उत्तरप्रदेश के रामपुर शहर में मौलाना मुहम्मद अली जौहर यूनिवर्सिटी बनाकर सलाखों के पीछे मुश्किल वक्त गुजार रहे आजम खां को खतावार ठहराने की सियासी रस्साकशी ने बहुतों को धक्का पहुंचाया है। उनकी गलती कहां और कितनी थी, यह जानना और उसके मुताबिक सजा मुकर्रर करना अदालत का काम है। लेकिन इस सच पर कोई पर्दा नहीं डाला जा सकता कि आजम खां ने उस नाम को हमेशा के लिए जिंदा कर दिया, जिसकी अहमियत भारत के इतिहास में दर्ज है। यह नाम है मौलाना मुहम्मद अली जौहर। कौन थे मौलाना जौहर? यह जानना दिलचस्प है, जब इतिहास को मेटने की कोशिशें हो रही हों। (Maulana Jauhar Azam Khan)
10 दिसंबर 1878 को रामपुर में रुहेला पठान जनजाति के शेख अब्दुल अली खान के घर जन्मे मुहम्मद अली जौहर पांच भाई-बहनों में सबसे छोटे थे। जब मौलाना मोहम्मद अली पांच साल के थे तो उनके पिता का इंतकाल हो गया, जिसकी वजह से सारी जिम्मेदारी उनकी मां आब्दी बानो बेगम पर आ गई। कहा जाता है कि आब्दी बेगम भी बड़ी दिलेर थीं, बी अम्मा नाम से उनका खिताब पड़ा गया। मौलाना मोहम्मद अली के बड़े भाई का नाम मौलाना शौकत अली था। उनका भी इतिहास में काफी नाम है।
मौलाना जौहर ने उर्दू और फारसी की शुरुआती पढ़ाई घर पर ही की और फिर मैट्रिक करने बरेली गए। उस इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संबद्ध एमएओ अलीगढ़ कॉलेज से बीए किया। बड़े भाई शौकत अली की तमन्ना थी कि मौलाना जौहर आईसीएस (इंडियन सिविल सर्विसेज) की परीक्षा पास करें, इसके लिए उन्हें ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में भेजा गया लेकिन मौलाना मोहम्मद अली सफल नहीं हो पाए और 1898 में उन्होंने ऑक्सफोर्ड के लिंकन कॉलेज से आधुनिक इतिहास में एमए की डिग्री ली।
मौलाना मोहम्मद अली ने लंदन से लौटने के बाद रामपुर रियासत में मुख्य शिक्षा अधिकारी के रूप में काम किया, बड़ौदा राज्य में भी नौकरी की। (Maulana Jauhar Azam Khan)
उनके बारे में सबसे दिलचस्प बात ‘द कॉमरेड’ अखबार का निकालना है, जिसने उनकी जिंदगी का रुख बदल दिया। साल 1911 में उन्होंने कलकत्ता से अंग्रेजी में अपना पहला साप्ताहिक अखबार ‘कॉमरेड’ शुरू किया, जिसे शासक वर्ग सहित समाज के सभी वर्गों ने खूब सराहा। जबकि कॉमरेड शब्द उस समय तक दुनिया में बहुत प्रचलन में भी नहीं था।
इस शब्द का प्रचलन रूस में 1917 की मजदूर क्रांति के आसपास से हुआ। बाद में कॉमरेड शब्द आमतौर पर कम्युनिस्ट दलों के सदस्यों या ट्रेड यूनियन आंदोलन से जुड़ गया।
मोहम्मद अली एक सशक्त वक्ता और लेखक थे, जिन्होंने द कॉमरेड को लांच करने से पहले द टाइम्स, द ऑब्जर्वर और द मैनचेस्टर गार्डियन सहित विभिन्न समाचार पत्रों में लेख लिखकर लेखनी को तराशा। महंगे कागज पर छपे ‘द कॉमरेड’ ने तेजी से पकड़ बना ली और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी मशहूर हो गया।
उन्होंने ‘द कॉमरेड’ के जरिए मुस्लिम समुदाय के राष्ट्रीय और वैश्विक नेटवर्क बनाने का लक्ष्य रखा। इसके लेखों ने उस समय की महत्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं-बाल्कन युद्ध, ब्रिटिश द्वारा मिस्र पर कब्जा और प्रथम विश्व युद्ध में तुर्की की भूमिका के दौरान विश्व स्तर पर मुसलमानों की दुर्दशा पर प्रकाश डाला। लेख और संपादकीय आमतौर पर मुस्लिम दुनिया और खासतौर पर तुर्की के लिए ब्रिटिश शत्रुता की निंदा कर रहे थे। (Maulana Jauhar Azam Khan)
मौलाना जौहर के अखबार ने खूब वाहवाही लूटी, लेकिन 1914 में ‘द चॉइस ऑफ द तुर्क’ नामक एक लेख अखबार के लिए नाश साबित हुआ, जिसमें अंग्रेजों की ज्यादती को सूचीबद्ध करने के साथ ही तुर्कों को विश्वयुद्ध में मित्र राष्ट्रों के साथ शामिल होने की सलाह पर नजरिया पेश किया गया।
प्रथम विश्व युद्ध की शुरुआत के वक्त ब्रिटिश भारत सरकार मुस्लिम जनमत और पैन-इस्लामिक एक्टिविटी से पहले ही चिंतित थी। लिहाजा ब्रिटिश और मित्र राष्ट्रों के खिलाफ मुस्लिम भावनाओं को भड़काने के लिए मोहम्मद अली और उनके समाचार पत्रों को निशाना बनाकर कार्रवाई कर दी।
26 सितंबर 1914 को औपनिवेशिक अधिकारियों ने ‘कॉमरेड’ पर प्रतिबंध लगा दिया और 1910 के प्रेस अधिनियम के प्रावधानों के तहत 2000 जमानत राशि के साथ अखबार की सभी प्रतियां जब्त कर लीं।
इसका प्रकाशन 1924 में दोबारा बड़ी मुश्किल से शुरू हुआ और 1926 में फिर से बंद कर दिया गया।
मौलाना जौहर ने 1911 में बंगाल के विभाजन को रद्द करने की आलोचना करते हुए अपने पत्र में लेखों की एक श्रृंखला लिखी और द ट्रिब्यून, सुरेंद्रनाथ बनर्जी की द बंगाली जैसे पत्रों की आलोचना की, जो लीग और अलीगढ़ स्कूल ऑफ पॉलिटिक्स के विरोध में थे। 14 जनवरी 1911 के अपने उद्घाटन संस्करण में, अखबार ने हिंदुओं और मुसलमानों को विभाजित करने वाले मतभेदों की स्पष्ट किया और दोनों समुदायों से राष्ट्रीय उद्देश्य के लिए मिलकर काम करने का आह्वान किया। (Maulana Jauhar Azam Khan)
1922 में असहयोग आंदोलन की वापसी और खिलाफत आंदोलन के पतन के बाद भाई शौकत अली के साथ 1924 में ‘द कॉमरेड’ और ‘हमदर्द’ को हिंदू-मुस्लिम एकता का संदेश देने के लिए पुनर्जीवित किया, लेकिन ‘कॉमरेड’ दो साल बाद फिर बंद हो गया। कहा जाता है कि 1937 में बंगाली पत्रकार और स्वतंत्रता सेनानी मुजीबुर्रहमान खान ने मौलाना मोहम्मद अली के मूल नाम के सम्मान में ‘द कॉमरेड’ नामक एक अंग्रेजी पत्रिका की स्थापना की।
साल 1913 में मुस्लिम जनता तक पहुंचने के लिए शुरु हुआ उनका उर्दू अखबार ‘हमदर्द’ भी कॉमरेड की तरह ही लोकप्रिय हुआ था। अलबत्ता, हश्र उसका भी वही हुआ। ब्रिटिश सरकार विरोधी लेखों के प्रकाशन की वजह से संपादक जौहर को कई बार जेल भेजा गया।
मौलाना मोहम्मद अली जौहर ने 1906 में मुस्लिम लीग के सदस्य के रूप में अपना राजनीतिक जीवन शुरू किया। साल 1917 में उन्हें नजरबंद होने के बावजूद सर्वसम्मति से मुस्लिम लीग का अध्यक्ष चुना गया। फिर 1919 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हुए और 1923 में उसके राष्ट्रीय अध्यक्ष बने। मौलाना जौहर भारत की स्वतंत्रता के कट्टर समर्थक और खिलाफत आंदोलन की मशाल जलाने वालों में एक थे। (Maulana Jauhar Azam Khan)
उन्होंने 1920 में खिलाफत आंदोलन के लिए लंदन में एक प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व किया। इंग्लैंड से लौटने पर उन्होंने 1920 में अलीगढ़ में ‘जामिया मिलिया इस्लामिया’ की स्थापना की, जिसे बाद में दिल्ली स्थानांतरित कर दिया गया और अब यह एक केंद्रीय विश्वविद्यालय के रूप में उच्च शिक्षा का एक प्रमुख संस्थान है।
1930 में मौलाना जौहर ने खराब स्वास्थ्य के बावजूद गोलमेज सम्मेलन में भाग लिया, जहां उन्होंने बड़ा बयान दिया- ”या तो मुझे आजादी दो या मुझे मेरी कब्र के लिए दो गज की जगह दो, मैं एक गुलाम देश में वापस नहीं जाना चाहता”।
उनके यह शब्द सच साबित हुए और 4 जनवरी 1931 को लंदन में उनका निधन हो गया। उनके अवशेषों को बैतुल-मुकद्दस यरूशलम ले जाया गया और 23 जनवरी 1931 को वहीं दफनाया गया। उनके पैतृक शहर रामपुर में मौलाना मोहम्मद अली जौहर विश्वविद्यालय की स्थापना विनम्र श्रद्धांजलि है।
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