‘मादथी’: एक ‘अदृश्य जाति’ की लहूलुहान कहानी

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मनीष आज़ाद-

अछूत जाति से भी नीचे एक ऐसी जाति है, जिसका दिखना मना है (unseeables)। इन्हें अपना सारा काम रात के अंधेरे में निपटाना होता है ताकि दिन में ये किसी अपने से ऊंची जाति के लोगों के सामने न पड़ जाय और फलतः उनके क्रोध और धार्मिक दंड का शिकार न हो जाय। पिछले साल आयी तमिल फिल्म ‘मादथी’ (Maadathy: An Unfairy Tale ) तमिलनाडु की ऐसी ही एक जाति ‘पुथिरै वन्नार’ (Puthirai Vannars) में पैदा हुई 14-15 साल की लड़की ‘योसाना’ की एक त्रासद लोककथा के माध्यम से भारतीय समाज के सीवर के ढक्कन को उठाती है और जाति की सड़ांध के साथ-साथ सतह के नीचे बह रहे जहर को भी बखूबी सामने लाती है।

इस फ़िल्म की डायरेक्टर लीना मनीमेकलाई (Leena Manimekalai) युवा कवि और एक्टिविस्ट भी हैं। इसका प्रभाव उनकी इस फ़िल्म में बखूबी दिखता है, जहां फ़िल्म सामान्य ‘नरेशन’ की बजाय फ्रेम दर फ्रेम अलग अलग रंग की कविता में आगे बढ़ती है, जो कभी तो आंखों को सुकून देती है लेकिन प्रायः आंखों के रास्ते हमारे अंदर उतर कर विस्फोट भी करती है और हमारी धर्म, नैतिकता, सभ्यता की चिंदी-चिंदी उड़ा देती है।

योसाना, उसके मां-पिता और दादी को गांव से दूर जंगल के करीब एक छोटी नदी के किनारे बसाया गया है। यहाँ रहकर वे अपने से ऊंची जाति के कपड़े धोते हैं, जिसमे महिलाओं के माहवारी के कपड़े भी होते हैं। इन कपड़ों को नदी किनारे पत्थर पर धोते समय एक तरफ पानी रक्तिम हो रहा होता है दूसरी तरफ योसाना की मां का गुस्सा यह बताता है कि इस अन्याय को हम कब तक ढोएंगे। फ़िल्म की डायरेक्टर लीना मनीमेकलाई के शब्दों में, जो इस ब्रह्मांड की अशुद्धियों की धुलाई कर रहा है, उसे ही समाज अशुद्ध मान रहा है।

इस दृश्य से तुरंत पहले ही ऊंची जाति के एक व्यक्ति ने योसाना की मां से इसी नदी के किनारे बलात्कार किया था। लेकिन यह इतनी ‘नार्मल’ घटना है कि कुछ भी नही रुकता। न नदी रुकती है न हवा रुकती है। यहां तक कि उसका कपड़ा धुलना भी नहीं रुकता। वह इतना ही कर सकती है कि अपना गुस्सा इन कपड़ों पर निकाले और इन्हें पत्थर पर पटकते पटकते फाड़ दे। फ़िल्म में यह फ्रेम बहुत ही पावरफुल है।

हमने अब तक यही सुना है कि राज्य की हिंसा की मूकदर्शक बनने के कारण हमें नदी से शिकायत हैं (पाल रॉबसन)। लेकिन यहां ये छोटी छोटी नदियां हजारों सालों से दलित महिलाओं के प्रति हो रहे अत्याचारों की साक्षी हैं, लेकिन आज तक इनका पानी लाल नही हुआ। आज तक ये सूखी नहीं।

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बहरहाल योसाना की मां को अब योसाना की चिंता है। उसे इन गिद्ध निगाहों से कैसे बचाये। ‘पुथिरै वन्नार’ जाति में जन्म के समय लड़की को मारने की प्रथा है। लेकिन यह प्रथा उच्च जाति के लोगों की तरह पुत्र की चाहत के कारण नहीं है, बल्कि लड़कियों को ऊंची जाति के सेक्सुअल अत्याचारों से बचाने के लिए है।

यही बात याद दिलाकर वह योसाना को कोसती है और उससे ‘जिम्मेदार’ बनने की अपील करती है। लेकिन योसाना अभी अपनी जाति परंपरा में ढली नहीं है और न ही ढलना चाहती है। वह तो प्रकृति का हिस्सा है। जंगल पहाड़ नदी पशु-पक्षी उसके दोस्त हैं। अभी उसने ‘सभ्यता के राजमहल’ में प्रवेश नहीं किया है। अभी वह खुद की तलाश में है। इसी तलाश की प्रक्रिया में नदी में नंगे नहाते एक लड़के को देखक पहली बार उसे अपनी यौनिकता का अहसास होता है।

तमिल फिल्म में शायद पहली बार पुरुष नग्नता को दर्शाया गया है। लेकिन यहीं पर सेक्स के प्रति परंपरागत पुरुष नजरिए (male gaze) और स्त्रीवादी नज़रिए (female gaze) का फर्क साफ नजर आता है। यहां लीना मनीमेकलाई के कैमरे का फोकस पुरुष नग्नता की डिटेलिंग पर नहीं, बल्कि योसाना की आंखों से होते हुए उसके अंदर की उस आदिम जिज्ञासा पर है, जिस पर अभी सभ्यता और बाजार की चाशनी नहीं चढ़ी हैं। बहरहाल अपने से ऊंची जाति के गांव के इस युवक को योसाना मन ही मन चाहने लगती है और उसकी एक झलक के लिए बेताब रहती है।

फ़िल्म इस तरह टर्न लेती है कि जिस रात गांव में देवी मादथी की स्थापना हो रही है, उसी रात योसाना अपनी हद लांघ कर उसी लड़के की एक झलक पाने चुपके से गांव के अंदर दाखिल हो जाती है। इस प्रक्रिया में गांव के पांच लड़कों द्वारा गैंग रेप का शिकार हो जाती है। पांचवा लड़का वही है, जिसे वह मन ही मन चाहने लगी थी। यहां पर अंधेरे में स्क्रीन पर योसाना की महज एक आंख उभरती है और इस पांचवें युवक को देखकर उसकी इस आंख में जो दर्द और बेबसी उमड़ती है, मानो वह सब कुछ अपनी एक आंख रूपी ‘ब्लैक होल’ में खींच लेती है। फिर कुछ नहीं बचता- न धर्म, न नैतिकता न सभ्यता न मानवता और न ही यह फ़िल्म।

अभी एक चमत्कार बाकी था। बलात्कार के कारण योसाना की मृत्यु के बाद बहुत तेज़ बारिश हुई। सब कुछ तबाह हो गया। उस सैलाब में सब कुछ बह गया। गांव के सभी लोग अंधे हो गए और अचानक ही देवी मादथी का चेहरा योसाना के चेहरे में बदल गया। फ़िल्म की टैगलाइन आंखों में चुभने लगी- ‘भारत में हर देवी के पीछे औरतों के प्रति अन्याय-अत्याचार-क्रूरता की अनंत कथाएं हैं।’


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