जिस दिन ईद थी, उसी दिन साम्राज्यवादियों ने 1948 में फिलिस्तीन को काटकर बनाया था इजरायल

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आशीष आनंद-

यह इत्तेफाक है, 14 मई को जिस दिन इस बार ईद थी, उसी तारीख में 1948 को साम्राज्यवादियों ने एक राष्ट्र का वजूद खत्म करके धार्मिक आधार पर दूसरा राष्ट्र बनाया था। फिलिस्तीन को फाड़कर इस्राइल बनाया। मौजूदा संकट साम्राज्यवादी ताकतों के इसी फैसले के चलते है, जिसमें अमेरिकी दखल और दबदबा बड़ी वजह है।

हालांकि इस बार शुरुआत 18 अप्रैल को अल अक्सा मस्जिद के लाउडस्पीकरों के तार काटने से हुई और जैसे-जैसे ईद नजदीक आती गई तनाव बढ़ता गया और आज जंग हो रही है। पूरी दुनिया के अमनपसंद और इंसाफ पसंद लोग इस्राइल के हमले को नाजायज बताकर फिलिस्तीनी जनता के साथ खड़े हैं, यहां तक कि गैर इजरायली यहूदी भी नेतन्याहू सरकार के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं।

दरअसल, साम्राज्यवादी ताकतों ने पूरी दुनिया में इस तरह के विवाद खड़े किए हैं, जिनकी वजह से दशकों से जंग जारी हैं और लाखों लोगों की जान जा चुकी है। इस तरह वे हथियारों का कारोबार करते हैं और अपनी कंपनियों के हित में राजनीतिक और कूटनीतिक बिसात बिछाकर विवादों को हवा देते रहे हैं। भारत-पाकिस्तान, भारत-चीन के बीच सीमा विवाद, रवांडा में नरसंहार जैसे हालात और घटनाएं इसकी बानगी भर हैं।

साम्राज्यवादी ताकतों की इस मंशा को दुनिया का क्रांतिकारी आंदोलन हमेशा से समझता रहा, इसलिए वह हर इंसाफ की लड़ाई में प्रताड़ित देशों और समुदाय के साथ खड़ा भी हुआ। चीन में जब माओत्से तुंग का नेतृत्व था तो चीन ने फिलिस्तीनी मुक्ति संघर्ष को हर अंतरराष्ट्रीय मंच पर बिना शर्त समर्थन दिया, बल्कि PLO को तमाम तरह की सैन्य जरूरतों में मदद की।

माओ के बाद चीन फिर से पूंजीवादी रास्ते पर चल पड़ा तो उसका रुख भी बदल गया। यासिर अराफात की अगुवाई में पीएलओ ने इस्राइली जियनवादी शासन को जोरदार टक्कर दी।

इसी तरह क्यूबा की क्रांतिकारी सरकार के नेता फिदेल कास्त्रो और चे ग्वेरा भी फिलिस्तीनी जनता के लिए हर मंच पर डटे रहे। उनकी लोकप्रियता फिलिस्तीन में इस कदर है कि रामल्लाह शहर में उनके चेहरों के साथ होर्डिंग तक लगे हैं।

उपनिवेशवादी गुलामी से आजादी पाए देशों के शुरुआती नेता और उनके दल भी फिलिस्तीनी जनता का साथ एक हद तक देते रहे हैं। इंदिरा गांधी के समय का तो किस्सा मशहूर ही है, जब गुट निरपेक्ष देशों के सम्मेलन में यासिर अराफात की किसी बात पर नाराजगी को फिदेल कास्त्रो ने दो मिनट में दूर कर दिया।

उस समय अराफात ने कहा, ‘ मैं इंदिरा को बहन मानता हूं और उनके लिए कुछ भी कर सकता हूं’। इस पर कास्त्राे ने भी कहा, ‘वो मेरी भी बहन हैं और आप कहीं नहीं जा रहे’।

YASIR ARAFAT AND FEDAL CASTRO

आज राजनैतिक हालात बदल चुके हैं। गुटनिरपेक्ष आंदोलन या सोवियत संघ या रूसी साम्राज्यवादी ध्रुव जैसा कुछ भी नहीं है। इस्राइल अमेरिकी सत्ता के ‘बेलगाम लठैत’ की भूमिका में फिलिस्तीन का लगभग पूरा निगल चुका है।

फिलिस्तीनी उसी तरह आज दर-बदर हैं, जैसे कभी यहूदी थे। जो बचे हैं, वे सामना कर रहे हैं और जवाब देने की कोशिश कर रहे हैं।

फिर उसी बात पर लौटते हैं कि आज दुनिया में लानत का सबब बना इस्राइली हुकूत वजूद में आई कैसे? यह इलाका 13वीं सदी से ही मुस्लिम प्रभाव में था और प्रथम विश्व युद्ध में ब्रिटेन की जीत तक 15वीं सदी से ऑटोमन साम्राज्य का हिस्सा था।

1948 में फिलिस्तीन में ब्रिटिश शासन का अंत होने के साथ इस्राएल की स्थापना हुई, जैसे भारत में इसी शासन ने अंत होने पर पाकिस्तान बनाया। अमेरिका ने उसे तुरंत मान्यता दे दी. दूसरे विश्वयुद्ध में अमेरिका साम्राज्यवादी विश्व का केंद्र बन चुका था।

david van gurian

14 मई 1948 को डेविड बेन गुरियन ने स्वतंत्र राज्य इस्राएल की स्थापना की घोषणा की और यहूदियों के इस नए देश के पहले प्रधानमंत्री भी बने। तत्कालीन सोवियत सत्ता और भारत ने भी मान्यता दी, कारण राजनीतिक परिस्थियां और कूटनीति के साथ यहूदी समुदाय के साथ उस दौर में हुए जुल्म से हमदर्दी भी थी, खासतौर पर जो उनके साथ हिटलर की फासिस्ट सत्ता ने जर्मनी में नरसंहार किया।

तब सोवियत सत्ता ने अपने देश पर हिटलर के हमले में सबसे पहले यहूदियों को सुरक्षित किया था और जर्मनी को परास्त करके उन्हें नागरिक जीवन जीने का माहौल दिया। इस्राइल के निर्माण के लगभग आठ साल बाद सोवियत संघ के नेता स्तालिन गुजर गए और वहां भी पूंजीवादी रास्ते पर चलने वाले फिर काबिज हो गए और उनकी साम्राज्यवादी प्रतियोगिता अमेरिका से शुरू हो गई।

जो सोवियत सत्ता राष्ट्रीयताओं की मुक्ति के लिए आत्मनिर्णय के अधिकारी की हिमायती थी और उनके संघर्षों को बिना शर्त मदद करती थी, उसकी जगह नया निजाम अमेरिकी साम्राज्यवादियों की तरह अपने फायदे के हिसाब से कूटनीतिक चालबाजी में जुट गया।

इस्राएल की स्थापना की नींव संयुक्त राष्ट्र महासभा के एक प्रस्ताव के साथ पक्की हो गई, जिसमें फिलीस्तीनी इलाके के विभाजन के साथ वहां यहूदी और अरब राष्ट्र बनाने की बात थी। इस प्रस्ताव में ब्रिटेन से पहली फरवरी 1948 से यहूदियों को उस इलाके में आने देने की अपील भी की गई थी। इस्राएल की स्थापना के बाद अरब यहूदी विवाद और बढ़ता गया।

बाइबिल में उल्लेखित इस्राएल को पवित्र भूमि या फिलीस्तीन के नाम से भी जाना जाता है। इसे यहूदियों का जन्म स्थान होने के अलावा पहले हिब्रू बाइबल के संग्रह की जगह भी माना जाता है। इस इलाके में यहूदी, ईसाई और इस्लाम धर्म के पवित्र स्थल हैं। यह इलाका अलग-अलग काल में विभिन्न राजशाहियों के नियंत्रण में रहा है, इसलिए यहां विविधता भी है।

19वीं सदी में बढ़ते यहूदी विरोध के कारण यहूदी राष्ट्रीय आंदोलन जियनवाद का उदय हुआ। उसके बाद विदेशों में रह रहे यहूदियों के वापस लौटने की मांग तेज होने लगी। दूसरे अरब देशों से यहूदी भागकर इस्राएल में पहुंचने लगे और इस्राएल के इलाके के मुसलमान भागकर दूसरे देशों में जाने लगे। इस प्रस्ताव से तनाव बढ़ गया और गृहयुद्ध शुरू हो गया, जिसका अंत इस्राएल की स्थापना और लाखों फलीस्तीनियों के विस्थापन के साथ हुआ।

पहले विश्वयुद्ध के दौरान ब्रिटेन ने सार्वजनिक रूप से यहूदी राष्ट्र बनाने की बात स्वीकार की और संयुक्त राष्ट्र की पूर्ववर्ती संस्था लीग ऑफ नेशंस ने उसे इस मकसद से फिलीस्तीन पर शासन करने का मैंडेट दिया। इसके खिलाफ एक अरब राष्ट्रवाद का भी उदय हुआ जिसने ऑटोमन साम्राज्य के उन हिस्सों पर अधिकार का दावा किया और फिलीस्तीन में प्रवासी यहूदियों की वापसी को रोकने की कोशिश की। इसकी वजह से अरब यहूदी तनाव में इजाफा शुरू हुआ।

अरब लीग ने संयुक्त राष्ट्र की योजना को मानने से इंकार कर दिया और पूरे फिलिस्तीनी इलाके में अरबों के आत्मनिर्णय के अधिकार का दावा किया। हइफा से ब्रिटिश सेना के हटने के बाद अरब देशों की सेना फिलीस्तीनी इलाकों में घुस गई और पहला अरब इस्राएली युद्ध शुरू हुआ। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जर्मनी में यहूदियों के नरसंहार में बचे लोग और युद्ध में शामिल रहे पूर्व सैनिक भी इस्राएल आए।

शुरुआती हार के बाद जुलाई से स्थिति बदली और इस्राएलियों ने अरबों को अपने इलाके से बाहर कर दिया और कुछ अरब इलाके भी जीत लिए। नवंबर के अंत में सीरिया और लेबनान के साथ संघर्ष विराम हुआ। वर्ष 1949 में इस्राएल ने लड़ाई के खात्मे के लिए पड़ोसी अरब देशों मिस्र, सीरिया, जॉर्डन और लेबनान के साथ संधि की।

इस युद्ध में अमेरिकी इशारे और मदद से जो तरीका इस्राइल ने अपनाया, उसी पैटर्न पर 1971 में अमेरिकी सहायता से पाकिस्तान ने भारत पर भी हवाई हमला किया था, जो नाकामयाब रहा और फिर युद्ध के बाद बांग्लादेश बना।

इस समय दुनिया की करीब आधी यहूदी आबादी इस्राएल में रहती है और उनकी कुल आबादी 90 लाख के लगभग बताई जाती है। वहीं 1948 के बाद से दुनियाभर में रहने वाले फिलीस्तीनियों की तादाद बढ़कर नौगुना हो गई है। फिलीस्तीनी इस्राएल की स्वतंत्र देश के रूप में घोषणा को आपदा के दिन ‘नकबा’ के रूप में मनाते हैं।

फिलीस्तीनी सांख्यिकी कार्यालय के अनुसार ऐतिहासिक फिलीस्तीन में 14 लाख फिलीस्तीनी रहते थे, जिनमें से 8 लाख को भागना पड़ा। लगभग 2 लाख फिलीस्तीनी 1967 में हुए छह दिवसीय इस्राएल अरब युद्ध के बाद भागे।

इस समय दुनियाभर में रहने वाले फिलीस्तीनियों की संख्या लगभग 1 करोड़ 34 लाख बताई जाती है। संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के अनुसार, इनमें 56 लाख शरणार्थी हैं जो जॉर्डन, सीरिया, लेबनान और फलीस्तीनी इलाकों के शरणार्थी शिविरों में रहते हैं।

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