बाबा फरीद के चिंतन की परंपरा उनके कलाम में सादगी बेजोड़ है। बाबा फरीद ने सिखाया कि देहातों में दूर जाया जाए। अपने आप को दांव पर लगाया जाए। यह सिलसिला बाद की रचनाओं में भी दिखाई देता है।
बाबा फरीद की वैचारिक जमीन के ऊपर शाह जब किस्सा हीर लिखते हैं तो वो चिनाब दरिया में छलांग लगाते हुए रांझे को और उसे विस्तार देते हुए बड़े नाटकीय ढ़ंग से उसे दिखाते हैं कि क्या हुआ? कैसे वह नहीं जा पाया और कैसे उसे ले जाया गया। यह कितना मुश्किल है।
पाकिस्तान से नज़म हुसैन सैयद साहब, प्रोफ़ेसर किशनसिंह ने इन चीजों को विधिवत तरीके से अध्ययन किया है।
मैं भी झोक रांझण दी जाणा, नाल मेरे कोई चल्ले।
नै भी डूंगी तुला पुराणा, सिहां दा पत्तण मल्ले।।
उन्होंने ऐलान किया कि मुझे रांझण की झोक जाना है, क्या कोई मेरे साथ चलने वाला है। नै भी डूंगी मतलब उसका तट बहुत गहरा है। ऐसे ही नहीं जाया जा सकता। तुला पुराणा मतलब पुल पुराना है, जोकि मेरा वजन सहन नहीं कर पाएगा। इसलिए डूबना तय है। सिहां दा पत्तण मल्ले। जहां पर पर वह उथला है, वहां पर शेर काबिज हैं। तीनों लिहाज से मौत लाजिम है। लेकिन रांझे की झोक मुझे जरूर जाना है। मेरा उनसे इकरार हुआ है।
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वारिस शाह का दौर 18वीं सदी के पंजाब में बंदाबहादुर का समय है। मुगलों का राज कमजोर हो रहा था। पंजाब के अंदर बगावतें उठ रही थीं। हरियाणा में किसान विद्रोह उठ रहा था। नई ताकतें खड़ी हो रही थीं। उस वक्त चिश्तिया सिलसिले के वारिस शाह लिखते हैं-
मौदूद दा लाडला पीर चिश्ती, शकर-गंज मसउद भरपूर है जी ।
ख़ानदान विच्च चिश्त दे कामलियत, शहर फकर दा पटन मामूर है जी ।
बाहियां कुतबां विच्च है पीर कामल, जैंदी आजज़ी ज़ुहद मनज़ूर है जी ।
शकर गंज ने आण मुकाम कीता, दुख दरद पंजाब दा दूर है जी।
वारिस शाह इसमें चिश्ती सिलसिले की पूरी जानकारी दे रहे हैं। मौदूद साहब के बारे में माना जाता है कि चिश्तिया सिलसिले की शुरुआत उन्होंने की थी। अफगानिस्तान-पाकिस्तान की सीमा पर उनकी दरगाह बताई जाती है।
अंत में वे एक लाइन कहते हैं-
शकरगंज ने आण मुकाम कीता
दुख-दर्द पंजाब दा दूर है जी।
शकरगंज ने मुलतान या पाकपटण आकर जब मुकाम किया, तब कहीं जाकर पंजाब का दुख-दर्द दूर होना शुरू हुआ। इस पंक्ति में उनकी अकीदत दिखती है।
अक्सर हर जुबान पर उनका श्लोक आता है, जिसे इन सूफियों ने सादगी और ऐलानिया ढंग में कहा-
दिलों मोहब्बत जिन, सेई सच्चिया
जिन मन हौर, मुख हौर कांडे कच्चिया।
जिनके दिलों में मुहब्बत है, वहां सच्चाई है। जिनके मन और मुख में प्रेम नहीं है, वे तो कच्चे बर्तन के समान हैं।
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कबीर बाबा फरीद से 100 साल बाद हुए। गुरुग्रंथ साहब में कबीर की भी कुछ ऐसी ही बाणी शामिल हैं, जो कि बाकी हिंदी में दिखाई नहीं देतीं। लोगों को पता भी नहीं है कि ये कबीर के श्लोक या शब्द हैं, जो गुरुग्रंथ साहब में है। एक जगह उनकी बाणी आती है–
कबीर जो तुध साध पिरमकी,
तो सीस की बनाय लियो गोय।।
खेलत-खेलत हाल कर,
जो होय से होय।।
कबीर शीश की गेंद बना लेने की बात करते हैं। उससे खेलने को कहते हैं, चाहे चिंदी-चिंदी हो जाए हो जाए। सब देखा जाएगा। यहां भी चुनने की बात ही है। गुरुनानक उसे कहते हैं-
जो तौ प्रेम खेलण का चाउ।
सिर धर तली गली मेरी आउ।।
सिर को उतारो और अपनी हथेली पर लेकर आओ, यदि प्रेम का खेल खेलना है।
वारिस शाह की रचना को अक्सर लोग सिर्फ लड़के-लड़की के इश्क की दास्तान समझते हैं। जबकि वे अध्यात्म और इश्क के मुकाम इस जरिए समझाते हैं। प्यार के लिए शहीद भी होते हैं। हीर को शहीद माना गया है। वह कहते हैं-
सिर दित्तयां बाज ना इश्क पक्के।
ऐ नहीं सुखालियां यारियां वे।।
इश्क को पकना चाहिए। ऐसे ही नहीं है वो। ये दोस्तियां आसान नहीं हैं। सिर देने के बाद ही यह पकेंगी। ‘दिलों मोहब्बत जिन, सेई सच्चिया’, मोहब्बत और सच्चाई की परीक्षा यह है कि क्या आप अपने अकीदे के लिए सिर देने के लिए तैयार हो या नहीं।
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पंजाब की वैचारिकी की बुनियाद तीन लोगों ने रखी है। बाबा फरीद गंजेशकर फरीदुद्दीन, कबीर और गुरुनानक। तीनों का सबसे खूबसूरत कलाम गुरु गंथ साहब में मौजूद है। उन्होंने बताया कि हमें रहना कैसे है। इश्क में मुब्तिला होकर रहना है। सच्चाई को इसी के माध्यम से हासिल कर किया जा सकता है। आपके लिए कोई भी बेगाना नहीं है। दूसरे के लिए कुर्बान हो जाना है।
शहीद होने पर इतना बल है कि शाह कहते हैं-
शाह हुसैन शहादत पाए ओ।
जो मरण मित्रां दे अग्गे।।
वे लाहौर में यह कह रहे हैं। गुरु अर्जुन साहब उन्हीं के समकालीन हैं, वे इधर अमृतसर में कहते हैं-
जिस प्यारे सौं नेह, तिस आगै मर चलियै।
बाबा फरीद, शाह हुसैन और वारिस शाह, बाद में गदरियों (गदर पार्टी वाले) को और फिर भगत सिंह। पंजाब में जान हथेली पर रखकर इश्क कमाया गया। इश्क की मंजिलें उन्होंने तय कीं। इश्क के लिए एक तड़प दिखाई देती है उनमें।