अभिषेक श्रीवास्तव-
जब पहली लहर आई तो आकाश में बिजली चमकी और धरती की बिजली गुल हो गई। सर्वत्र अंधेरा छा गया। दूसरी लहर सुनामी जैसी थी। बड़ी-बड़ी लहरें बड़े-बड़े भवनों-प्रासादों को लील गईं। ये सब सुनाई दिया, दिखाई दिया, डर भी लगा, लेकिन लोग खुद के बच जाने को लेकर मुतमईन रहे।
तीसरी लहर में आई महामारी। शहरों के बीच लाशों और बीमारों के ढेर बिछ गए। सबसे बूढ़े और अशक्त मारे गए। मां-बाप मरने लगे, तब जाकर लगा कि मामला थोड़ा करीबी है। तीन लहरों को एक के बाद एक झेलते हुए इस बात का इलहाम ही नहीं हुआ कि मनुष्यता के गर्भ के भीतर पल रहे या स्कूलों के भीतर नागरिकों में ढल रहे भविष्य में आगामी लहरों के बीज छुपे हो सकते हैं।
इस बीच उन्हें गलत इतिहास पढ़ाया गया। उनकी जातीय और सामूहिक स्मृतियों को साफ कर दिया गया। नई स्मृतियां प्लांट कर दी गईं, जैसा Inception(2010) में दिखाया था। अपने यहां इसके लिए किसी नोलान या एलन मस्क या टेस्ला की जरूरत नहीं पड़ी। देसी तरीके से मानव मस्तिष्क के भीतर अमानवीय भूसा भरा गया।
चौथी लहर आनी थी, सो आई। इस लहर के वाहक खुद इंसान थे, अदृश्य वायरस या एलियन नहीं। ये नई और जवान पौध थी जिसे भरोसा दिलाया गया था कि उसका काम जंगल को ही समाप्त करना है क्योंकि वह शुद्ध नहीं है, संक्रमित है। आज के हिसाब से समझिए, तो ये विशेष टीकाधारी लोग थे जिन्हें उनको निपटाना था जो आम टीका लगवाए या बिना लगवाए संक्रमण लिए घूम रहे थे।
हांं, उन्हें यदि समझाया जाता बैठ कर कि तुम भी अपने ही जैसे मनुष्य हो, तो वे बेशक समझ जाते क्योंकि उनकी जड़ें अब तक सलामत थीं। बस, समझाने का धैर्य चाहिए था, जो मारे जा रहे लोगों में बचा नहीं था क्योंकि उन्हें भी भरोसा दिलाया जा चुका था कि ये चारों लहरें किसी ‘अन्य’ की पैदा की हुई हैं।
चूंकि जनता पहले से ही जाति, धर्म, वर्ग, विचार और हितों के चश्मे से दुनिया देखने की आदी थी, तो हर तबके के लिए ‘अन्य’ का मायना कुछ और था। इस तरह आदमी खुद को बचाने के लिए दूसरे को ‘अन्य’ समझ के मारता गया। इस लहर में नौजवान और अधेड़ ज्यादा मारे गए। ये खेल बहुत दिन नहीं चल सका क्योंकि कुछ लोगों को समझ में आने लगा कि ‘अन्य’ कोई और नहीं, बाहरी नहीं, अपने ही थे।
तब अचानक पांचवीं लहर आई। ये लहर दरअसल खुद पांचवीं पीढ़ी थी, अपनी ही संततियां, जिन्हें हम ‘अन्य’ के चक्कर में पालना-पोसना भूल गए थे। उन्हें किसी ने मनुष्य से ज़ॉम्बी बना दिया था। उन्हें बस इतना बताया गया था कि ‘अन्य’ को कैसे पहचानना है। बस, चश्मे का खेल था। असली चश्मा। बंदूक के आगे लगे इस चश्मे से देख कर पता लगता था कि कौन पराया है, कौन नहीं।
एक बार बंदूक उठा ली तो फिर सामने हर बचा हुआ शख्स ‘पराया’ ही दिखता था। इस लहर में बच्चे मारे गए। शायद ऐसे ही किसी पल में पांचवीं लहर के किसी वाहक बालक को अहसास हुआ होगा कि जो ‘अन्य’ भूकंप ला सकता है, महामारी ला सकता है, सुनामी ला सकता है, आखिर वह इतना कमजोर कैसे हो सकता है कि एक बंदूक से डर के जान की भीख मांगे? कहीं कुछ तो गड़बड़ है! मरने और मारने वाले के बीच बात खुल गई। पता चला कि ‘पराया’ तो कोई था ही नहीं, ये सब तो बस सिखाया गया था। दोनों तरफ। और ये सब चश्मासाज़ का खेल था।
अचानक ज़ाॅम्बी से मनुष्य बना जीव सवाल करने लगा: “तुम्हारी असलियत जान गया हूं मैं! क्यों? आखिर इस सब का मतलब क्या है? और हमने ऐसा किया क्या है कि हमारे साथ ऐसा तुम कर रहे हो? इससे तुम्हें क्या हासिल होता है?” जवाब में चश्मासाज़ ने कहा- “कुछ नहीं, सिवाय इसके कि हमें वो जगहें कब्जानी हैं जिनकी हमें जरूरत है। हम कोई अलहदा लोग नहीं हैं, दोस्त। मेरी जगह तुम भी होते तो ऐसा ही करते!” नए-नए मनुष्य ने कहा- “कतई नहीं, मैं तुम्हारी तरह पूरी की पूरी प्रजाति को साफ नहीं कर देता!” चश्मासाज़ का आखिरी वाक्य कहानी का दार्शनिक पक्ष खोलता है: “बेशक करते, क्योंकि यही तो तुम सदियों से करते आ रहे हो…।“
(अभिषेक श्रीवास्तव जनपक्षधर पत्रकारिता और लेखन की दुनिया में जानी मानी शख्सियत हैं)