इस्लामी देशों और इजराइल के यह कदम क्या संकेत दे रहे हैं?

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आशीष आनंद-

कोरोना वायरस से पैदा हुई महामारी और अमेरिका में नई सरकार के गठन के बाद से कई ऐसे बदलाव दिखाई दे रहे हैं, जो दुनिया में बदलाव की नई पटकथा लिख रहे हैं। ये पटकथा शांति का माहौल बनाएगी या किसी नए युद्ध को जन्म देगी, इस बारे में अभी कयास ही लगाए जा सकते हैं। हाल ही की कुछ प्रमुख घटनाओं से इस बात को समझा जा सकता है कि वैश्विक ध्रुवीकरण का नया सिलसिला कैसे चल रहा है।

रमजान के महीने में फिलिस्तीन पर इजराइली हमले के समय दुनियाभर के मुसलमान और शांति के पक्षधर बेचैन हो उठे। खाड़ी देशों में सिर्फ ईरान की ओर से ही फिलिस्तीन को ठोस मदद पहुंची, जबकि इजराइल के आसपास खाड़ी देश चारों ओर हैं। तुर्की की ओर से घुड़की तो मिली, लेकिन इससे आगे काेई दखल वहां से भी नहीं हुआ। कुल मिलाकर मामला तात्कालिक तौर पर ठंडा हो गया है और छिटपुट घटनाएं अभी भी जारी हैं।

दुनियाभर के मुसलमान फिलिस्तीन के मुद्दे के अलावा यहूदियों से धार्मिक बैर होने के चलते इजराइल के खिलाफ हैं। वे आमतौर पर मानते हैं कि इजराइल मुसलमानों के खिलाफ साजिशें रचता है और उनके लिए दुनियाभर में परेशानी खड़ी करने में जुटा रहता है।

चारों ओर से इस्लामिक खाड़ी देशों से घिरा इजराइल अपनी ताकत का प्रदर्शन बेखौफ करता दिखाई भी देता है। एक बार युद्ध हुआ तो खाड़ी देशों को पराजय का सामना करना पड़ा। इजराइल की इस जीत के पीछे अमेरिका का हाथ रहा, इस पर किसी को शक नहीं है। अमेरिका का हाथ और साथ आज भी उसके साथ है, यह भी संदेह की बात नहीं है। इसकी ताजा मिसाल यह है कि इजराइल को मुसलमानों का दर्द भी दिखने लगा है।

हाल ही में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में दर्ज बयान में इजराइल ने हस्ताक्षर किए हैं, जिसमें चीन में मौजूद उइगर मुसलमानों से हमदर्दी जताई गई है। यूएनसीएचआर का यह बयान चीन के पश्चिमी शिनजियांग में जाने की अनुमति देने का आग्रह करने के लिए जारी किया गया है। इसी बयान में कहा गया है कि चीन में दस लाख उइगर और अन्य अल्पसंख्यकों को अवैध रूप से शिविरों में रखा गया है।

वाल्ला न्यूज के मुताबिक इजराइल ने इस बयान में हस्ताक्षर का फैसला बिडेन प्रशासन के दबाव आकर किया। रिपोर्ट के अनुसार, इस कदम के संभावित नतीजों के बारे में विदेश मंत्री यायर लैपिड के साथ लंबी बहस के बाद अमेरिकी विदेश विभाग के अनुरोध को मंजूरी दी गई। हालांकि इज़राइल चीन को अपने सबसे महत्वपूर्ण व्यापारिक साझेदारों में से एक मानता है और सुर्खियों में आकर बीजिंग को अपमानित करने से बचना चाहता है।

इसी बीच कुछ घटनाओं पर और गौर करने की जरूरत है। जैसे इजराइल को अमेरिका ने अपने पक्ष में चीन के खिलाफ खड़ा किया, उसी तरह पाकिस्तान को एक चैनल के जरिए उइगरों के ही मुद्दे पर घेरने की कोशिश हुई। इस चैनल के इंटरव्यू में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने जो जवाब दिया, वह चौंकाने वाला था।

इंटरव्यू करने वाले पत्रकार से उन्होंने दो टूक कहा, ‘मुझे नहीं मालूम चीन में क्या चल रहा है, हालांकि इस मामले में हमारी बात हुई है और आगे फिर होगी, चीन ने इस पर तर्कपूर्ण जवाब दिए हैं’। इंटरव्यू करने वाले को तब चुप होना पड़ा, जब इमरान खान ने कहा, ‘क्या हमें सीरिया, सोमालिया, फिलिस्तीन, इराक या ऐसी की कई जगहों के हालात पर भी बात करना है’।

दरअसल, जिन जगहों का इमरान खान ने जिक्र किया, वहां अमेरिकी दखल से अशांति पनपी है और लाखों परिवार तबाह हो चुके हैं। इस इंटरव्यू ने यह साफ कर दिया कि पाकिस्तान चीन के साथ खड़ा है और उइगर मुद्दे पर वह अमेरिका या इजराइल के साथ बिल्कुल नहीं है। उइगर मुसलमानों को लेकर पाकिस्तान से ज्यादा इजराइल हमदर्द है, यह भी निष्कर्ष कोई निकाल सकता है, लेकिन यह कितना तार्किक होगा?

इस दरम्यान खाड़ी देश संयुक्त अरब अमीरात का इजराइल में और इजराइल का अबूधाबी में दूतावास खोलना भी बदलाव की नई हवा दिखा रहा है। अरब में अमेरिका का दबदबा अब सिर्फ सऊदी अरब के जरिए ही नहीं, यूएई, सूडान, मोरक्को, जॉर्डन के मार्फत भी बढ़ रहा है, जबकि इजराइल के साथ उसके रिश्ते जगजाहिर हैं।

इस तरह अमेरिका किसकी घेराबंदी कर रहा है? खाड़ी देशों में एक ही देश चुनौती है- ईरान, जिसे शैतान की धुरी के तौर पर उत्तर कोरिया के साथ अमेरिकी मीडिया प्रचारित करती है। खास बात यह भी है कि चीन के साथ सऊदी अरब के संबंध भी उन्नत हुए हैं और उइगर मुसलमानों को लेकर वहां से भी कोई बात नहीं आती। चीन के उत्तर कोरिया और ईरान से रिश्ते ठीकठाक हैं।

यूरोप और एशिया का ‘पुल’ तुर्की इस्लामिक होने का दावा करता है और कुछ तब्दीलियों से इस्लामिक परंपराओं काे मजबूत करता दिख रहा है। लेकिन, एक ओर इजराइल को घुड़की देने के बाद अफगानिस्तान में सैनिकों को भेजने के फैसले ने तालिबान को नाखुश कर दिया है। दोनों के बीच इस रस्साकशी में मुसलमान हैं।

कौन ज्यादा मुसलमान है, यह जल्द ही दिखाई देगा, जब तुर्क सेना अमेरिकी मदद को अफगानिस्तान पहुंचेगी। इसी बीच अमेरिका के नजदीकी ब्रिटेन ने सत्ता में आने पर तालिबान से संबंध बनाने की घोषणा कर दी है।

दरअसल, बाजार और सैन्य रणनीति के हिसाब से अरब और एशिया में उथल-पुथल का माहौल है। चीन और अमेरिका इस प्रतिद्वंद्विता के दो ध्रुव बन गए हैं। कोरोना महामारी के अंतराल में भी यह प्रतिद्वंद्विता खत्म या कम नहीं हुई। वैक्सीन से लेकर राहत सामग्री और गरीब या विकासशील देशों की मदद के बहाने दोनों ध्रुवों ने कर्ज दिए और अपनी शर्ताें को थोपने की कामयाबी पाई।

अफ्रीकी देश इन शर्तों के बोझ से अपनी धरती को बंजर कराने को मजबूर हैं। कई देश अराजकता में झोंके जा चुके हैं और कुछ इन शर्ताें को पूरा करने के लिए अपने देश की जनता का दमन कर रहे हैं। लैटिन अमेरिका में जनता विद्रोह पर उतारू दिखाई दे रही है, जबकि एशिया में भी यह आग सुलग रही है। अरब भी अछूता नहीं है। रोजी-रोटी-रोजगार, महंगाई, खेती, कारोबार, शिक्षा, चिकित्सा के आम सवाल सभी जगह उठ रहे हैं।


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