टीपू सुल्तान और उनका वह खूबसूरत ख्वाब

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मनीष आज़ाद-

टीपू सुल्तान जयंती

टीपू सुल्तान ने अपने सपनों और उन सपनों की व्याख्या करते हुए एक किताब लिखी थी। इसमें कुल 37 सपनों और उसकी व्याख्या का वर्णन है। बाद में इसी किताब पर गिरीश कर्नाड ने एक नाटक भी लिखा-‘टीपू सुल्तान का सपना’। अंग्रेजों को पूरी तरह भारत से निकाल बाहर करना, और भारत को आत्मनिर्भर बनाना टीपू सुल्तान के सपनों का स्थायी भाव था। (Tipu Sultan Beautiful Dream)

बहुतों के अनुसार टीपू सुल्तान का यह सपना 1947 में पूरा हो गया, लेकिन देश में ऐसे लोग भी हैं, जिनका मानना है कि टीपू सुल्तान का वो सपना अभी पूरा नहीं हुआ है। अभी भी भारत नए तरीके से अंग्रेजों (साम्राज्यवादियों) का गुलाम बना हुआ है। भारत को आत्मनिर्भर बनाने का काम अभी बाकी है।

ऐसा ही एक नौजवान है ‘मुस्तफा कमाल’ उर्फ़ टीपू सुल्तान। जब कुछ अरसे पहले शांति निकेतन [जिला बीरभूमि, बंगाल] से इस ‘टीपू सुलतान’ को गिरफ़्तार कर देशद्रोह और माओवादियों से संबंध रखने का आरोप लगाया गया तो अचानक पुराने ‘टीपू सुलतान का सपना’ फिर से जाग गया।

टीपू सुल्तान के सपनों से आतंकित कर्नाटक की भाजपा सरकार ने टीपू सुल्तान को पाठ्यक्रम से बाहर निकाल दिया है। नाम मिटाने की नाकाम कोशिशें की जा रही हैं। टीपू सुल्तान को मुस्लिम कट्टरपंथी और हिंदुओं का कत्लेआम करने वाला बताकर ‘टीपू सुल्तान’ पर उसी तरह हमला शुरू कर दिया है, जैसे कभी अंग्रेजों ने टीपू सुल्तान को बदनाम करने और हिंदू मुस्लिम बंटवारा करने की नीयत से उस पर हमला बोला था। मजेदार बात यह है कि टीपू सुल्तान के खिलाफ उस वक़्त के अंग्रेजों और आज सांप्रदायिक शब्दावली भी हूबहू एक जैसी है। (Tipu Sultan Beautiful Dream)

टीपू सुल्तान के इतिहास में योगदान को जानने से पहले देखते हैं कि पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम टीपू सुल्तान के बारे में क्या कहते हैं- ”नासा में लगी एक पेंटिंग ने मेरा ध्यान आकर्षित किया, क्योंकि पेंटिंग में जो सैनिक रॉकेट दाग रहे थे वे गोरे नहीं थे, बल्कि दक्षिण एशिया के लग रहे थे। तब मुझे पता चला कि यह टीपू सुल्तान की सेना है, जो अंग्रेजों के ख़िलाफ़ लड़ रही है। पेंटिंग में जो तथ्य दिखाया गया है, उसे टीपू के देश में ही भुला दिया गया है, लेकिन सात समुंदर पार यहां इसका जश्न मनाया जा रहा है.”

दरअसल, टीपू सुल्तान वह पहला व्यक्ति था जिसने रॉकेट-मिसाइल के लिए ‘मेटल’ का इस्तेमाल किया था। उस वक़्त रॉकेट-मिसाइल के लिए बांस के बंबू का इस्तेमाल किया जाता था। ‘मेटल’ के इस्तेमाल से रॉकेट-मिसाइल की रेंज करीब दो किमी तक हो गई थी। साल 1780 में हुए अंग्रेज-मैसूर युद्ध में इसी रॉकेट के कारण अंग्रेजों की बुरी तरह हार हुई थी।

कहते हैं कि बाद में इसी रॉकेट टेक्नोलॉजी को अपनाकर और इसे और विकसित करके अंग्रेजों ने वाटरलू की निर्णायक लड़ाई (1815) में नेपोलियन को हराया था। भारत की अपनी एक महत्वपूर्ण तकनीक अंग्रेजों के हाथ में चली गई, क्योंकि तब पेटेंट क़ानून लागू नहीं था। टीपू सुल्तान के मरने के बाद उसके किले से अंग्रेजों को 700 से ज्यादा रॉकेट-मिसाइल मिले। (Tipu Sultan Beautiful Dream)

DRDO [Defence Research and Development Organisation] के शिवथानु पिल्लई [Sivathanu Pillai] ने तमाम शोध के बाद माना कि रॉकेट-मिसाइल टेक्नोलॉजी की जन्मस्थली टीपू का मैसूर राज्य ही है। उन्होंने तत्कालीन राष्ट्रपति अब्दुल कलाम से मांग की कि सेमीनार व अन्य कार्यक्रमों के माध्यम से इस बात को देश के सामने स्थापित किया जाए।

तत्कालीन माओवादी पार्टी के कर्नाटक राज्य सचिव ‘साकेत राजन’ ने 1998 और 2004 में क्रमशः दो भागों में ‘पीपल्स हिस्ट्री ऑफ़ कर्नाटक’ लिखी थी, जिसे आज कई विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जाता है। इस किताब की गौरी लंकेश सहित तमाम बुद्धिजीवियों ने भी तारीफ़ की है।

किताब में साकेत राजन ने तथ्यों के साथ साबित किया है कि हैदर अली और टीपू सुल्तान विशेषकर टीपू सुल्तान ने किस तरह अपने राज्य में तमाम राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक सुधारों के माध्यम से एक स्वस्थ और ऐतिहासिक रूप से प्रगतिशील पूंजीवाद की नींव रखने का प्रयास किया था, जिसे बाद में अंग्रेज़ उपनिवेशवादियों के साथ मिलकर उच्च जाति की सामंती ताकतों ने कुचल दिया, जिसकी सड़ांध आज 200 साल बाद भी जीवन के प्रत्येक पहलू में रची बसी है।

टीपू सुल्तान ने जब केरल के मालाबार क्षेत्र को अपने राज्य में मिलाया तो उस वक़्त वहां पर निचली जाति की गरीब महिलाओं को अपना स्तन ढकने की आज़ादी नहीं थी और ढंकने के लिए उनसे टैक्स मांगा जाता था, जिसे ‘स्तन टैक्स’ कहते थे। टीपू सुलतान ने एक ही झटके में इस प्रथा पर प्रतिबंध लगा दिया।

टीपू सुल्तान भूमि-सुधार करने वाला शायद पहला आधुनिक राजा था। टीपू ने जो जमीन जोतता था, उसे ही जमीन का मालिक बनाया और लगान के लिए सीधे राज्य के साथ उनका रिश्ता कायम कर दिया। जमींदारों (palegars) का प्रभुत्व समाप्त कर दिया गया। गरीबों-दलितों को बड़े पैमाने पर ज़मीन बांटी गई। उस समय के ‘भूमि-रिकॉर्ड’ आज भी इसकी गवाही देते हैं। टीपू सुल्तान के समय कुल 40 प्रतिशत ज़मीन सिंचित थी। बंधुवा मजदूरी और किसी भी तरह की गुलामी प्रथा पर उसने पूर्ण पाबंदी लगा दी। (Tipu Sultan Beautiful Dream)

जमींदारों का प्रभाव ख़त्म होने और केंद्रीकृत राज्य मशीनरी के अस्तित्व में आने के कारण व्यापारिक-पूंजीवाद तेजी से फ़ैलने लगा। अंग्रेजी सामानों पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया गया। इससे राजस्थान के मारवाड़ी, गुजरात के बनिया और गोवा कर्नाटक की सारस्वत ब्राह्मण जैसी जातियां टीपू सुल्तान से नाराज़ हो गईं, क्योंकि यही जातियां अंग्रेजी सामानों के व्यापार में लगीं थीं। इन्होंने ही अंग्रेजों के साथ मिलकर टीपू सुल्तान के खिलाफ षड्यंत्र को अंजाम दिया।

टीपू सुल्तान के सुधार कार्यक्रम के चलते ही वहां की शूद्र जाति ‘बानिजगा’ [Banijaga] व्यापार में आगे बढ़ पाई और अंग्रेजों के ख़िलाफ़ लड़ाई में यह व्यापारी जाति पूरी तरह टीपू सुल्तान के साथ खड़ी थी। अगर टीपू सुल्तान नहीं हारता तो यह जाति-वर्ग भावी राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग के रूप में निश्चित तौर पर उभरता। राज्य सबसे बड़े ‘पूंजीपति’ के रूप में उभर कर सामने आया और टीपू सुलतान के प्रयासों से सिल्क, सूती कपड़ा, लौह, स्टील चीनी आदि का उत्पादन श्रम विभाजन और मजदूर आधारित यानी पूंजीवादी तरीके से हो रहा था। नहर, सड़क आदि का काम बड़े पैमाने पर राज्य ने अपने हाथ में लिया हुआ था और शुद्ध मजदूरी देकर लोगों से काम करवाया गया। कारीगरों और किसानों की तमाम तरह से राज्य ने मदद की।

इसके अलावा हथियार बनाने के भी समृद्ध उद्योग थे। डबल बैरल पिस्टल टीपू सुलतान के समय की ही देन थी। उस वक़्त लगभग 21 प्रतिशत जनसंख्या शहरी थी, जो पूंजीवादी नगरीकरण का संकेत है। टीपू सुलतान ने अपने राज्य में पूर्ण शराबबंदी कर रखी थी।

जनता की बेहतरी के प्रति टीपू की प्रतिबद्धता उनके पत्र में दिखती है जो उन्होंने अपने एक अधिकारी मीर सदक [Mir Sadaq] को 1787 में लिखा था-”पूर्ण शराबबंदी मेरी दिली इच्छा है। यह सिर्फ धर्म का मामला नहीं है, हमें अपनी जनता की आर्थिक खुशहाली और उसकी नैतिक ऊंचाई के बारे में सोचना चाहिए। हमें युवाओं के चरित्र का निर्माण करने की जरूरत है। मुझे तात्कालिक वित्तीय नुकसान के बारे में पता है, लेकिन हमें आगे देखना है। हमारे राजस्व को हुआ नुकसान जनता की शारीरिक और नैतिक खुशहाली से बड़ा नहीं है.”

फ्रांसीसी क्रांति का भी टीपू सुल्तान पर काफ़ी असर था। उन्हाेंने क्रांति से पहले ‘रूसो’, ‘वाल्टेयर’ जैसे लोगों को भी पढ़ा। कहते हैं कि उन्होंने फ्रांसीसी क्रांति की याद में एक पौधा भी लगाया था। साकेत राजन तो अपनी किताब में यहां तक दावा करते हैं कि उस वक़्त मैसूर राज्य में एक ‘जकोबिन क्लब’ (‘जैकोबिन’ फ्रेंच क्रांतिकारियों को बोलते थे) भी हुआ करता था। टीपू सुल्तान भी इस क्लब का सदस्य था। फ्रेंच सरकार को लिखे पत्र में टीपू सुल्तान अपने को टीपू सुल्तान ‘सिटीजन’ के रूप में दस्तखत करते हैं। (Tipu Sultan Beautiful Dream)

टीपू सुल्तान आयुर्वेद-यूनानी और एलोपैथी को मिलाकर एक चिकित्सा पद्धति विकसित करने का प्रयास कर रहे थे। सर्जरी में भी उनकी रुचि थी। टीपू को हराने के बाद श्रीरंगपट्टनम में अंग्रेजों को एक अत्याधुनिक (उस समय के हिसाब से) अस्पताल मिला था, जिसे देखकर वो दंग रह गए थे।

टीपू सुल्तान के समकालीनों ने साफ-साफ लिखा है कि टीपू सुल्तान सामंती शानो-शौकत से कोसों दूर थे और बहुत सादा जीवन गुज़ारते थे।

‘पीपुल्स हिस्ट्री ऑफ कर्नाटक’ में टीपू पर विस्तार से लिखने के बाद साकेत राजन निष्कर्ष रूप में टीपू सुल्तान पर महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हैं-

”वह पहला और दुर्भाग्य से अंतिम व्यक्ति था जिसने उभरते भारतीय पूंजीवाद ने प्रस्तुत किया था। यूरोपीय रेनेसां की भावना का वह एक चमकीला उदाहरण था.”

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं, यह उनके निजी विचार हैं)


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