चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की 100वीं वर्षगांठ: धूल फांक रहीं क्रांति की उपलब्धियां

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चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना के 100 साल 1 जुलाई को पूरे हो गए। चीन की सरकार इसका जश्न मना रही है। हालांकि पिछले 35 वर्षों के दौरान चीन की पार्टी पर काबिज लोगों ने इतिहास की उपलब्धियों को धूल में मिलाने का काम किया है। जिस दल के नेतृत्व में चीन की जनता ने 1949 में साम्राज्यवाद विरोधी क्रांति करके ऊंचा मुकाम हासिल किया, एशिया-अमेरिका-लातिन अमेरिका के अधिकांश उपनिवेशों-अर्द्धउपनिवेशों और नव उपनिवेशों में जारी राष्ट्रीय मुक्तियुद्धों के लिए पथ-प्रदर्शक की भूमिका निभाई, वह आज खुद लूट-खसोट की प्रतिस्पर्धा में एक ध्रुव बन गया है।

1 जुलाई, 1921 को शंघाई शहर में चेन तू जिउ और ली ता चाओ के नेतृत्व में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना हुई। पार्टी के गठन की औपचारिक घोषणा दक्षिणी झील में एक बड़ी नाव पर हुई क्योंकि चीनी और फ्रांसीसी जासूसों के कारण बैठक का स्थान बदलना पड़ गया था। इससे कुछ वर्ष पहले से ही चीन में कम्युनिस्ट अध्ययन मंडल और उनके आपसी तालमेल का अनौपचारिक नेटवर्क काम करने लगा था।

1 जुलाई को हुई स्थापना कांग्रेस में विभिन्न कम्युनिस्ट समूहों के 53 प्रतिनिधि तथा कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के दो प्रतिनिधि शामिल थे। माओ त्से-तुङ हुनान कम्युनिस्ट ग्रुप के दो प्रतिनिधियों में से एक की हैसियत से इसमें मौजूद थे। इस कांग्रेस में सभी कम्युनिस्ट ग्रुपों ने अपने अलग-अलग नामों को ख़त्म कर चीन की कम्युनिस्ट पार्टी नाम से काम करने का निर्णय किया और आम सहमति से क्रांति का कार्यक्रम तय किया।

शुरुआती कुछ वर्षों के दौरान चीनी समाज की प्रकृति और चीनी क्रांति के विशिष्ट स्वरूप के बारे में गलत धारणाओं के चलते चीनी कम्युनिस्टों को एक के बाद एक कई हारों का सामना करना पड़ा। क्रांतिकारी सेनाएं प्रतिक्रियावादी सेनाओं से घिर गईं और उनका अंत करीब लगने लगा। इस कठिन स्थिति से क्रांति को उबारकर आगे बढ़ाने में माओ ने नेतृत्वकारी भूमिका निभाई।

लाल सेना के लंबे अभियान की प्रतीकात्मक तस्वीर

उस समय से लेकर 1949 में जनवादी क्रांति सम्पन्न होने तक, और फिर आगे समाजवादी निर्माण एवं क्रांति के कठिन वर्ग संघर्ष और अनूठे प्रयोगों भरे दौर में, 1976 तक, मृत्युपर्यन्त माओ ने चीनी कम्युनिस्ट पार्टी को नेतृत्व दिया।

समाजवादी क्रांति के दौर के प्रयोगों — विशेषकर 1966-76 की सर्वहारा सांस्कृतिक क्रांति के विश्वव्यापी ऐतिहासिक महत्व को देखते हुए माओ त्से-तुङ को मार्क्‍स, एंगेल्स, लेनिन और स्तालिन के बाद अंतरराष्ट्रीय सर्वहारा वर्ग के पांचवे शिक्षक और नेता का दर्जा दिया गया।

भूमि क्रांति के कठिनतम दौर में प्रतिक्रांतिकारी सेना की भारी शक्ति से बचने के लिए कम्युनिस्ट पार्टी की लाल सेना नेऐतिहासिक ‘लम्बे अभियान’ की शुरुआत की, जिसकी अतुलनीय शौर्य-गाथा पर दुनिया दंग रह गई।

चीनी क्रांति के नेता माओ के न रहने पर एक समर्थक

अक्टूबर, 1934 में शुरू हुए इस महा अभियान के दौरान लाल सेना ने प्रतिदिन शत्रुओं से लोहा लेते हुए 6000 मील की यात्रा 12 प्रांतों, 18 पहाड़ों और 24 नदियों को पार करते हुए 13 महीनों में पूरी की।

इस अभियान में 1 लाख 60 हजार लोगों में से सिर्फ 8 हजार लोग ही शान्सी पहुंचने तक बचे रहे। इस अभियान की वजह से करोड़ों किसान जनता एक प्रचंड तूफान की तरह उठ खड़ी हुई। जिसने जापानी और अमेरिकी साम्राज्यवाद समर्थित च्याङ काइ शेक की फौजों को हराकर 1 अक्टूबर, 1949 को (ताइवान, हाङकाङ और मकाओ को छोड़कर) पूरे में क्रांति का परचम लहरा दिया।

चीन लोक गणराज्य की स्थापना के बाद माओ ने कहा था, ”देशव्यापी स्तर पर जीत हासिल करना दस हज़ार ली लंबे अभियान का पहला कदम मात्र है। चीनी क्रांति महान है, लेकिन क्रांति के बाद का रास्ता और कार्य अधिक महान एवं अधिक कठिन है।”

जल्दी ही दुनिया ने यह चमत्कार भी घटित होते देखा। पचास के दशक में चीन की मेहनतकश आबादी के श्रम को एक विराट शक्ति के रूप में सृजनशील और उत्पादक बनाकर अकाल, भुखमरी, बीमारियों, अशिक्षा और पिछड़ेपन के लिए प्रसिद्ध देश का कायापलट कर दिया गया। दस वर्षों के भीतर बेरोज़गारी का ख़ात्मा हो गया। गांवों से लेकर शहरों तक स्त्रियों की भारी आबादी चूल्हे-चौखट से बाहर आकर कम्यूनों में सामाजिक उत्पादन से लेकर प्रबंधन और राजनीति तक के कामों में शिरकत करने लगी।

चीन में क्रांति के बाद आई खुशहाली

स्वास्थ्य और शिक्षा की सेवाएं सर्वसुलभ हो गई। वेश्यावृत्ति, नशाख़ोरी, जुआ, बाल मज़दूरी, भुखमरी आदि का नामोनिशान तक मिट गया। तूफानी नदियों को बांधकर विनाशकारी बाढ़ों को समाप्त कर दिया गया और नहरों का जाल बिछाकर सिंचाई सुविधाओं का तेज विस्तार किया गया।

उत्पादन-टीमों, ब्रिगेडों और कम्यूनों ने दुर्गम पर्वतीय क्षेत्रों में भी उपजाऊ सीढ़ीदार खेत बना डाले और सभी तरह की ऊसर-बंजर धरती को अन्नपूर्णा बना दिया गया। सड़कों-रेलमार्गों-पुलों का अभूतपूर्व गति से विकास हुआ। 1960 तक चीन बिजली और लोहा सहित तमाम बुनियादी और ढांचागत उद्योगों का अपना ताना-बाना खड़ा कर चुका था।

लेकिन पार्टी के भीतर घुसे भितरघातियों ने चीनी समाज को पूंजीवादी राह पर आगे बढ़ाने की साज़िशें शुरू कर दीं। माओ त्से-तुङ के नेतृत्व में कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर और चीनी समाज में ऐसे भितरघातियों के ख़िलाफ संघर्ष छेड़ दिया गया और व्यापक जनसाधारण को उसमें भागीदार बनाया गया। यही थी 1966 में शुरू हुई महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रांति।

सांस्कृतिक क्रांति के समय उठ खड़ी हुई चीन की जनता

सांस्कृतिक क्रांति के दौरान इस बात को और अधिक ठोस रूप में स्पष्ट किया गया कि समाजवादी समाज में वर्ग मौजूद रहते हैं और वर्ग-संघर्ष लगातार जटिल और विकट रूप में जारी रहता है। चीन में 1966 से 1976 तक जारी सांस्कृतिक क्रांति ने चीन में समाजवाद के विकास को ऊंची छलांग दी।

1949 की नवजनवादी क्रांति के बाद चीन में समाजवादी क्रांति की यात्रा 27 वर्षों तक जारी रही। 1976 में, सांस्कृतिक क्रांति के दस वर्षों के युगांतरकारी प्रयोग के बावजूद, माओ की मृत्यु के बाद वहां पार्टी के क्रांतिकारी पराजित हो गए और पूंजीवादी पथगामियों ने समाजवाद की समस्त प्रगति को आधार बनाकर पूंजीवादी विकास को तेज गति से आगे बढ़ाया।

प्रति व्यक्ति औसत आय, सकल घरेलू उत्पाद, औद्योगिक विकास-दर, पूंजी-निवेश आदि मानदंडों से आज भी चीनी अर्थव्यवस्था दुनिया में बहुत तेज़ गति से विकसित हो रही है, पर व्यापक मेहनतकश जनता के लिए यह विकास नहीं, विनाश है।

चीन का हैरतंगेज विकास

पिछले 35 वर्षों के भीतर चीन में धनी-गरीब के बीच की खाई अभूतपूर्व गति से बढ़ी है। बेरोज़गारों की संख्या कई करोड़ हो चुकी है। कम्यूनों को तोड़ दिया गया है। निजी स्वामित्व की अनेक रूपों में बहाली जारी है।

विदेशी पूंजी और कचरा संस्कृति के लिए देश के दरवाज़ों को एकदम खोल दिया गया है और चीनी जनता के श्रम से मुनाफा निचोड़कर पश्चिम अपने संकट का बोझ हल्का कर रहा है।

चीन में कुछ अरसे पहले एक मल्टीनेशनल कंपनी ने टारगेट पूरा न होने पर मजदूरों को घुटने के बल चलने की सजा दी

आज के चीन में तमाम पुरानी सामाजिक बुराइयां वापस लौट आई हैं, जैसे वेश्यावृत्ति, भीख मांगना, घूसखोरी, चोरी, तरह-तरह के भ्रष्टाचार और नारी-विरोधी अपराध।

स्त्रियों को आर्थिक-सामाजिक गतिविधियों से अलग करके फिर घर की चारदीवारी में कैद किया जा रहा है या उनसे बहुत कम तनख्वाह में काम कराए जा रहे हैं। ग्रामीण इलाकों में कन्या-शिशुओं और भ्रूणों की हत्या बड़े पैमाने पर की जा रही हैं।

स्रोत व साभार: यह लेख ‘मज़दूर बिगुल’ में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के 90 वर्ष पूरे होने पर प्रकाशित हुआ था, जो अभी उतना ही प्रासंगिक है, मूल लेख के यह संपादित अंश हैं


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