पेशावर कांड का हीरो वो गढ़वाली वीर जिसने पठानों के लिए अपनी पलटन की जान ही दांव पर लगा दी

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रजनी जे

23 अप्रैल वो ऐतिहासिक दिन है जब एक गढ़वाली वीर ने पेशावर के पठानों की रक्षा के लिए न सिर्फ अपनी बल्कि अपनी पूरी पलटन की जान दांव पर लगा दी थी, जाहिर है नौकरी तो ठेंगे पर रख ही दी थी।
बात आज से 89 साल पहले 1930 की है। अंगेज बहादुर महात्मा गांधी की जय बोल रहे पेशावर के पठानों से आजिज आ गए थे। पठान आजादी के दीवाने बने हुए थे। पेशावर के किस्सा खानी बाजार में निहत्थे पठानों के खिलाफ पहले अंग्रेज कमांडर ने गढ़वाली हिन्दू सैनिकों को धर्म के नाम पर भड़काया और फिर कहा कि पठानों पर गोली चलाओ। गढ़वाली फौज ने वीर चन्द्र सिंह गढवाली के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया। अपना सब दांव पर लगा कर उन्होंने गढ़वाल का मस्तक ऊंचा कर दिया था।

राहुल सांकृत्यायन की प्रसिद्ध पुस्तक ‘वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली’
में उस घटना का विवरण इस प्रकार है-

उस दिन सवेरे सात बजे काले बोर्ड के सामने बैठकर चन्द्र सिंह निशाना लगाने व गोली दागने आदि के बारे में लेक्चर दे रहे थे, तभी उनका इंचार्ज अंग्रेज अफसर आ गया। चन्द्रसिंह ने परेड की हाजिरी की रिपोर्ट दी। अफसर सबको बैठ जाने का हुक्म देकर बोला- ‘जवानों क्या आप जानते हो कि हमारी गढ़वाली पलटन को सरकार ने क्यों पेशावर भेजा है?
ओहदेदारों ने कहा- नहीं ।
अफसर ने आगे बोलना शुरू किया- ‘सुनों, यहां 94 फीसदी मुसलमान और सिर्फ दो फीसदी हिन्दू हैं। मुसलमान सदा हिन्दुओं को सताया करते हैं। हिन्दू यहां बहुत मालदार हैं।….. ‘देखो, यहां के हिन्दुओं को कितनी मुसीबतों का सामना करना पड़ रहा है। दूसरी पलटन आती तो हिन्दुओं का ख्याल न करती। इसीलिए सरकार ने हमारी हिन्दुओं की पलटन को यहां भेजा है। शायद हिन्दुओं को बचाने के लिए हमें बाजार जाना पड़े और इन बदमाशों के ऊपर गोली चलानी पड़े..।

इस बीच किसी ने उठकर पूछा- ‘हुजूर, यहां तो हम लोग पहचान नहीं पाते कि कौन हिन्दू है, कौन मुसलमान। सभी पश्तो बोलते हैं। एक सी दाढ़ी और एक सी पोशाक रखते हैं।…
अंग्रेज अफसर ने कहा, ‘तुम्हें सारी बातें बतला दी जाएंगी..।

अंग्रेज अफसर के वहां से जाते ही चन्द्र सिंह ने कहा, ‘भाईयों देखा आपने, साहब की बातें सुन लीं।… सारी बातें झूठी हैं। हिन्दू-मुसलमान के झगड़े की बात में रत्ती भर भी सचाई नहीं है। यह न हिन्दुओं का झगड़ा है और न मुसलमानों का। झगड़ा है कांग्रेस और अंग्रेज का…। कांग्रेस ने गरीबी और गुलामी से मुक्ति के लिए आंदोलन उठाया है।..क्या हमें उनके ऊपर गोली चलानी चाहिए? हमारे लिए गोली चलाने से अच्छा यही होगा कि अपने को गोली मार लें। देश के गद्दारी करना अपने खानदान का सर्वनाश करना है।’

23 अप्रैल 1930 को सबेरे सात बजे सिपाहियों को हुक्म हुआ- पांच मिनट के अंदर फालिन हो जाएं…। चन्द्र सिंह ने कंपनी को फालिन करा दिया..। इसके बाद कंपनी के जवान मोटर में बैठकर पेशावर को रवाना हुए।

राष्ट्रीय झंडे के चारों ओर वीर पठान खड़े थे। मंच पर खड़े होकर एक सिक्ख नेता ने कभी पश्तो में तो कभी उर्दू में जोशीला भाषण देना शुरू किया। लोगों से आवाज आती- ‘नारा ए तकबीर! और हजारों गलों से आवाज उठती, ‘अल्ला हो अकबर..। ‘महात्मा गांधी की जय’ के नारों से आकाश गूंज रहा था।

गढ़वाली सैनिक जुलूस के बिल्कुल पास खड़े थे। कप्तान रिकेट चिल्लाया- ‘हटाओ इन लोगों को यहां से ! वह सीटी बजाकर चेतावनी देने लगा- ‘भाग जाओ.. भाग जाओ, गोली चलेगी। लेकिन भीड़ को रिकेट की चिल्लाहट की कोई परवाह नहीं थी। पेशावर जिले के बड़े-बड़े अफसर काबुली दरवाजे के ऊपर बैठे यह सब देख रहे थे।… कप्तान रिकेट फिर चिल्लाया- ‘तुम लोग भाग जाओ, नहीं तो गोली से मारे जाओगे। पठान जनता टस से मस नहीं हुई।

रिकेट ने इस बार हुक्म दिया- ‘गढ़वाली, थ्री राउंड फायर..। चन्द्र सिंह कप्तान रिकेट के बायें खड़े थे। उसी वक्त उन्होंने पूर्व निर्णय के अनुसार जोर से कहा- ‘गढ़वाली सीज फायर..( गोली न चलाओ )। दूसरे प्लाटूनों और सेक्शनों ने भी चिल्लाकर रिकेटे के हुक्म के खिलाफ आवाज दी- ‘गढ़वाली सीज फायर..।

हुक्म सुनते ही गढ़वालियों ने अपनी अपनी राइफलें जमीन पर खड़ी कर दीं। एक गढ़वाली सैनिक उदे सिंह ने अपनी बंदूक एक पठान के हाथ में देकर कहा- ‘लो भाई, अब आप लोग हमें गोली मार दें।…

कैसे बने फौजी

चन्द्र सिंह गढ़वाली का जन्म 25 दिसम्बर 1891 में हुआ था। चन्द्रसिंह के पूर्वज चौहान वंश के थे जो मुरादाबाद में रहते थे। काफी समय पहले ही वे गढ़वाल की राजधानी चांदपुरगढ़ में आकर बस गये थे और यहाँ के थोकदारों की सेवा करने लगे थे। चन्द्र सिंह के पिता का नाम जलौथ सिंह भंडारी था। वह एक अनपढ़ किसान थे। इसी कारण चन्द्र सिंह को भी वो शिक्षित नहीं कर सके। चन्द्र सिंह ने अपनी मेहनत से ही पढ़ना लिखना सीख लिया था। 3 सितम्बर 1914 को चन्द्र सिंह सेना में भर्ती होने के लिये लैंसडौन पहुंचे और सेना में भर्ती हो गये। यह प्रथम विश्वयुद्ध का समय था। 1 अगस्त 1915 में चन्द्रसिंह को अन्य गढ़वाली सैनिकों के साथ अंग्रेजों द्वारा फ्रांस भेज दिया गया। जहाँ से वे 1 फरवरी 1916 को वापस लैंसडौन आ गए। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ही 1917 में चन्द्रसिंह ने अंग्रेजों की ओर से मेसोपोटामिया के युद्ध में भाग लिया। जिसमें अंग्रेजों की जीत हुई थी। 1918 में बगदाद की लड़ाई में भी हिस्सा लिया।
प्रथम विश्व युद्ध समाप्त हो जाने के बाद अंग्रेजो द्वारा कई सैनिकों को निकालना शुरू कर दिया और जिन्हें युद्ध के समय तरक्की दी गयी थी उनके पदों को भी कम कर दिया गया। इसमें चन्द्रसिंह भी थे। इन्हें भी हवलदार से सैनिक बना दिया गया था। जिस कारण इन्होंने सेना को छोड़ने का मन बना लिया था। उच्च अधिकारियों की ओर से इन्हें समझाया गया कि इनकी तरक्की का खयाल रखा जायेगा और इन्हें कुछ समय का अवकाश भी दे दिया। इसी दौरान चन्द्रसिंह महात्मा गांधी के सम्पर्क में आए।
दोबारा की गई तरक्की
कुछ समय पश्चात इन्हें इनकी बटालियन समेत 1920 में बजीरिस्तान भेजा गया। जिसके बाद इनकी पुनः तरक्की हो गयी। उनके अंदर पनप रहा देश प्रेम अंग्रेजों को रास नहीं आया और उन्होंने इन्हें खैबर दर्रे के पास भेज दिया। इस समय तक चन्द्रसिंह मेजर हवलदार के पद पर थे। उस समय पेशावर में स्वतंत्रता संग्राम की लौ पूरे जोरशोर के साथ जली हुई थी। और अंग्रेज इसे कुचलने की पूरी कोशिश कर रहे थे। इसी काम के लिये 23 अप्रैल 1930 को इन्हें पेशावर भेज दिया गया था।

मौत की सजा बची 11 साल जेल काटी

पेशावर के विद्रोह के बाद इन सैनिकों पर मुकदमा चला। गढ़वाली सैनिकों की पैरवी मुकुन्दी लाल की ओर से की गयी। उन्होंने अथक प्रयासों के बाद इनके मृत्युदंड की सजा को कैद की सजा में बदल दिया। इस दौरान चन्द्रसिंह गढ़वाली की सारी सम्पत्ति जब्त कर ली गई। इनकी वर्दी को इनके शरीर से काट-काट कर अलग कर दिया गया।
1930 में चन्द्रसिंह गढ़वाली को 14 साल के कारावास के लिये ऐबटाबाद की जेल में भेज दिया गया। जिसके बाद इन्हें अलग-अलग जेलों में स्थानान्तरित किया जाता रहा। पर इनकी सजा कम हो गई और 11 साल के कारावास के बाद इन्हें 26 सितम्बर 1941 को आजाद कर दिया।

गढ़वाल नहीं जा सकते

आजाद होने पर उनका गढ़वाल में उनका प्रवेश प्रतिबंधित रहा। जिस कारण इन्हें यहाँ-वहाँ भटकते रहना पड़ा और अन्त में ये वर्धा गांधी जी के पास चले गये। गांधी जी इनके बेहद प्रभावित रहे। 8 अगस्त 1942 के भारत छोड़ों आंदोलन में इन्होंने इलाहाबाद में रहकर इस आंदोलन में सक्रिय भागीदारी निभाई। फिर से 3 तीन साल के लिये गिरफ्तार हुए। 1945 में इन्हें आजाद कर दिया गया।

दिसम्बर 1946 में कम्युनिस्टों के सहयोग के कारण चन्द्रसिंह फिर से गढ़वाल में प्रवेश कर सके। 1967 में इन्होंने कम्युनिस्ट के उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा पर उसमें इन्हें सफलता नहीं मिली। 1 अक्टूबर 1979 को चन्द्रसिंह गढ़वाली का लम्बी बिमारी के बाद देहान्त हो गया। 1994 में भारत सरकार द्वारा उनके सम्मान में एक डाक टिकट भी जारी किया गया। तथा कई सड़कों के नाम भी इनके नाम पर रखे गये।

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