…तो इसलिए पिछड़े ही रह जाते हैं पिछड़े वर्गों के मुसलमान, पसमांदा मुसलमानों ने लगाया ये आरोप ?

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द लीडर। उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों में अगले साल यानि 2022 में विधानसभा चुनाव होना है। ऐसे में सभी पार्टियां तो तैयारियां कर रही है लेकिन मुस्लिम समुदाय में पिछड़े वर्ग के पसमांदा मुसलमान अब सत्ता से लेकर सामाजिक-राजनीतिक संगठनों में अपनी ज्यादा भागीदारी को लेकर मुखर हो रहे हैं। पसमांदा मुसलमानों का आरोप है कि कुल मुसलमानों में उनकी भागीदारी 85 प्रतिशत है, इस अनुसार सत्ता या सामाजिक-राजनीतिक संगठनों में उनकी भागीदारी भी इसी के अनुरूप होनी चाहिए, लेकिन मुसलमानों की भागीदारी के नाम पर केवल उच्च वर्ग के मुसलमानों को ही भागीदारी दे दी जाती है, जिससे पिछड़े वर्गों के मुसलमान पिछड़े ही रह जाते हैं। पसमांदा मुसलमानों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से अपील की है कि, वे उनके वर्ग की भागीदारी बढ़ाने की योजना पर काम करें।


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सच्चर कमेटी ने भारतीय मुसलमानों को तीन वर्गों में बांटा था। सबसे ऊपर अशरफ मुसलमान हैं। इनमें सैयद, शेख, मुगल और पठान आते हैं जो अपना मूल ईरान, ईराक या अन्य अरब देशों में देखते हैं। ये आज भी समाज में अपने को सबसे ऊपर मानते हैं। दूसरे वर्ग में अजलफ मुसलमान हैं जो छोटे-मोटे कामकाज करने वाले वर्ग से आते हैं। तीसरे वर्ग में अरजल मुसलमान आते हैं जो सामाजिक तौर पर सबसे पिछड़े वर्ग से आते हैं। अजलफ और अरजल मुसलमानों को मिलाकर कुल मुसलमानों का 85 प्रतिशत होता है और सामाजिक-राजनीतिक भागीदारी में इन्हें भी इतनी हिस्सेदारी मिलनी चाहिए।

पसमांदा मुसलमानों ने किया ये दावा

पसमांदा मुसलमानों का दावा है कि, कुल मुसलमानों की भागीदारी में सबसे ज्यादा हिस्सा अशरफ मुसलमानों का ही होता है, जबकि आबादी में उनकी हिस्सेदारी सबसे कम है। एक आंकड़े के अनुसार 14वीं लोकसभा तक मुसलमानों के 400 प्रतिनिधि संसद तक पहुंच चुके हैं, लेकिन इनमें से 340 अशरफ मुसलमानों में से रहे हैं, जबकि 85 प्रतिशत आबादी के बाद भी अजलफ-अरजल मुसलमानों के केवल 60 नेता ही संसद तक पहुंच सके। पसमांदा मुसलमानों की मांग है कि, अब सरकार और मुस्लिम राजनीतिक संगठनों को अपने अंदर इन अजलफ-अरजल मुसलमानों की भागीदारी बढ़ानी चाहिए।


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आदर्श के तौर पर इस्लाम में जातिवाद नहीं- हाफिज गुलाम

पसमांदा मुसलमानों के संगठन ऑल इंडिया यूनाइटेड मुस्लिम मोर्चा के राष्ट्रीय प्रवक्ता हाफिज गुलाम सरवर ने कहा कि, आदर्श के तौर पर इस्लाम में जातिवाद नहीं है, लेकिन व्यवहार के तौर पर मुस्लिम समुदाय में भी भारी जातिवाद है। उच्च वर्ग के मुस्लिम नेता मुसलमानों के नाम पर आंदोलन तो करते हैं, लेकिन जब भागीदारी की बात आती है तो वे केवल उच्च वर्गे के लोगों को ही भागीदारी देने का काम करते हैं।

पसमांदा मुसलमानों को पर्याप्त भागीदारी नहीं दी जाती

उन्होंने कहा कि, केवल नौकरियों में भागीदारी की ही बात नहीं है, मुस्लिम समुदाय के संगठनों – जैसे ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, जमीअत-उलेमा-ए-हिंद में भी केवल उच्च वर्ग के मुसलमान ऊंचे पदों पर बैठे हुए हैं। इन संगठनों में भी पसमांदा मुसलमानों को पर्याप्त भागीदारी नहीं दी जाती है। उन्होंने कहा कि जब आंदोलन की बात होती है तो इसी वर्ग के लोगों को भारी संख्या में बुलाकर आंदोलन सफल कराया जाता है, लेकिन जब पदों पर जिम्मेदारी देने की बात आती है तो उच्च वर्ग के मुसलमानों को ही भागीदारी दी जाती है।

हमारे परिवार भारतीय संस्कृति के ज्यादा करीब हैं- खैरुल बशर

ऑल इंडिया जमाते सलमानी के राष्ट्रीय अध्यक्ष खैरुल बशर ने कहा कि, पसमांदा मुसलमान अपने खान-पान रहन-सहन में पूरी तरह से भारतीय हैं। हमारे यहां घरों में हिंदू परिवारों की तरह आज भी शादी विवाह के अवसर पर मेंहदी-हल्दी जैसी रस्में निभाई जाती हैं तो पहनावे में हमारे घरों की महिलाएं साड़ी पहनना ज्यादा पसंद करती हैं। इस अर्थ में हमारे परिवार भारतीय संस्कृति के ज्यादा करीब हैं। लेकिन जब सत्ता-राजनीति में भागीदारी की बात आती है तो दूसरे वर्गों के लोगों को प्राथमिकता दी जाती है।


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सच्चर कमेटी ने भारतीय मुसलमानों को तीन वर्गों में बांटा था। सबसे ऊपर अशरफ मुसलमान हैं। इनमें सैयद, शेख, मुगल और पठान आते हैं जो अपना मूल ईरान, ईराक या अन्य अरब देशों में देखते हैं। ये आज भी समाज में अपने को सबसे ऊपर मानते हैं।

अशराफ़, अजलाफ़ और अरज़ाल

यूं तो मुस्लिम धर्मगुरु इस बात से बार-बार इनकार करते हैं, लेकिन हक़ीक़त ये है कि भारत के मुसलमान भी, हिंदुओं की तरह ज़ात-पात जैसे सामाजिक बंटवारे के शिकार हैं। उच्च जाति को अशराफ़, मध्यम वर्ग को अजलाफ़ और समाज के सबसे निचले पायदान पर रहने वाले मुसलमानों को अरज़ाल कहा जाता है। हिंदुस्तान में मुसलमान भौगोलिक दूरियों के हिसाब से भी बंटे हुए हैं और पूरे देश में इनकी आबादी बिखरी हुई है। हम देखते हैं कि तमिलनाडु के मुस्लिम तमिल बोलते हैं, तो केरल में वो मलयालम।

उत्तर भारत से लेकर हैदराबाद तक बहुत से मुसलमान उर्दू ज़बान इस्तेमाल करते हैं। इसके अलावा वो तेलुगू, भोजपुरी, गुजराती, मराठी और बंगाली ज़बानें भी अपनी रिहाइश के इलाक़ों के हिसाब से बोलते हैं। बंगाल में रहने वाला मुसलमान, बांग्ला बोलता है और किसी आम बंगाली की तरह हिल्सा मछली का शौक़ीन होता है। वो पंजाब या देश के किसी और हिस्से में रहने वाले मुस्लिम से बिल्कुल मुख़्तलिफ़ होता है। और अपनी पैदाइश के वक़्त ही ख़ुद को इस्लामी घोषित कर चुके पाकिस्तान के मुसलमानों से ठीक उलट, एक आम भारतीय मुसलमान बड़े गर्व के साथ एक लोकतांत्रिक देश में रहता है। भारत में सभी नागरिक संवैधानिक रूप से बराबर हैं।


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देश में मुसलमानों की सामाजिक-आर्थिक और शैक्षिक दशा जानने के लिए यूपीए सरकार के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 2005 में दिल्ली हाइकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस राजिंदर सच्चर की अध्यक्षता में समिति गठित की थी। 403 पेज की रिपोर्ट को 30 नवंबर, 2006 को लोकसभा में पेश किया गया था. पहली बार मालूम हुआ कि, भारतीय मुसलमानों की स्थिति अनुसूचित जाति-जनजाति से भी खराब है।

जस्ट‍िस राजि‍न्‍दर सच्‍चर द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट ‘भारत के मुस्‍लि‍म समुदाय की सामाजि‍क, आर्थि‍क और शैक्षि‍क स्‍थि‍ति’ की 10 प्रमुख सि‍फारि‍शें इस प्रकार हैं।

1. शि‍क्षा सुवि‍धा- 14 वर्ष तक के बच्‍चों को मुफ्त और उच्‍च गुणवत्‍ता वाली शि‍क्षा उपलब्‍ध कराना, मुस्‍लि‍म बहुल क्षेत्रों में सरकारी स्‍कूल खोलना, स्कॉलरश‍िप देना, मदरसों का आधुनि‍कीकरण करना आदि।

2. रोजगार: रोजगार में मुसलमानों का हिस्सा बढ़ाना, मदरसों को हायर सेकंडरी स्कूल बोर्ड से जोड़ने की व्यवस्था बनाना।

3. ऋण सुवि‍धा- प्राथमि‍कता वाले क्षेत्रों के मुसलमानों को ऋण सुवि‍धा उपलब्‍ध कराना और प्रोत्‍साहन देना, मुस्‍लि‍म बहुल क्षेत्रों में और बैंक शाखाएं खोलना, महि‍लाओं के लि‍ए सूक्ष्‍म वि‍त्‍त को प्रोत्‍साहि‍त करना आदि।

4. कौशल वि‍कास- मुस्‍लि‍म बहुल क्षेत्रों में कौशल वि‍कास के लि‍ए आईटीआई और पॉलि‍टेक्‍नि‍क संस्‍थान खोलना।

5. वक्‍फ- वक्‍फ संपत्‍ति‍यों आदि का बेहतर इस्‍तेमाल।

7. वि‍शेष क्षेत्र वि‍कास की पहलें- गांवों/शहरों/बस्‍ति‍यों में मुसलमानों सहि‍त सभी गरीबों को बुनि‍यादी सुवि‍धाएं, बेहतर सरकारी स्‍कूल, स्‍वास्‍थ्‍य सुवि‍धाएं उपलब्‍ध कराना।

8. चुनाव क्षेत्र के परिसीमन प्रक्रिया में इस बात का ध्यान रखना कि अल्पसंख्यक बहुल इलाकों को एससी के लिए आरक्ष‍ित न किया जाए।

9. सकारात्‍मक कार्यों के लि‍ए उपाय- इक्‍वल अपॉर्च्युनि‍टी कमीशन, नेशनल डेटा बैंक और असेसमेंट और मॉनि‍टरी अथॉरि‍टी का गठन।

10. मदरसों की डिग्री को डिफेंस, सिविल और बैंकिंग एग्जाम के लिए मान्य करने की व्यवस्था करना।


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