार फिर उन खंडहरों में किसी अंतहीन प्रतीक्षा के बीच अकेली रह जाती है।

इस फिल्म में समय की मार से जर्जर हो चुकी इमारतें भी कहानी का एक अहम हिस्सा हैं। केके महाजन ने अपने कैमरे की मदद से वहां की वीरानेपन को उभारा है। पुरानी जर्जर दीवारें जिनके पलस्तर गिर चुके हैं, आसमान की तरफ ताकते ऊंचे खंभे, जगह-जगह फैल गई लताएं और जहां-तहां उग आए पेड़- सुभाष बने नसीर अपने कैमरे की निगाह से उस पूरे ध्वस्त सामंती अवशेष को देखते हैं।

यह एक तटस्थ दृष्टा की निगाह है। ये शहरी जीवन में रचे-बसे युवा हैं, जिनकी भागदौड़ भरी जिंदगी में इस बात के लिए बिल्कुल समय नहीं है कि वे किसी और के जीवन में उतरकर उसकी तकलीफों को समझ सकें। बल्कि वे किसी और की जिंदगी में दाखिल होने और अपने भीतर पैदा हो रही संवेदनाओं से डरते हैं।

दीपू को बिल्कुल भी दिलचस्पी नहीं है कि उसकी कजन जामिनी के भविष्य का क्या होगा। वहीं शहर से आए सुभाष का कैमरा जामिनी से भी एक सुरक्षित संवेदनात्मक दूरी तय करने में मदद करता है। इसके बावजूद जामिनी की मौजूदगी और उसके अनिश्चित आगत में जैसे कोई रहस्मय खिंचाव है जो तीनों दोस्तों को तनाव से भर देता है।

रात के सन्नाटे में जब जामिनी दरवाजा बंद करती है तो लगता है कि वह किसी दूसरी दुनिया किवाड़ हैं, जहां दो औरतें अपनी अभिशप्त नियति के साथ कैद हैं। अनिल बने अन्नू कपूर ने जामिनी का नाम रखा है शमशान चंपा। वैसे जामिनी का अर्थ रात होता है।

सुभाष और दीपू उसके करीब जाते हैं मगर उसके भीतर झांकने से डरते हैं, क्योंकि वह युवा लड़की जामिनी के चारो तरफ अवसाद की परतें लिपटी हुई हैं। जाने किस जमाने के खंडहरों में वह रहती है, जहां किसी जमाने में सारे लोग मलेरिया मर गए और जो बचे थे वह गांव छोड़कर भाग गए।

उसके साथ अंधी और करवट तक लेने में असमर्थ मां हैं, जिनका जेहन अतीत में ही छूट गया है। वह बदलते वक्त को नहीं देख सकतीं। उन्हें अभी भी अपने दूर के रिश्तेदार निरंजन का इंतजार है जो उनकी बेटी को और उन्हें वहां से निकालकर ले जाएगा।

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जामिनी के भीतर झांकने का मतलब किसी रात जैसे अतल अंधकार से रू-ब-रू होना है, जो शहरी सुविधाभोगी जीवन जी रहे उन युवाओं को डराता है। शबाना को इस फिल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था। उन्होंने बहुत कम संवादों में अपने चरित्र को गहराई दी है।

जामिनी को खुद पता है कि वह एक ऐसी प्रतीक्षा में है, जो कब खत्म होगी यह उसे भी नहीं पता है। जब तीनों युवक इस बियावान में आते हैं तो कहीं उसके भीतर उम्मीदों की कोंपल फूटती है। मगर यह अनुभूति इतनी हल्की है कि जामिनी खुद इसे नहीं समझ सकती। शबाना अपने अभिनय, अपनी उजली आँखों और स्मित मुस्कान के माध्यम से अपने भीतर आ रहे इस बदलाव को बड़ी खूबसूरती से अभिव्यक्त किया है।

फिल्म के आरंभ में सुभाष अपनी खींची गई तस्वीरों को डेवलप करता जिसमें जामिनी की खंडहरों के बीच से झांकती-ठिठकी एक तस्वीर भी है। यहां से फिल्म फ्लैशबैक में जाती है। अंत में हम जामिनी की उसी तस्वीर को फ्रेम में मढ़ा हुआ देखते हैं। सुभाष अपने रोजमर्रा के कामों और फोटोशूट में फिर से व्यस्त हो गया है।

बाहर से आते ट्रैफिक के शोर के बीच कैमरा धीरे-धीरे उस फोटो फ्रेम की तरफ बढ़ता, जहां जामिनी की प्रतीक्षा भी मानों अंतहीन समय के लिए कैद हो गई है। छायांकन के अलावा फिल्म में ध्वनि और बैकग्राउंड संगीत का भी काफी महत्व है।

दिन में सुनाई देती जंगली पक्षियों की आवाज़ और रात में झींगुर और कुत्तों के भौंकने की आवाजें देखने वालों को भी उसी वीराने में ले जाती हैं। पार्श्व में जब-जब भास्कर चंद्रावरकर के संगीत के टुकड़े बज उठते हैं तो जैसे हम बाहरी खंडहरों की जगह मन की बावड़ियों और उजाड़ गलियारों के बीच भटकने लगते हैं।

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‘खंडहर’ फिल्म बंगाली लेखक प्रेमेंद्र मित्र की कहानी ‘तेलेनापोता अबिष्कार’ पर आधारित थी। प्रेमेंद्र मित्र कवि, कथाकार के साथ फिल्म निर्देशक भी थे और उन्होंने कई बंगाली फिल्मों का निर्देशक किया है। यह फिल्म भारत के अलावा अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सवों में भी सराही गई थी।

इस फिल्म के लिए शबाना आज़मी के अलावा मृणाल सेन को भी सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का पुरस्कार मिला था और इसे सर्वश्रेष्ठ पटकथा का फिल्मफेयर अवार्ड भी मिल चुका है। इसे शिकागो फिल्म फेस्टिवल में गोल्डेन ह्यूगो और मांट्रियल महोत्सव में स्पेशल ज्यूरी पुरस्कार मिला था। फिल्म में खंडहरों के दृश्य के लिए मृणाल सेन ने चार अलग-अलग लोकेशन तलाशी थीं।

इसका ज्यादातर हिस्सा बर्दवान जिले में शांतिनिकेतन के निकल कालिकापूर राजबाड़ी में और 24 परगना के बोवाली राजबाड़ी में हुआ था। यह फिल्म 35 एमएम में बनी है मगर सही मायनों इसको बड़े पर्दे पर सिनेमाहाल के अंधेरे में महसूस किया जा सकता है।

वर्ष 2010 में इसे रिलायंस मीडिया वर्क्स की मदद से री-स्टोर किया गया था और कान फिल्म फेस्टिवल में दिखाया गया था। हालांकि अभी भी इसके बेहतर प्रिंट मौजूद नहीं हैं।

‘खंडहर’ आम फिल्मों से इसलिए भी अलग है कि यह फिल्म खुद को नैरेट नहीं करती। इसके ब्योरों में एक किस्म का ठहराव है। वह सिर्फ दर्शकों को उस जकड़ देने वाले उजाड़ में ले जाकर छोड़ देती है। संवाद भी बहुत कम और रोजमर्रा के हैं।

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नसीर और शबाना के बीच की बातचीत तो महज कुछ अधूरे वाक्य हैं। ऐसे में फिल्म अगर कुछ कहना चाहती है तो उसे दृश्यों, परिदृश्य और पात्रों के अंडरस्टेटेड हाव-भाव के माध्यम से ही समझा जा सकता है। नसीर और पंकज कपूर का अभिनय संतुलित है मगर मां बनीं मृणाल सेन पत्नी गीता सेन और जामिनी के किरादर में शबाना ने इस फिल्म को एक अलग ऊंचाई तक पहुँचाया है।

मां बेटी के बीच का तकलीफ से भरा रिश्ता, जामिनी का अकेलापन और प्रतीक्षा, खंडहरों में पसरा एक अजीब सा वीराना धीरे-धीरे करके आपके हवास पर छाता जाता है। हम अपने जीवन में अपनी ही नहीं अपने आसपास की बहुत सारी चीजों, स्मृतियों और तकलीफों को अपने साथ लेकर चलते हैं।

हम सोचते हैं कि वे हमारी दुनिया का हिस्सा नहीं हैं मगर वे हमारे आसपास प्रेत छायाओं सी मंडराती रहती हैं। जामिनी अपनी अंतहीन प्रतीक्षा में सिर्फ सुभाष की स्मृति का नहीं बल्कि फिल्म खत्म होने के बाद आपकी स्मृति का भी हमेशा-हमेशा के लिए हिस्सा बन जाती है।

(वरिष्ठ पत्रकार व फिल्म समीक्षक दिनेश श्रीनेत की फेसबुक वाॅल से साभार)

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