पाब्लो नेरूदा: कविताओं में इश्क़ और इंक़लाब के रंग बिखेरने वाला कवि

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एचआर इसरान-

” जो शक्तियां न्याय व जनतंत्र के विरोध में हैं उनके पास लफंगे, मसखरे, जोकर, पिस्तौल लिए आतंकवादी और नकली धर्मगुरु हर तरह के लोग थे। उनकी ताकत के आगे स्वप्नदर्शी लोगों का अंत लगभग निश्चित था।” फ़ासिस्ट शक्तियों को देश में उत्पात मचाते हुए देखकर ऐसा कहने वाले चिली में जन्मे स्पेनिश भाषा के लेखक पाब्लो नेरूदा विश्व में सर्वाधिक पढ़े जाने वाले लेखकों में से एक हैं। उनका असली नाम नेफ्ताली रिकार्दो रेइस बासोल्ता था।

नेरूदा को विश्व स्तर पर मशहूर करने में योगदान सिर्फ उनकी कविताओं का ही नहीं बल्कि उनके गतिशील बहुआयामी व्यक्तित्व का भी था। तानाशाही के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करने पर उन्हें लम्बे अर्से तक निर्वासन भोगना पड़ा। सचमुच में विश्व-नागरिक की श्रेणी में शुमार इस शख्स का जीवन बेहद रोमांचक रहा।

इटली में, जहां उन्होंने शरण ली वहां भी उन्हें प्रशासन के साथ आंख मिचौली खेलनी पड़ी। उन पर जितनी पाबन्दियाँ लगीं, उतना ही उनका रचना- संसार विस्तृत होता चला गया। उन्हें जितना कैदखानों में रखने की कोशिश की गई, वे उतने ही ज्यादा उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता दृढ़ होती गई। अपने उथलपुथल भरे जीवन में वे कई देशों में चिली के राजदूत भी रहे।

महान मनुष्यपंथी

हम चाहें तो इसे जनता की मज़बूती कह लें या कमज़ोरी कि वह बहुत सहनशील होती है। लेकिन जब सहनशीलता का बांध टूटता है तो जन आक्रोश फूट पड़ना लाज़िम है। फिर भले ही सरकार राष्ट्रीय हो या विदेशी, उसका जनता के क्रोध से बच पाना नामुमकिन हो जाता है। उकता चुकी जनता में विद्रोही भावनायें तथा सामुहिक शक्ति होती हैं और वह भले ही निहत्थी हो पर सरकार से टकरा जाती है।

ऐसी दशा में विद्रोह को कुचलने के लिए सरकार सब हथकंडे अपनाती है। जनता के पैसे और खून-पसीने से अर्जित सैनिक शक्ति और शस्त्र बल को सरकार अपनी ही जनता को दमित करने में झोंक देती है। इस संघर्ष में जीत किसी भी पक्ष की हो पर अक्सर देखने में आता है कि बुद्धिजीवी एवं सहृदय विचारशील व्यक्तियों का समर्थन तो जनता के पक्ष में ही होता है।

सन् 1936 में स्पेन में गृहयुद्ध छिड़ा हुआ था। एक ओर थी निहत्थी, निर्धन और शोषित जनता तथा दूसरी ओर थी सशस्त्र, समर्थ एवं बर्बर फासिस्ट सरकार। स्पेन के उस गृह युद्ध के दौरान चिली के राजनयिक अधिकारी पाब्लो नेरूदा ने, जो उन दिनों स्पेन में ही थे, अपनी सहानुभूति स्पेन की जनता के प्रति प्रकट की।

नेरूदा ने कहा कि मेरी सहानुभूति निहत्थी स्पेनी जनता के साथ है, यहां के फासिस्ट फौजी तानाशाह के मैं ख़िलाफ़ हूं। चिली सरकार को अपने राजनयिक नेरुदा के इस रुख का पता चला तो उन्हें स्पेन से वापस बुला लिया गया। लेकिन इसके पूर्व ही वे स्पेन छोड़ चुके थे, यह कह कर कि जब तक स्पेन में जनता का शासन कायम नहीं हो जाता, तब तक मैं यहीं नहीं आऊंगा।

स्पष्ट है कि नेरूदा ने यह बात अपने आपको सर्वप्रथम मनुष्य मानने के नाते कही थी न कि किसी अपने देश के राजनयिक होने के नाते। नेरूदा ने उस समय ख़ुद को स्पेन में चिली के राजदूत पद पर होने के बावजूद भी प्रथमतः मनुष्य माना। मनुष्य होने की यह गहरी अनुभूति ही उन्हें राजनयिक औपचारिकता के कृत्रिम सीमा बंधनों को तोड़ने के लिए प्रेरित कर गयी। नेरुदा ने स्वयं को पद और उन दायित्वों से सर्वथा विलग कर लिया जिन्हें ओढ़ने पर उन्हें यह लगता था कि उनका मनुष्यत्व पंगु, परतंत्र और विवश हो जायेगा।

सन् 1947 में नेरूदा चिली की संसद के सीनेटर चुने गए। जनप्रतिनिधि के रूप में उन्होंने जनता का जिस निर्भीकता से पक्ष लिया वह चिली के संसदीय इतिहास में गौरव का विषय रहा है। अपनी निर्भीकता के कारण ही उन्हें कई खतरे झेलने पड़े।

सीनेटर के रूप में उन्होंने तत्कालीन राष्ट्रपति गैब्रियल विडैला पर जब यह आरोप लगाया कि उन्होंने देश को अमेरिका के हाथों बेच दिया है तो सरकार ने उन पर देशद्रोह का आरोप जड़ दिया। फलतः उन्हें देश छोड़ना पड़ा। परिस्थितियां बदलीं और सरकार ने उन्हें सन् 1953 में वापस चिली बुला लिया।

सन् 1970 में चिली के राष्ट्रपति की चुनाव प्रक्रिया के दौरान राष्ट्रपति पद हेतु नेरूदा का नाम प्रस्तावित किया गया। बड़ी आनाकानी के बाद वे इसके लिए राजी हुए। परन्तु जब उन्हें यह पता चला कि उनके योग्य, प्रतिभाशाली और अच्छे मित्र आयेंदे भी राष्ट्रपति बनने के इच्छुक हैं तो उन्होंने अपना नाम वापिस ले लिया। सहृदयता, मैत्री और विश्वास को उन्होंने सब बंधनों से परे कर दिया और अपने योग्य मित्र को अवसर देने के लिए ख़ुद चुनाव मैदान से हट गए।

घुमन्तू जीवन

नोबेल पुरस्कार से सम्मानित पाब्लो नेरूदा के संस्मरण की पुस्तक ‘I Confess, I have Lived’, भी उऩके संघर्षों और जीवन को कविता की तरह प्रस्तुत करने में समर्थ है। नेरुदा ने इसमें देश की राजनीतिक घटनाओं का भी उल्लेख किया है। चिली के जंगलों, झरनों व ऊँचे पर्वतों से उनका प्रेम ही उनसे कहलवा देता है- ‘जो चिली के जंगल में नहीं गया, वह इस पृथ्वी को समझता ही नहीं है।’

नेरूदा का मानना था कि इंसान एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ और मौत के आग़ोश में समाने से पहले अपनी सभी ख्वाहिशें पूरी करने के संघर्ष में इतना अंधा हो जाता है कि वह कभी भी अपने आसपास की दुनिया देख और समझ नहीं पाता। दुनिया को देखने-समझने की लालसा से वशीभूत नेरुदा की जीवनशैली में खास तरह का घुमंतूपन और खुलापन शामिल था।

उनका आवारा घुमंतू जीवन उनकी कविताओं के लिए सहायक सिद्ध हुआ। उनकी कविताओं में लातिन अमेरिका के जीवन के साथ-साथ कई देशों की प्रकृति और आंदोलन का चित्रण भी मिलता है। दुनिया भर में फैली उथल-पुथल और सामाजिक आंदोलनों को निकट से देखने के कारण उन्हें संसार में कविता की बदलती भूमिका के प्रति भी नए सिरे से सोचने का अवसर मिला।

नेरूदा लिखते हैं- ‘यह हमारे युग का सौभाग्य रहा है कि युद्धों, क्रांतियों और बड़े सामाजिक परिवर्तनों वाले समय में कविता को नए-नए अकल्पनीय क्षेत्रों का उद्घाटन करने का अवसर मिला है। आम आदमी को भी उससे मुठभेड़ करनी पड़ी कि या तो वह उसे व्यक्तिगत रूप से अथवा सामूहिक रूप से सराहे या उसकी निंदा करे।’

नेरूदा इस बात को रेखांकित करते हैं कि यात्राएं रोमांचक होती हैं लेकिन लौटना अपने देश और प्रांत में चाहिए। नेरूदा भी चिली लौटते हैं और भटकने के संघर्षों से स्वयं को मुक्त करके चिली के संघर्षों में सक्रिय भागीदारी निभाते हैं। आक्रोशित हो जाते हैं ये देख कर कि सरेआम चिली को लूटा जा रहा है और उसकी खनिज संपदा के लिए पूरे देश को गुलाम बनाने की तैयारी चलती रहती है।

उनके मित्र राष्ट्रपति अलांदे की हत्या कर दी गई क्योंकि उसने तांबे की संपदा का राष्ट्रीयकरण कर दिया था। न्याय व जनतंत्र की विरोधी शक्तियों की जनविरोधी कारस्तानियों का विरोध करने पर उन्हें उन शक्तियों का कोपभाजन बनना पड़ा।

प्यार और क्रांति का समन्वय

सिर्फ 23 वर्ष की उम्र में ही अपने कविता संग्रह ‘प्रेम की बीस कविताएँ और विषाद का एक गीत’ ( Twenty Love poems and a Song of Despair )से विश्व प्रसिद्ध हो चुके प्रेम के कवि नेरूदा एक निष्ठावान कम्युनिस्ट थे। सही मायने में जनकवि शायद वही होता है जो प्यार को क्रांति और क्रांति को प्यार मानता है, उन्हें अलग नहीं बल्कि एक ही नदी की दो लहरों की तरह देखता है- जो बहती है जन-जन के दिल में।

नेरूदा की कविताओं में इश्क़ और इंकलाब के हर क़िस्म के रंग बिखरे हुए हैं। सताए हुए लोगों से प्यार करने वाले इस कवि की पंक्तियां हज़ारों प्रेमियों के लिए अपने प्यार का इज़हार करने का जऱिया रही हैं। एक प्रखर क्रांतिकारी, विचारक और विद्रोही होने के बावजूद उन्होंने अपने दिल से प्यार और करुणा का एहसास कभी मरने नहीं दिया।

पाब्लो नेरूदा जब 1971 में नोबेल पुरस्कार लेने के लिए पेरिस से स्टाकहोम पहुंचे तो हवाई अड्डे पर एक पत्रकार ने उनसे पूछा: ‘सबसे सुन्दर शब्द क्या है ?’ नेरुदा का उत्तर था, ‘‘मैं इसका जवाब… एक ऐसे शब्द के जरिए देने जा रहा हूं जो बहुत घिसा-पिटा है: वह शब्द है ‘प्रेम’। आप इसका जितना ज्यादा इस्तेमाल करते हैं, यह उतना ही ज्यादा मजबूत होता जाता है। और इस शब्द का दुरुपयोग करने में भी कोई नुकसान नहीं है।’’ नेरुदा की एक खूबसूरत पंक्ति है: ‘‘कितना संक्षिप्त है प्यार और भूलने का अरसा कितना लंबा।’’

नेरूदा ऐसे प्रेम कवि थे, जिन्होंने दुनिया के तमाम देशों में हजारों लोगों को अपनी कविताएं सुना कर मुग्ध किया। उनके जीवन में ऐसे कई प्रसंग आते हैं जब वे कोयला खदान मजूरों को, सड़क पर काम कर रहे दिहाड़ी कामगारों को, सैनिकों को, आम जनता को, पार्टी कार्यकर्ताओं को अपनी प्रेम कविताएं सुना कर विभोर करते रहे। चार्ली चैप्लिन ने शायद पाब्लो की कविताएं सुनने के बाद ही कहा होगा कि कविता दुनिया के नाम लिखा गया एक खूबसूरत प्रेम पत्र होती है।

पाब्लो आजीवन दुनिया के नाम कविता के रूप में हजारों प्रेम पत्र लिखते और सुनाते रहे। पाब्लो नेरूदा की रचनाओं में प्रेम की कई नई परिभाषाओं के साथ- साथ लातिन अमरीका की शोषित जनता का आक्रांत स्वर भी व्यक्त होता है।

विचार क्रांति के दृष्टा और सृष्टा

पाब्लो नेरूदा एक ऐसे कवि हैं जिसने अपनी कविताओं को स्याही से अधिक लहू से लिखा। स्पेनिश नाटककार और नेरूदा के मित्र लॉर्का ने कहा था कि नेरूदा की कविता स्याही के नहीं बल्कि ख़ून के करीब है। उनकी कवितायें उस वर्ग के प्रति सहानुभूति और करुणा जागृत करती हैं जो शताब्दियों से समाज के अभिजात्य कुलों द्वारा पैरों तले रौंदा जाता रहा है।

उन्होंने अपनी आंखों से देखा कि किस तरह श्रमिकों और किसानों के पसीने की मेहनत पर शोषक वर्ग अपनी विशाल अट्टालिकायें खड़ी कर रहा था। इसलिए गरीबों और दीन-दुखियों के प्रति उनकी कविताओं में परानुभूति ही नहीं आक्रोश भी उभरता है। स्वस्थ आक्रोश, जो उस व्यवस्था को तहस-नहस कर देने के लिए उत्सुक है, जिसमें गरीब और श्रमजीवी वर्ग शोषण चक्की में पिसते जाते हैं।

नेरूदा की कविता ‘सीधी- सी बात’ कितने सीधे और सहज अन्दाज़ में आत्ममुग्धता रोग से ग्रसित लोगों को गहरी बात समझा देती है। पढ़ लीजिए।

सीधी-सी बात

शक्ति होती है मौन (पेड़ कहते हैं मुझसे)

और गहराई भी (कहती हैं जड़ें)

और पवित्रता भी (कहता है अन्न)

पेड़ ने कभी नहीं कहा :

‘मैं सबसे ऊंचा हूं !’

जड़ ने कभी नहीं कहा :

‘मैं बेहद गहराई से आई हूं !’

और रोटी कभी नहीं बोली :

दुनिया में क्या है मुझसे अच्छा’

अंग्रेज़ी से अनुवाद : मंगलेश डबराल

पाब्‍लो नेरूदा की कविता ‘ सड़कों, चौराहों पर मौत और लाशें’ का एक अंश

मैं दंड की मांग करता हूं

अपने उन शहीदों के नाम पर

उन लोगों के लिए

मैं दण्ड की मांग करता हूं

जिन्होंने हमारी पितृभूमि को

रक्तप्लावित कर दिया है

उन लोगों के लिए

मैं दंड की मांग करता हूं

जिनके निर्देश पर

यह अन्याय, यह ख़ून हुआ

उसके लिए मैं दंड की मांग करता हूं

विश्वासघाती

जो इन शवों पर खड़े होने की हिम्मत रखता है

उसके लिए मेरी मांग है

उसे दंड दो, उसे दंड दो

जिन लोगों ने हत्यारों को माफ़ कर दिया है

उनके लिए मैं दंड की मांग करता हूं

मैं चारों ओर हाथ मलते

घूमता नहीं रह सकता

मैं उन्हें भूल नहीं सकता

मैं उनके ख़ून से सने हाथों को

छू नहीं सकता

मैं उनके लिए दंड चाहता हूं

मैं नहीं चाहता कि उन्हें यहां-वहां

राजदूत बनाकर भेज दिया जाये

मैं यह भी नहीं चाहता

कि वे लोग यहीं छुपे रहें

मैं चाहता हूं

उन पर मुक़दमा चले

यहीं, इस खुले आसमान के नीचे

ठीक यहीं

मैं उन्हें दंडित होते देखना चाहता हूं

अनुवाद: रामकृष्ण पांडेय

नेरूदा के इन क्रांतिदर्शी विचारों के कारण ही समकालीन कवियों ने उन्हें कवि के रूप में मान्यता नहीं दी। कोई मान्यता दे या न दे कलाकार इसकी चिंता कहां करता है? नेरुदा की कविताओं में गरीब और शोषित का स्वर तीव्रता से मुखरित होता रहा।

नेरूदा जन कवि थे। वे कहते हैं,‘‘मैंने कविता में हमेशा आम आदमी के हाथों को दिखाना चाहा। मैंने हमेशा ऐसी कविता की आस की जिसमें उंगलियों की छाप दिखाई दे.. .।’’ उनसे पूछा गया ‘‘आप क्यों लिखना चाहते हैं ?’’ उनका उत्तर था ‘‘मैं एक वाणी बनाना चाहता हूं ?’’ दुनिया में नेरुदा की पहचान ‘जनवाणी के कवि’ के रूप में रही है।

ऐसा आख़िर क्या था नेरूदा की कविताओं में जो लोगों को अपने जादू की ग़िरफ़्त में बांधता चला जाता था? इसका बड़ा कारण है उनकी कविता की स्थानीयता। उनकी कविता सार्वभौमिक होते हुए भी बहुत ठोस रुप से लातिनी अमरीकी कविता थी।

अशोक वाजपेयी कहते हैं, “उनकी कविताओं में प्रेम और क्रांति का अद्भुत समन्वय है। उन्होंने दोनों विरोधाभासी माने जाने वाली चीज़ों को संगुफित करके नया काव्यशास्त्र रच दिया।”

कवि और कविता के बारे में नेरूदा कहते हैं कि, “कवि को भाइचारे और एकाकीपन के बीच एवं भावुकता और कर्मठता के बीच, व अपने आप से लगाव और समूचे विश्व से सौहार्द व कुदरत के उद्घघाटनों के मध्य सँतुलित रह कर रचना करना जरूरी होता है और वही कविता होती है।” नेरूदा यह भी कहते थे, “जो कविता को राजनीति से अलग करना चाहते हैं, वे कविता के दुश्मन हैंI”

जिंदगी का अंतिम पड़ाव

‘एकजुट लोगों को कोई ताक़त नहीं हरा सकती…’ यह गीत नेरूदा के आख़री सालों की याद दिलाता है जो उनकी ज़िंदगी के सबसे खुशनसीबी के दिन ही नहीं बल्कि सबसे गमगीन दिन भी थे।

1970 में चिली में सैलवाडॉर अलेंदे ने साम्यवादी सरकार गठित की जो विश्व की पहली लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई साम्यवादी सरकार थी। अलेंदे ने 1971 में नेरूदा को फ़्रांस में चिली का राजदूत नियुक्त किया और इसी वर्ष उन्हें साहित्य के नोबेल पुरस्कार से भी पुरस्कृत किया गया। 1973 में चिली के सैनिक जनरल ऑगस्टो पिनोचे ने अलेंदे सरकार का तख्ता पलट दिया। इसी कार्रवाई में राष्ट्रपति अलेंदे की मौत हो गई और आने वाले दिनों में अलेंदे समर्थक हज़ारों आम लोगों को सेना ने मौत के घाट उतार दिया।

कैंसर से बीमार नेरूदा चिली में अपने घर में बंद इस जनसंहार के ख़त्म होने की उम्मीद करते रहे। लेकिन अलेंदे की मौत के 12 दिन बाद ही नेरूदा ने दम तोड़ दिया। सेना ने उनके घर तक को नहीं बख़्शा और वहाँ की हर चीज़ को तबाह कर दिया।

तबाही की मार झेल चुके इस घर से नेरुदा के कुछ दोस्त उनका जनाज़ा लेकर निकले। सैनिक कर्फ़्यू के बावजूद हर सड़क के मोड़ पर आतंक और शोषण के ख़िलाफ़ लड़नेवाले इस सेनानी के हज़ारों चाहने वाले काफ़िले से जुड़ते चले गए। रुंधे हुए गलों से एक बार फिर उमड़ पड़ा सामूहिक शक्ति का वो गीत जो नेरूदा ने कई बार इन लोगों के साथ मिल कर गाया था- “एकजुट लोगों को कोई ताक़त नहीं हरा सकती…” .

नेरूदा कहते हैं कि जीवन के गहन अनुभवों ने उन्हें सूझ-बूझ दी और यही उनकी कविता यात्रा का पाथेय बना। जीवन का अनुभूत सत्य ही उनके लेखन की पूँजी था। वे झूठ, मक्कारी, शोषण का नाश कर एक सत्य, शिव और सुन्दर जगत की कल्पना करते थे। अदम्य आशा, विश्वास, मनुष्य पर आस्था, भविष्य के असीम स्वप्न- ये सब व्यक्त हैं उनकी कविताओं में। नेरूदा कहते हैं, – ‘कल आएगा हरे पदचाप के साथः भोर की नदी को कोई रोक नहीं सकता है’।

पाब्लो नेरूदा की आत्मकथा पढ़ कर और उसके रचना संसार से गुज़र कर पाठक पहले की तुलना में वैचारिक तौर पर और अमीर हो जाता है।

साहित्य का अंतिम फैसला काल करता है। मृत्यु के लगभग चार दशकों के पश्चात भी नेरूदा की ख्याति तथा प्रतिष्ठा को क्षति नहीं पहुंची है। यह इस बात का सबूत है कि उनके साहित्य में काल के पार जाने की क्षमता है।

(साभार: लेखक पूर्व प्रिंसिपल हैं, यह उनके निजी विचार हैं)


कविता: देश कागज पर बना नक्शा नहीं होता


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