वसीम अख्तर
क्या हुस्न ने समझा है क्या इश्क ने जाना है, हम खाकनशीनों की ठोकर में जमाना है. यह और इस तरह के बेशुमार यादगार शेर लिखने वाले जिगर मुरादाबादी छह अप्रैल 1890 को मुरादाबाद जिले के ऐसे घराने में पैदा हुए, जहां उन्हें शायरी विरासत में मिली. परदादा, दादा के अलावा वालिद भी शेर पढ़ने और लिखने के शौकीन थे. जिगर साहब की शख्सियत की सबसे खास बात यह कि शायरी को रजवाड़ों-नवाबीन की दहलीज से निकालकर अवामी स्टेज तक लाए. तब शायरी शायरों की आमदनी का जरिया बनी.
सदियों तक याद रखे जाने वाले शेरों के साथ ही जिगर मुरादाबादी के कई किस्से भी बेहद मशहूर हैं. उनके बटुवे का किस्सा भी लोग अपनी-अपनी तरह से सुनाते हैं. द लीडर ने इसे लेकर अंतरराष्ट्रीय शायर प्रोफेसर वसीम बरेलवी से बात की. वसीम साहब ने बताया कि जब उनकी उम्र नौ साल की रही होगी तो एक दिन रामपुर में जिगर मुरादाबादी से मुलाकात का शर्फ हासिल हुआ. वह रामपुर नुमाईश के मुशायरे में शिरकत के लिए आए हुए थे. हमारे वालिद (पिता) से उनके अच्छे ताल्लुकात थे.
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तब तक शायरी से मेरा (वसीम बरेलवी का) जुड़ाव हो चुका था. जिगर साहब के लिए चाय लेकर गया तो वालिद ने मेरा लिखा एक शेर उन्हें दिखाया. पढ़कर हंसे और पूछा, यह बच्चा पढ़ने में कैसा है? वालिद ने जवाब दिया-फर्स्ट आता है. तब जिगर साहब ने सिर पर हाथ रखा. कहा-शायरी के लिए उम्र पड़ी है, अभी पढ़ाई करो. उनकी नसीहत पर अमल करते हुए ग्रेजुएशन के बाद बकायदा शायरी शुरू की.
वसीम साहब जिगर मुरादाबादी के बारे में बताते हैं कि उस दौर के शायरों में वह सबसे बड़ा नाम थे. पहले शायर थे जिन्होंने इतनी ज्यादा शोहरत हासिल की. जिगर मुरादाबादी मुशायरों को डाइस तक लाए. तब तक नवाबीन के यहां महफिल होती थीं. गालिब और मीर तक वहीं पढ़ा करते थे. मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर ने तो जोक को अपना उस्ताद बना लिया था. गालिब भी नवाब रामपुर के यहां लंबे समय तक रहे. उन्हें रामपुर में ही रहने के लिए नवाब ने घर भी दे रखा था.
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जिगर मुशायरे को अवाम के बीच लाए. अपनी कीमत तय की. वह अपने जमाने के सबसे महंगे शायर थे. फिर भी उन्हें मुशायरों से फुर्सत नहीं मिलती थी. महीनों के हिसाब से सफर किया करते थे. किरदार को लेकर भी कई चीजें रहीं. खानकाही आदमी थे और शराब भी पी लेकिन जब छोड़ी तो उससे कतई मुंह मोड़ लिया. उनका एक किस्सा बहुत मशहूर है. बटुवा चोरी को लेकर. इसे लोग अपनी तरह से पेश करते हैं.
प्रोफेसर वसीम बरेलवी ने द लीडर को बताया कि नौचंदी के मुशायरे से लौटते वक्त जिगर साहब अपने दोस्त बागपत नवाब के यहां ठहरे थे. रात में नवाब साहब से अलविदा ली लेकिन गए नहीं. सुबह जब नवाब साहब सोकर उठे तो जिगर साहब उनसे मिलने पहुंचे. उन्होंने पूछा आप गए नहीं, जवाब देने के बजाय उन्हें घर के लोगों से अलग ले गए. कहा-50 रुपये दीजिए. नवाब साहब चौंक गए, इसलिए क्योंकि जिगर साहब ने पहले उनसे कभी पैसे नहीं मांगे थे. नवाब साहब को यह भी पता था कि जिगर साहब कई मुशायरों में होकर आए हैं, उनके पास पैसे होने चाहिए थे.
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नवाब साहब को शक हुआ कि किसी नौकर ने कहीं उनका बटुवा तो नहीं चुरा लिया. पता किया कि जिगर साहब की खिदमत के लिए किसे लगाया गया था. उसे बुलाया गया. सख्ती से पूछने पर उसने कुबूल कर लिया कि जिगर साहब का बटुवा चुरा लिया था. तब नवाब साहब खुद चलकर जिगर साहब के पास पहुंचे और बटुवा वापस किया. उसमें काफी पैसे थे.
जिगर साहब ने बटुवा लेते हुए पूछा, यह आपको कहां मिला. नवाब साहब ने जवाब दिया, उसी के पास जिसने इसे चुराया था. जिगर साहब ने फिक्रमंद होते हुए सवाल किया, बटुवा चुराने वाले को मारा तो नहीं. नवाब साहब के मुंह से यह सुनकर कि बगैर सख्ती किए चोर मुंह नहीं खोलता, जिगर साहब ने तीन बार यह कहा-आपने उसे तकलीफ पहुंचाई. मैंने तो इसी डर की वजह से कि कहीं नौकर को कोई पीटे नहीं, बटुवा चुराते देखकर उसे कुछ कहा नहीं. इसी किस्से को लोग तांगे वाले से जोड़कर सुनाते हैं.
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खैर जिगर मुरादाबादी अपने दौर के बहुत बड़े शायर थे. इस बात की दलील उनका कलाम है, जिसे आज भी उसी जोक-ओ-शौक के साथ सुना जाता है. जिगर साहब अपने मुल्क भारत से बेपनाह मुहब्बत करते थे. यही वजह रही कि बहुत अच्छी पेशकश मिलने के बाद भी पाकिस्तान नहीं गए.
फिल्मी दुनिया में जाने के लिए भी दबाव बने लेकिन वहां जाना भी कुबूल नहीं किया. इस शेर से-”दिल को सुकून रूह को आराम आ गया, मौत आ गई कि दोस्त का पैगाम आ गया.” मौत को इस अंदाज में बयां करने वाले जिगर मुरादाबादी ने नौ सितंबर 1960 में दुनिया को अलविदा कह दिया.