महमूद दरवेश-
गाज़ा शहर
मैं उजास कमरे में बैठता हूं
एक चौकी पर
जिस पर एक भूरा कंबल बिछा होता है
इंतजार करता हूं मुअज्जिन का
कि खड़ा हो सकूं
नमाज पढ़ने के लिए
अजान की आवाज
मेरी खिड़की से आती है
और मैं उन सभी लोगों के बारे में
सोचने लगता हूं
जो नमाज में झुक रहे होंगे
हर बार कम हो रहा होगा
उनके मन का भय
हर बार एक नई उदासी
घर कर रही होगी
उनकी आत्मा में
क्योंकि उनके बच्चे
गलियों में खड़े हैं
पंक्तिबद्ध
कैदियों की तरह
मौत के शिविर के
मैं अपनी टूटी हुई खिड़की की ओर बढ़ता हूं
मेरा सिर थोड़ा झुकता है
और एक झलक लेने की कोशिश करता है
भूतों के इस शहर की
जो मारे गये हैं
अपनी कब्र के संकरे दरवाजे से
आते-जाते हैं
ठंडी दीवार से सटा है
मेरे चेहरे का दाहिना हिस्सा
और मेरा हाथ
मैं छुप जाता हूं फूहड़ की तरह
शर्मिंदा
मैं अपने हल्के नीले चोगे का कालर
इतनी जोर से खींचता हूं
कि वह फट जाता है
और एक ओर झूल जाता है
जैसे हम सबकी
जिंदगियां झूल रही हैं
मेरे नाखून
मेरे ही मांस में धंस जाते हैं
और मैं अपने को ही भींच लेता हूं
मेरी छाती पर नाखून के
तीन निशान बन जाते हैं
तीन बातें मेरे दिमाग में आती हैं
मैं सोचता हूं
कि क्या इस मलबे में खुदा दब गया है
हर घर एक कैदखाना है
और हर कमरा एक पिंजरा
देबके अब जिन्दगी में शामिल नहीं है
सिर्फ शवयात्राएं हैं
गाजा यह नगरी
गर्भवती है लोगों से
और कोई उसके दर्द में मदद नहीं करता
कहीं सड़क नहीं है
अस्पताल नहीं है, स्कूल नहीं है
हवाई अड्डा नहीं है
सांस लेने को हवा तक नहीं है
और मैं यहां एक कमरे में बंद हूं
खिड़की पर खड़ा
असहाय, अनुपयोगी
अमेरिका में मैं
टेलीविजन देख रहा होता
सीएनएन को सुन रहा होता
कि इजरायल मांग कर रहा है
कि आतंकवाद खत्म होना चाहिए
यहां मैं जो कुछ देख रहा हूं
वह पीड़ा का आतंक है
और बच्चे हैं जो नहीं जानते कि वे बच्चे हैं
मिलोसेविच को कुचल दिया गया
पर शैरोन का क्या होगा
अंततः मैं कपड़े पहनकर तैयार होता हूं
खिड़की के सामने तनकर खड़ा हो जाता हूं
और गले में थूक अटकने लगता है
जैसे ही गोली बारी शुरू होती है
एफ-16 विमान
रोज की तरह वहां से गुजरते हैं
अनुवाद – रामकृष्ण पाण्डेय