सामुदायिक प्रतिरोध की फिल्म कर्णन: दर्शक के नजरिए से समीक्षा

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जेएस विनय-

कर्णन सिर्फ एक फिल्म नहीं है, यह इतिहास है। यह 1990 के दशक में तमिलनाडु में कोडियाकुलम जातिगत दंगों पर आधारित है। यह शायद भारत में बनी ‘सामुदायिक प्रतिरोध’ की पहली फिल्म है। फिल्म उन अत्याचारों के बारे में दिखाती है जो दलितों-उत्पीड़ितों को अक्सर झेलने पड़ते हैं।

ब्रह्मपुरी में उस समय दलितों और शिवसेना के लोगों के बीच भयानक जातिगत दंगे हुए थे, ठीक मेरी आंखों के सामने। फिल्म में वास्तव में वही है जो उस समय हमने देखा। जैसे मिर्ची पाउडर, पत्थर, ईंट से घरों की रक्षा करने वाली महिलाएं। दंगाइयों से बचने को जो संभव था उसका इस्तेमाल किया। मेरी दादी, मां, मामा, मामी, सब समुदाय के लिए जूझे। हर कोई कर्णन था, सिर्फ एक व्यक्ति नहीं।

कर्णन में मैंने अपनी बस्ती को देखा। मैंने भी अपने आदमियों को अपनी आंखों के सामने पुलिस से पिटते देखा था। उस समय मैं एक छोटा बच्चा था। जब थाने में फिल्म में समुदाय के लोग पिटते, वैसे ही सिसकते-रोते, मुझे सब कुछ याद था। वे कठिन समय थे और यहां तक कि दुकानदारों ने हमें जरूरी सामान नहीं दिया, बहिष्कार कर दिया था। जरूरत के लिए दस किलोमीटर पैदल तक जाना पड़ा।

फिल्म में दुष्ट इंस्पेक्टर की तरह हमारे समय भी जातिवादी पुलिस अफसर था। शायद उसका उपनाम शुक्ला था। मैं बस इतना चाहता था कि कर्णन (धनुष) उसका सिर काट दे क्योंकि उसने मुझे पुलिस के खिलाफ गुस्सा दिलाया था। क्लाइमेक्स में मैंने वास्तव में अपनी मुट्ठी भींच दी थी।

धनुष ने फिल्म में शानदार काम किया है, अन्य कलाकारों का अभिनय भी बेजोड़ है।

फिल्म देखने के बाद मैंने एक और काम किया कि फोन गैलरी में मेरी कुछ तस्वीरें, जिसमें ब्रम्हपुरी में बुद्ध विहार के अलावा हमारे घर के सामने प्रतिष्ठित ध्वज। वो झंडा हमारे प्रतिरोध और दंगों के दौरान जीत का प्रतीक था। मेरी आंखों से आंसू निकल आए और मैंने मोबाइल की तस्वीर को चूम लिया।


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