इजरायली सड़कों पर क्यों गूंजे ‘सेटलर कॉलोनियलिज्म’ के खिलाफ नारे?

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रिजवान रहमान-

दुनियाभर में फिलिस्तीन के समर्थन में उठ रही आवाजों के बीच इजरायल की सड़कों से भी इजरायली शासको के खिलाफ आवाजें उठना वहां रहने वाले कुछ लोग ही उठा रहे हैं. वे फिलिस्तीन के समर्थन में तख्ती पर “The Nakba Never Ended, End Settler Colonialism” लिख कर एहतिज़ाज़ में हैं. और पूरी दुनिया देख रही है.

“सेटलर कॉलोनियलिज्म” मूल निवासियों को उजाड़ कर उसकी जगह पर बाहरी लोगों को जबरन बसाए जाने को कहते हैं. फिलिस्तीन में भी इजराइल 73 साल से यही कर रहा है जिसकी मुखालिफत में वहां के कुछ नॉन-जियोनिस्ट भी हैं.

इजराइल को अवैध राज्य मानने की वजह फिलिस्तीन में साम्राज्यवादी घुसपैठ है. यह वजूद में तब आया जब 1948 में भूमध्य सागर के पूर्वी तट पर बसे मूल निवासियों को बेघर कर, नस्ल परस्ती की बुनियाद पर एक ज़ायोनिस्ट राज्य की अवैध स्थापना की गयी थी. और उसी कब्जे को इज़राइल का नाम दिया गया.

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जर्मनी में होलोकास्ट के बाद से यहूदी फिलिस्तीन की ओर भागने लगे थे. तब फ़िलिस्तीन ने उन्हें आसरा भी दिया. लेकिन उस आसरे को फ़िलिस्तीनियों की कमज़ोरी समझी गई. और उन्हें उनकी ही ज़मीन से बेदख़ल कर दिया गया. यही वजह है कि वक़्त के साथ पूरी दुनिया में इज़राइल के ख़िलाफ़ नफ़रत बढ़ रही. यहां तक की इज़राइलियों में ही एक तादात, फ़िलिस्तीन समर्थकों की है. इनमें अपने अब तक शासकों के विरुद्ध असंतोष है.

लेकिन वैश्विक साम्राज्यवाद के सरपरस्त ‘जो बाइडेन’ और उनके पिछलग्गू इज़राइली की ठेकेदारी का बीड़ा उठाये, फ़िलिस्तीनियों पर चल रही बमबारी पर अट्टहास में हैं. इस त्रासदी पर एक तरफ बैनर लेकर खड़े हुए नॉन-जियोनिस्ट यहूदी कह रहें, “इज़राइल जनसंहार बंद करे.” तो अमेरिकन प्रेसिडेंट कह रहें, “इजराइल सेल्फ डिफेंस कर रहा है.” हालांकि बाइडेन अपवाद नहीं हैं. 1948 के बाद से, अमेरिकी प्रेसिडेंट ट्रूमेन से लेकर ओबामा और ट्रंप तक यही पैटर्न रहा है.

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“सेटलर कॉलोनियलिज्म” के साथ एक और अरबी शब्द है “नकबा” जिसका मतलब होता है तबाही. फिलिस्तीनी हर साल 15 मई को इसे सबसे दुख भरे दिन के रूप में याद करते हैं. इस दिन को नकबा डे के तौर पर मनाने की शुरूआत, 1998 में यासर अराफात ने की थी. 15 मई 1948, वही दिन था जब 750,000 फ़िलस्तीनी ज़लावतन हो गए. वे जान बचाने के लिए घरबार छोड़ गए या इजराली सेना द्वारा जबरन भगा दिए गए. कुछ अपने घरों पर ताला लगाकर भागे थे जिसकी सहेजी हुई चाबियां इस दिन के प्रतीक के रूप में जानी जाती हैं.

लेकिन ये नकबा कभी खतम नहीं हुआ. आज भी जारी है. 1948 से अब तक 60 लाख फिलिस्तीनी भटक रहे हैं. वे मिडिल इस्ट के अलग-अलग देशों के रिफ्यूजी कैंप में रहने को मजबूर हैं. इस पर कुछ इजराइली नॉन-जियोनिस्ट का मानना है कि, “वे फिलिस्तीनी जो भगा दिए गए, उन्हें वापस से बसने दिया जाए. और सभी इजराइली-फिलिस्तीनी के साथ न्याय, समानता, स्वतंत्रता और सम्मान का रवैया अपना जाए.” वहीं इसके उलट इजराइली सरकार लगातार पिछले 73 साल से फिलिस्तीनी घरों को जब्त कर रही है, उन्हें तोड़ रही है, और उनकी जान को नुकसान पहुंचा रही है.

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कभी इज़रायल के संस्थापकों में से एक ‘डेविड बेन गोरियन’ ने कहा था, “फ़िलिस्तीनी बूढ़े हो कर मर जाएंगे और उनकी नई पीढ़ियां इसे भूल जाएंगी” लेकिन फ़िलिस्तीनियों ने अपने इतिहास को कभी भुलाया नहीं और न ही उनके हौसले पस्त हुए हैं. वे अपने हक़ के लिए निरंतर संघर्ष कर रहे हैं. जंग में हैं. उन्हें अपनी ज़मीन वापस चाहिए. वे अंतिम हद तक अपने घर के लिए लड़ेंगे.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं, यह उनके निजी विचार हैं)

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