मालाबार विद्रोह के 100 साल: वे मुस्लिम क्रांतिकारी, जिनसे अंग्रेजों से ज्यादा RSS ने नफरत की

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मनीष आज़ाद-

आज से 100 साल पहले अंग्रेजों ने केरल के मालाबार क्षेत्र से 100 मुसलमानों को जबर्दस्ती मालगाड़ी में पैक किया और वहां से 140 किलोमीटर दूर कोयंबटूर जेल भेज दिया। कोयंबटूर पहुंचने पर इनमे से 64 मुस्लिम मर चुके थे। पूरी तरह बंद मालगाड़ी में हवा पानी के अभाव में उन्होंने दम तोड़ दिया था। बाकी लोगों ने अपना पेशाब-पसीना पीकर किसी तरह अपनी जान बचाई। बच गए लोगों ने बताया कि पूरी तरह बन्द मालगाड़ी की झिर्रियों को भी कागज़ चिपका कर बन्द कर दिया गया था। इसी तरह हिटलर के समय में यहूदियों को यहां से वहां ले जाया जाता था। परिणामस्वरूप हजारों यहूदी दम घुटने से मर जाते थे।

इस घटना को दक्षिण का ‘जलियांवाला कांड’ भी कहा जाता है। प्रसिद्ध इतिहासकार सुमित सरकार ने इसे ‘पोदानूर (Podanur) ब्लैकहोल’ की संज्ञा दी। ये मुस्लिम कौन थे और अंग्रेजों को उनसे इतनी नफरत क्यों थी?

ये मुस्लिम ‘मालाबार विद्रोह’ के क्रांतिकारी थे, जिन्होंने आज से ठीक 100 साल पहले साम्राज्यवाद और सामंतवाद दोनों को अपने निशाने पर लिया था और दक्षिणी केरल के मालाबार क्षेत्र के एक बड़े हिस्से में पूरे 6 माह सामंतवाद और साम्राज्यवाद से मुक्त एक समानांतर सरकार चलाई थी। उन्होंने न सिर्फ अत्याचारी सामंतों पर हमला किया बल्कि उपनिवेशवाद के प्रतीक कोर्ट, थाने, टेलीग्राफ ऑफिस, ट्रेजरी को भी अपना निशाना बनाया।

तेलंगाना गुरिल्ला संघर्ष से करीब 16-17 साल पहले इन्होंने दिखा दिया था कि गुरिल्ला युद्ध से अंग्रेजों और उनके चाटुकार सामंतों को कैसे धूल चटाई जा सकती है। इस विद्रोह को दबाने के लिए अंग्रेजों को सेना बुलानी पड़ी। इस दमन के दौरान अंग्रेजों ने करीब 10 हजार लोगों का कत्लेआम किया और और हजारों लोगों को गिरफ्तार करके सुदूर अंडमान भेज दिया।

दिलचस्प यह है कि 100 साल बाद आज आरएसएस-भाजपा को भी इन ‘मुस्लिम’ क्रांतिकारियों से उतनी ही नफरत है, जितनी अंग्रेजों को थी।

आरएसएस नेता राम माधव ने हाल में दिए बयान में इन क्रांतिकारियों को भारत का पहला तालिबानी बताया है।

नफ़रत की इंतेहा देखिये कि इस घटना से संबंधित एक मूरल (mural) पेंटिंग को केरल के तिरुर (tirur) रेलवे स्टेशन से भाजपा/आरएसएस ने जबर्दस्ती मिटवा दिया। मानो पेंटिंग मिटा देने से उनका इतिहास भी मिट जाएगा।

भाजपा-आरएसएस यहीं तक नहीं रुके। उन्होंने दबाव डालकर ‘भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद (ICHR) की शहीदों की लिस्ट (Dictionary of Martyrs of India’s Freedom Struggle) से मालाबार विद्रोह के सभी 387 शहीदों को बाहर करवा दिया। मानो ऐसा करने से वे इतिहास से भी बाहर हो जाएंगे।

मालाबार विद्रोह के नेता वरियमकुनाथ हाजी (Variamkunnath Kunhamed Haji) को अंग्रेजों ने अंग्रेजी राज्य के खिलाफ युद्व छेड़ने के अपराध में गोली मारकर उनके शव को जला दिया था। शव के साथ ‘समानांतर सरकार’ के सारे दस्तावेज भी जला डाले, ताकी भविष्य में कोई इनसे प्रेरणा न ले सके।

आज भाजपा-आरएसएस इस शानदार विद्रोह से संबंधित तथ्यों को जला रही है। क्या जुगलबंदी है। यह वही जुगलबंदी है जो ‘वीर’ सावरकर ने अंग्रेजों के साथ शुरू की थी।

मालाबार विद्रोह के निर्मम दमन के महज 3 साल बाद 1924 में अंग्रेजों के ‘वीर’ बन चुके सावरकर ने मालाबार विद्रोह पर ‘मोपला’ (Moplah) नाम से एक उपन्यास लिखा और इस शानदार क्रांतिकारी घटना को एक दंगा घोषित किया जिसमें मुस्लिमों ने हिंदुओं की हत्या की। अंग्रेजों के मालाबार विद्रोह के दमन के बाद अब यह तथ्यों का दमन था।

दरअसल, मालाबार क्षेत्र में प्रायः हिन्दू जमींदार थे और उनकी ‘रियाया’ मुस्लिम थी। अंग्रेज अपने स्वार्थ में इन ‘हिन्दू’ जमींदारों के साथ मिलकर ‘मुस्लिम’ जनता का निर्मम शोषण कर रहे थे। इसी शोषण के खिलाफ यह विद्रोह था। और इसी तथ्य का इस्तेमाल करके सावरकर ने इसे मुस्लिमों द्वारा हिंदुओं के कत्लेआम की संज्ञा दे दी।

100 साल बाद भाजपा-आरएसएस इसी बासी भात की खिचड़ी लोगों को परोस रहे हैं और इस शानदार सामंतवाद-साम्राज्यवाद विरोधी विद्रोह को बदनाम कर रहे हैं।

तथ्य तो यह भी है कि इस विद्रोह में उन मुस्लिमों को भी निशाना बनाया गया था, जो अंग्रेजों की मदद कर रहे थे। लेकिन इस तथ्य पर पर्दा डाला जा रहा है।

यह बात सही है कि वरियमकुनाथ हाजी के नेतृत्व में मालाबार विद्रोह ने इस्लामिक धार्मिक प्रतीकों का इस्तेमाल किया था। लेकिन गांधी के नेतृत्व वाला तथाकथित राष्ट्रीय आंदोलन भी तो तमाम हिंदू प्रतीकों से अटा पड़ा था, उसे क्या कहेंगे?

दरअसल, यह पूरा विवाद सतह पर तब आया जब पिछले साल मलयाली फ़िल्म डायरेक्टर आशिक अबु (Ashiq Abu) ने मालाबार विद्रोह के मुख्य नायक वरियमकुनाथ हाजी पर फ़िल्म बनाने की घोषणा की। इस घोषणा के साथ ही उन पर और हाजी की भूमिका निभाने वाले पृथ्वीराज पर हमले शुरू हो गए।

अफसोस कि दोनों ही इस हमले को सह नहीं पाए और इसी माह उन्होंने औपचारिक घोषणा कर दी कि वे फ़िल्म नहीं बनाएंगे। इस तरह दर्शक एक शानदार ऐतिहासिक घटना से ‘रूबरू’ होने से वंचित रह गए।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और सरोकार से जुड़ी फिल्मों के समीक्षक हैं, यह उनके निजी विचार हैं)


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