रिजवान रहमान-
केरल सरकार की कैबिनेट में अगर 4 महिलाएं होती तो क्या कैबिनेट का बैलेंस बिगड़ जाता? 20 मंत्री में से महज 3 महिला का होना बेहद कम नहीं है? क्या मुख्यमंत्री विजयन, कैबिनेट में अपने दामाद को शामिल करने के बजाए मिनिस्ट्रीयल बर्थ शैलजा टीचर को नहीं दे सकते थे? और क्या विजयन को शैलजा टीचर की लोकप्रियता से खतरा दिख रहा था, इसलिए साइड लाइन कर दिया गया?
इन सवालों से बचने के लिए कुछ भी लॉजिक दिया जा सकता है. मसलन, केरल विधान सभा में कुल 11 महिला विधायक हैं जिनमें से 10 LDF की हैं, इस लिहाज से 3 मंत्री पद काफी है. चलिए ठीक है यह भी माना जा सकता है कि 10 के हिसाब से 3 महिला मंत्री का पैरामीटर सही है.
लेकिन मूल सवाल है कि देश के सबसे साक्षर राज्य केरल की विधानसभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्व इस कदर हाशिए पर क्यों है? 140 सीट की विधानसभा में सिर्फ 11 महिलाएं ही क्यों चुन कर आ पाईं? और सबसे बड़ा सवाल की LDF को मिले 96 सीट में से महिलाएं सिर्फ 10 सीट पर ही क्यों है? और 2016 के चुनाव में महज 8 महिलाएं ही क्यों जीत दर्ज कर पाईं थीं?
दरअसल इन सवालों के जवाब नहीं हैं. बस पूछने को पूछे जा रहे हैं. इनके जवाब इसलिए भी नहीं है क्योंकि चुनाव के समय किसी भी पार्टी ने महिलाओं के प्रतिनिधित्व को तवज्जो दिया ही नहीं. यहां तक की लेफ्ट अलायंस भी कमो-बेस उसी पैटर्न पर है. लेफ्ट पार्टी, महिलाओं को उनका स्पेस देने जैसे मसले पर अब तक सोच ही नहीं पायी है. बल्कि प्रतिनिधित्व में पितृसत्ता साफ तौर पर झलकता है. केरल विधानसभा और कैबिनेट में महिलाओं का हाशिए पर होना, इसकी बानगी है.
कोच्ची के थिंक टैंक The Centre for Public Policy Research के मुताबिक, इस बार 46% महिलाओं ने LDF को वोट किया था और 37% ने UDF को वोट दिया था. लेकिन चुनाव के समय LDF अलायंस में CPI ने 16% और CPM ने महज 14% सीट महिलाओं को दिया था. इस पर पॉलिटिकल एनालिस्ट मानते हैं कि लेफ्ट पार्टी द्वारा महिलाओं को दिए गए सीट में से आधे से अधिक सीट ऐसे थे जिसपर LDF की जीत तय थी. यानी LDF ने महिलाओं को चुनाव में उतारते समय मिनिमम रिस्क लिया था.
केरल विधानसभा के अब तक के इतिहास पर गौर करें तो महिलाओं का प्रतिनिधित्व कभी भी 10 फीसदी से अधिक नहीं रहा है. आज से 25 साल पहले 1996 में, पहली और आखिरी बार सबसे ज्यादा 13 महिलाएं जीत कर गईं थीं, और वो भी 10 फीसदी से कम ठहरता है. लेकिन इसके बाद 20 साल में (2001 से 2021 तक) महिलाओं का प्रतिनिधित्व 6 फीसदी से अधिक नहीं रहा. यही नहीं केरल में 20 लोकसभा सीट है, लेकिन वर्तमान में वहां से सिर्फ एक महिला कॉंग्रेस की टिकट से सांसद हैं.
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राज्य की राजनीति में महिलाओं की उपेक्षा और पुरुषसत्ता के इस कदर हावी होने से असंतोष है. वंचित समाज से आने वाली महिलाओं की स्थिति तो और भी खराब है. केरल में 1987 का साल कौन भूल सकता है जब राज्य की पहली कम्युनिस्ट सरकार में मंत्री और लैंड रिफॉर्म बिल की आर्केटेक्ट रहीं गौरी अम्मा को मुख्यमंत्री नहीं बनने दिया गया था. गौरी अम्मा, ओबीसी कास्ट ग्रुप से आती थीं.
ठीक यही 1996 में भी दुहराया गया, जब सुशीला गोपालन की जगह ई के नायनर को मुख्यमंत्री पद सौंप दिया गया. केरल में तीन टर्म मुख्यमंत्री रहें ई के नायनर वही राजनेता हैं जिन्हें गौरी अम्मा की जगह मुख्यमंत्री बनाने का प्रस्ताव कम्युनिस्ट सरकार के पहले मुख्यमंत्री रहे ई वी नंबूदिरीपाद ने सुझाया था.
शैलजा टीचर को भी पीछे करने की वजह इन दो घटनाओं में तालाशी जा सकती है. गौरी अम्मा की तरह ही शैलजा भी अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हैं, और रॉक स्टार हेल्थ मिनिस्टर मानी जा रही हैं.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं, यह उनके निजी विचार हैं)