कब्बन मिर्जा : जिनके 2 गानों ने उन्हें अमर बना दिया

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Kabban Mirza Classic Voice
मोहम्मद रफ़ी के साथ कब्बन मिर्जा

कमाल अमरोही की फिल्म रज़िया सुल्तान के दो कालजयी गीत, आयी जंज़ीर की झंकार खुदा खैर करे… और तेरा हिज़्र मेरा नसीब है आपकी रूह को सुकून से भर देते हैं. गायक की भारी और अनगढ़ आवाज आपके कानों को खटकती भी है अच्छी भी लगती है. गीत सुनते हुए आप महसूस करते हैं कि गायक शायद मुम्बईया फिल्मों के गायकों की तरह ट्रेंड नहीं है. लेकिन आप यह भी महसूस करते हैं कि इस गायक का और कोई जोड़ नहीं है. इस गाने को अपनी आवाज दी थी कब्बन मिर्जा ने. (Kabban Mirza, the Classic Voice of Hindi Cinema)

दरअसल रजिया सुलतान फिल्म के इन दोनों गानों में कब्बन मिर्जा की आवाज में होने का भी दिलचस्प किस्सा है. कमाल अमरोही की इस सबसे महँगी महत्वकांक्षी फिल्म में धर्मेन्द्र ने एक हब्शी ‘जमाल-उद्दीन याकूब’ का किरदार अदा किया था. अब एक गुलाम हब्शी गीत-संगीत का बहुत जानकार तो हो नहीं सकता था लेकिन हिंदी फिल्मों के चलन के मुताबिक नायक होने की वजह से उसका गीत गाना भी जरूरी था. सो इस किरदार के लिए कमाल अमरोही और फिल्म के संगीत निर्देशक खय्याम साहब को एक ऐसी आवाज की तलाश थी जो अनगढ़ हो मगर हो बहुत खुरदरी, मर्दाना और कर्णप्रिय. जो आवाज एक लड़ाकू हब्शी के किरदार में फबे भी और सुरीली भी लगे. फिल्म में रज़िया सुल्तान (हेमा मालिनी) के ग़ुलाम और आशिक़ याकूब (धर्मेन्द्र) के लिए किसी स्थापित आवाज को लिया जाना किरदार के साथ न्याय नहीं होता और कमाल अमरोही इस मामले में भी समझौता नहीं कर सकते थे.

तो तलाश शुरू हुई इस लड़ाके हब्शी की आवाज की. हिन्दुस्तान भर के पचासों गायकों के ऑडिशन लिए गए लेकिन बात न बनी. सभी की आवाज में एक पेशेवराना पुट झलकता था और खुरदरापन भी गायब रहता. ऑल इंडिया रेडियो में अनाउंसर के तौर पर काम कर रहे कब्बन मिर्ज़ा भी इस ऑडिशन में शामिल किये गए. कमाल अमरोही साहब को एस. अली रज़ा ने कब्बन मिर्ज़ा से ये गाने गवाने की सलाह दी. लखनऊ में कब्बन मिर्ज़ा मोहर्रम के समय गाए जाने वाले मर्सिया और नोहे गाया करते थे. लखनऊ के होने की वजह से एस. अली रज़ा कब्बन मिर्जा को खूब जानते थे. कमाल अमरोही साहब और खय्याम को उनकी आवाज अपने किरदार के लिए माकूल लगी. लेकिन कब्बन मिर्जा ने उन्हें बताया कि मैंने गायकी कभी नहीं सीखी है. ऑडिशन में भी वे सिर्फ लोकगीत ही गा रहे थे. काफी उहापोह के बावजूद कमाल अमरोही और खय्याम की तलाश पूरी हो चुकी थी.

संगीतकार खय्याम के सामने अनट्रेंड कब्बन मिर्जा से गीत गंवाने की चुनौती थी जिसे उन्होंने स्वीकार किया. गानों को मुकम्मल बनाने के लिए कब्बन मिर्जा को सुर-ताल की जरूरी ट्रेनिंग देने के बाद गानों की रिकॉर्डिंग्स शुरु हुई.

फिल्म की रिलीज के बाद दोनों गानों ने संगीत जगत में धूम मचा दी. आज भी ये दोनों गाने हिन्दुस्तान के सुगम संगीत में मील का पत्थर बने हुए हैं. चाहे कोई कब्बन मिर्जा की कहानी जानता हो या न जानता हो लेकिन इन दोनों गानों को जरूर जानता है. हिंदी साइन जगत के ये कुछ अजीब से लगने वाले दिलकश सदाबहार गाने आज भी खूब सुने जाते हैं.

Kabban Mirza Classic Voice
कब्बन मिर्ज़ा

फिल्म में कब्बन मिर्ज़ा ने दो गीत गाये. पहला गाना था जांनिसार अख्तर का लिखा ‘आई ज़ंजीर की झंकार, ख़ुदा ख़ैर करे’ और दूसरा निदा फाजली का लिखा ‘तेरा हिज्र मेरा नसीब है, तेरा ग़म ही मेरी हयात है.’ इसके बाद कब्बन मिर्ज़ा ने फिल्म ‘शीबा’ में भी एक गाना गाया था लेकिन इस गीत का श्रेय उन्हें नहीं मिला. इधर कब्बन मिर्जा के गाने धूम मचा रहे थे उधर मिर्जा रेडियो की दुनिया में दोबारा उलझ गए. कब्बन मिर्जा का मानना था कि उनकी किस्मत में 2 ही गाने थे और वे इससे खुश हैं.

कब्बन मिर्ज़ा 1936 में लखनऊ के बाग शेरजंग में पैदा हुए. मिर्ज़ा साहब लखनऊ के सीदी समुदाय से थे. अफ्रीकी मूल सीदी नवाबों के ज़माने में गुलाम के तौर पर लखनऊ लाए गए और यहीं बस गए. सीदियों का जंजीर का मातम और नौहे बहुत मशहूर थे. दरअसल लखनऊ का मोहर्रम सीदियों के बिना सम्भव नहीं होता था. कब्बन मिर्ज़ा भी सीदी नौहाख्वां ही थे. छोटी उम्र से ही वे नौहे याद करने और गाने लगे थे. कब्बन साहब की नौहों में पकी आवाज ने पहले उन्हें ऑल इंडिया रेडियो तक पहुंचाया और बाद में सिनेमा के परदे तक.

उस वक़्त ऑल इंडिया रेडियो के हवामहल जैसे कार्यक्रमों की लोकप्रियता की एक वजह कब्बन मिर्ज़ा की बुलंद आवाज भी थी. आल इण्डिया रेडियो में काम करते हुए भी कब्बन मिर्जा मोहर्रम के महीने में लखनऊ आकर नौहे गाते.

कब्बन साहब कहा करते थे कि “मेरे नसीब में बस उतना ही था. उन गीतों से खूब चर्चा मिली. लोग मुबारकबाद देते थे, लेकिन आगे का अंधेरा किसने देखा होता है दोस्त? मुझे इस बात का सुकून है कि भारतीय फिल्म जगत में जो बेशुमार बेहतरीन गाने बने हैं, उसमें दो गाने मुझे भी गाने का मौका मिला.”

जीवन के अंतिम दिनों में कब्बन मिर्ज़ा अपनी इस खनकती आवाज से ही महरूम हो गए. गले में दर्द की तकलीफ के बाद कब्बन मिर्ज़ा को डॉक्टरों ने बताया कि वे अब कभी बोल नहीं पाएंगे. गले के कैंसर की वजह से जीवन के अंतिम दिनों में ये आवाज खामोश हो गयी लेकिन तब तक कब्बन मिर्जा के सुर अमर हो चुके थे. (Kabban Mirza, the Classic Voice of Hindi Cinema)

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