#WorldBicycleDay: इस देश में चलता है साइकिल वालों का राज, कार वाले होते हैं शर्मिंदा

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आज विश्व साइकिल दिवस है। बहुत से लोग साइकिल को लेकर तमाम यादगार शेयर कर रहे हैं, इसके फायदे गिना रहे हैं। बचपन में कैंची चलाने के हुनर को जीभर याद करने वाली पूरी पीढ़ी आह भर रही है।

बताया जाता है कि भारत में प्रति 1000 लोगों पर अभी भी महज 90 साइकिलें ही हैं। जबकि साइकिल पहली बार अंग्रेजी शासन में 1887 में भारत में आई थी। उसके बाद तमाम किस्से और इतिहास के घटनाक्रम साइकिल की वजह से दर्ज हो गए।

वैसे, हमारे देश में अब साइकिल महज सेहत और पर्यावरण का मुद्दा नहीं है। अब इसकी सूरत सियासत से भी जुड़ी हुई है। खासतौर पर उत्तरप्रदेश में। इस प्रदेश में प्रमुख राजनीतिक दल समाजवादी पार्टी का चुनाव निशान ही साइकिल है।

साल 2017 से पहले जब इस दल की सरकार थी तो बड़ी संख्या में साइकिलें बांटी गईं, खासतौर पर मजदूरों को। कई राजनीतिक प्रदर्शन और प्रचार कार्यक्रम साइकिल रैलियों के जरिए हुए। शहरों में भी साइकिल चलाना सुगम और सुरक्षित हो, इसके लिए साइकिल ट्रैक बनवाए गए।

लेकिन ये ट्रैक काम नहीं आए। नई सरकार ने साइकिल ट्रैकों को भ्रष्टाचार का निशान बताकर तुड़वा दिया या फिर उनकी देखरेख की जरूरत नहीं समझी। अब ये ट्रैक अतिक्रमण का शिकार हैं या फिर उखड़ चुके हैं। कोई नए भ्रष्टाचारमुक्त ट्रैक भी वजूद में नहीं आए।

इस सबके बावजूद ऐसा नहीं है कि देश में साइकिल प्रेमियों की संख्या में कमी आई है। बल्कि पेट्रोल की कीमतों में बेतहाशा बढ़ोत्तरी और सेहत की फिक्रमंदी में तमाम लोगों ने साइकिल चलाना शुरू कर दिया है। सरकारी नौकरी, अच्छी तनख्वाह और सुविधाओं के बावजूद साइकिल से ड्यूटी करने वालों में अभी रेल कर्मचारियों की संख्या आप खूब देख सकते हैं।

साइकिलिंग फिर भी सभ्य नागरिक और हैसियत का सिंबल नहीं बन पाया है, क्योंकि नौकरशाह, अफसर, नेता अपनी हैसियत का प्रदर्शन कारों के काफिले से कराते हैं, भले ही उन्हें चंद कदम की दूरी तय करना हो।

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लेकिन एक देश ऐसा भी है, जहां साइकिल चलाना फक्र की बात है और वहां का प्रधानमंत्री भी साइकिल से ही चलता है। वो कोई गरीब देश भी नहीं है, न ही वहां का प्रधानमंत्री फकीर जैसे उपनामों से जाना जाता है।

इस देश का नाम है नीदरलैंड। जहां प्रधानमंत्री भी साइकिल से संसद तक जाते हैं। यहां सड़कों पर ज्यादातर साइकिलें दिखती हैं। साइकिल के लिए खास सड़कें और नियम हैं। नीदरलैंड की राजधानी एम्स्टर्डम में तो जैसे साइकिलबाजों का ही राज है।

एम्स्टर्डम शहर की रिंग रोड और लेन साइकिल वालों के लिए हर लिहाज से सुविधा वाली और सुरक्षित हैं। इतनी आरामदायक कि बच्चों से लेकर बुजुर्ग तक साइकिल से आते-जाते मिलेंगे। ऐसा एम्स्टर्डम में ही नहीं बल्कि सभी डच शहरों में है। साइकिल से इस कदर मुहब्बत है कि वे अक्सर मज़ाक में कहते हैं, साइकिलें धरती पर समय की शुरुवात से ही हैं।

ऐसा वहां हमेशा नहीं था। डच शहरों में भी 1950 और 60 के दशक में सड़कों पर कारों की संख्या बढ़ने लगी थी।

20वीं शताब्दी की शुरुआत में साइकिल को पुरुषों और महिलाओं के लिए परिवहन का एक सम्मानजनक तरीका माना जाता था। डच अर्थव्यवस्था में तेजी आई तो बहुत से लोग कार खरीदने में सक्षम हो गए और शहरी नीति निर्माताओं ने कार को भविष्य के यात्रा मोड के रूप में देखना शुरू कर दिया।

कारों की खातिर रास्ता बनाने के लिए तमाम आरामदायक रास्ते और हरियाली नष्ट किए जाने लगे। इसके बाद साइकिल का उपयोग प्रति वर्ष 6 फीसद गिरने लगा। यहां तक कि ऐसा लगने लगा कि कहीं साइकिलें नीदरलैंड की सड़कों से गायब ही ना हो जाएं।

बढ़ते हुए ट्रैफिक का नुकसान साफ दिख रहा था। 1971 में सड़क दुर्घटनों में हुई मौतों की संख्या 3300 पर पहुंच गई। उस वर्ष यातायात दुर्घटनाओं में 400 से ज्यादा बच्चे मारे गए। लोगों में नाराजगी पैदा हुई और जमकर विरोध प्रदर्शन हुए।

इन विरोध प्रदर्शनों में साइकिल का ही सबसे ज़्यादा इस्तेमाल हुआ। साइकिलों के साथ युवा, बच्चे, और बुजुर्ग मिलकर प्रदर्शन करते, गीत गाते, नारे लगाते। घर के सभी काम सड़कों पर आकर करने लगे। यहां तक कि डाइनिंग टेबल भी सड़क पर लगाकर डिनर करना शुरू कर दिया। इन आंदोलन को नाम दिया गया “स्टॉप डी किंडरमोर्ड” यानि सड़कों पर बच्चों की मौत रोको।

आखिरकार ‘स्टॉप डी किंडरमोर्ड’ की बातें डच सरकार को सुननी पड़ीं। सड़कों पर साइकलों की दुर्घटनाएं रोकने के लिए बदलाव किए। स्पीड ब्रेकर और मोड़ बनाए। सड़कों पर कारों की गतिसीमा तय की गई।

मामला यहीं तक नहीं रुका। फिर एक और समूह ने सड़कों पर साइकलों के लिए और ज्यादा जगह की मांग शुरू कर दी। इसके लिए’ एचल रियल डच साइकलिस्ट्स यूनियन’ की स्थापना हुई, जो सड़क के खतरनाक हिस्सों पर साइकिल चलाने और साइकिल सवारों से जुड़ी समस्याओं पर बात करने लगा।

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फिर 1973 में दुनियाभर में तेल संकट की स्थिति आई। तेल निर्यातक खाड़ी देशों ने इजरायल का समर्थन करने की वजह से अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा, जापान और नीदरलैंड पर तेल प्रतिबंध लगा दिया। इन देशों में तेल की कीमतों में चौगुना इजाफा हो गया। तब तत्कालीन डच प्रधानमंत्री डेन उइल ने अपने नागरिकों से नई जीवनशैली अपनाने और ऊर्जा बचाने के बारे में गंभीर होने का आग्रह किया।

सरकार ने ये घोषणा भी की कि रविवार के दिन सड़कें कारों से मुक्त रहेंगी यानि उस दिन सड़कों पर कार नहीं चलेंगी। इस दिन खाली पड़ी सड़कों पर लोग साइकल चलाने लगे। तब लोगों को महसूस हुआ कि ऐसा करना तो अच्छा ही है सेहत और पर्यावरण के लिए। धीरे-धीरे डच राजनेता भी शर्मिंदगी छोड़कर साइकिल पर आ गए। उनकी परिवहन नीतियों में साइकिल फिर प्राथमिकता लेने लगी।

1980 के दशक में डच कस्बों और शहरों ने अपनी सड़कों को साइकिल चलाने के हिसाब से बनाने पर काम करना शुरू किया। पूरे नीदरलैंड में साइकिल ट्रैक बनाए गए। खासतौर पर साइकिलों को समर्पित कर रास्ते और सड़कें बनाई गईं।

अब नीदरलैंड में 22 हजार मील की रिंग रोड हैं, जिन पर खूब साइकिलें चलती हैं। साइकिलों से ही यात्राओं की एक चौथाई से अधिक की दूरी तय की जाती है। एम्स्टर्डम और सभी प्रमुख डच शहरों में “साइकिल सिविल सेवक” नामित किए गए हैं, जो साइकिल नेटवर्क को सुधारने के लिए काम करते हैं।

आज नीदरलैंड का शहर एम्स्टर्डम दुनिया की साइकिल राजधानी बन गया है।

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