हसरत मोहानी पुण्यतिथि: कट गया कै़द में माहे-रमजान भी ’हसरत’, गरचे सामान, सहर का था न अफ़तारी का

0
729
सुधीर विद्यार्थी-

1904 में बंबई कांग्रेस की बात है। हसरत मोहानी उसमें डेलीगेट बन कर पहुंचे। याद किया जाना कि यह वह दौर था जब किसी मुसलमान का कांग्रेस के अधिवेशन में हिस्सेदारी करना आश्चर्यजनक था। सर सय्यद अहमद का रास्ता कुछ और था और उस पर चलने वाले नवाब मोहसिनुल-मुल्क और नवाब बक़ारूल-मुल्क कांग्रेस के विरोध में खड़े हुए थे। पर हसरत का रास्ता इन सबसे अलग था। कंग्रेस के सूरत अधिवेशन में नरम और गरम दलों के बीच टकराव के बाद वे लोकमान्य तिलक के साथ हो गए।

यह एक तरह से कांग्रेस से उनका अलगाव था। वे कांग्रेस के नरमपंथियों और मुस्लिम लीग दोनों को हुकूमत का वफादार मानते थे और वे दोनों के विरोध में थे। ऐसे में इनका साथ निभ पाना नितांत मुश्किल था उनके लिए। तिलक भी मुकम्मल आजादी के पक्षधर थे।

1921 में हसरत मोहानी ने खुले अधिवेशन में गांधी और दूसरे कांग्रेस के नेताओं की राय के विरूद्ध ’मुकम्मल आजादी’ का प्रस्ताव पेश कर दिया। गांधी ने बहुत कोशिश की समझाने की। प्रस्ताव 23 के मुकाबले 36 मतों से गिर गया।

नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने इस पर कहा- ’मौलाना हसरत मोहानी के भाषण का श्रोताओं पर गहरा प्रभाव हुआ और ऐसा लगा कि मौलाना का मुकम्मल आजादी का प्रस्ताव मंजूर कर लिया जाएगा, लेकिन गांधी जी के विरोध की वजह से अधिवेशन ने इस प्रस्ताव को नामंजूर कर दिया।’


यह भी पढ़ें: क्यों गांधी की तरह बैठके कातेंगे चर्खा, लेनिन की तरह देंगे न दुनिया को हिला हम

यह भी पढ़ें:  अलीगढ़ कॉलेज की वह ‘खाला अम्मा’, जिन्होंने ब्रिटिश हुकूमत की चूलें हिला दीं


Hasrat Mohani District Central Library, Hydrabad, Pakistan

हसरत साहब पहली बार जेल गए थे 1908 में। उनकी पत्रिका में एक लेख छपा था ’मिस्र में बर्तानियां हुकूमत की पॉलिसी।’ इसमें लिखने वाले का नाम नहीं था, पर हसरत मोहानी ने संपादक होने के नाते सारी जिम्मेदारी खुद पर ले ली और जेल चले गए। दो साल की कैद और जुर्माना। जुर्माना नहीं भर पाए तो उनकी बेशकीमती किताबें नीलाम कर दी गईं।

बताया जाता है कि जैसे ही वे अदालत से जेल पहुंचे तो वहां का नजारा ही कुछ और था। उन्हें एक लंगोट, जांघिया, एक कुर्ता, टोपी, एक टाट का टुकड़ा, लोहे के दो तसले और कंबल दे दिया गया। इस परिस्थिति ने भी उन्हें जिंदगी के नए अर्थ सिखा दिए कि आदमी कितनी कम चीजों में अपनी जिंदगी को गुजार सकता है। उन्हीं दिनों का उनका एक शेर है-

’कट गया कै़द में माहे-रमजान भी ’हसरत’, गरचे सामान, सहर का था न अफ़तारी का।’

लेकिन उससे भी बड़ी बात यह है कि जब वे जेल गए तब उनकी बेटी नईमा बीमार थी। फिर भी उनकी बेगम ने घर से एक पुर्जे पर उन्हें लिखा- ’तुम पर जो उफ़ताद पड़ी है, उसे मर्दाना वार बर्दाश्त करो, मेरा या घर का बिल्कुल ख़्याल मत करना। खबरदार, तुमसे किसी किस्म की कमजोरी का इज़हार हो।’ उनकी बेगम का नाम था निशातुन्निसा। बड़ी बहादुर और खुद्दार औरत थीं। उनके मुकदमे की पैरवी के लिए अकेले भागती-दौड़ती रहीं। हिम्मत नहीं तोड़ी, न किसी नजदीकी से मदद मांगी।

Begham Nishatunnisha, wife of Hasrat Mohani pic: pintrest

पूरी जिंदगी फ़कीराना अंदाज में बिताने वाले हसरत कितने बड़े आदमी थे इसे वही जान सका जिसने उनके उसूलों और काम को देखा और परखा। हसरत मोहानी संसद के भी सदस्य रहे। पर उनके जिंदगी का ढर्रा फिर भी नहीं बदला। न गाड़ी ली, न बंगला, टेलीफोन और भत्ते भी नहीं। संसद के निकट की एक मस्जिद के छोटे-से कमरे में ठहर जाते। पास के किसी सस्ते होटल में खाना खाते। हाथ में जूट का एक थैला और उसमें भरे होते जरूरी कागजात। तो ऐसे थे हसरत।

जगन्नाथ आज़ाद ने कहा कि उन्होंने कई बार हसरत मोहानी को दिल्ली की सड़कों पर पैदल गुजरते देखा। एक बार पीछे से एक मोटर आई। हसरत मोहानी को पैदल देखा तो गाड़ी वाले ने पूछा- ’आप पार्लियामेंट जा रहे हैं। मैं भी वहीं जा रहा हूं। बैठ जाइए।’ पर हसरत थे कि अपनी रौ में रहते। उसमें नहीं बैठे और पैदल ही चलते चले गए।


निकाह फिल्म की मशहूर गजल, जिसे मशहूर गजल गायक गुलाम अली ने आवाज दी है- चुपके चुपके रात दिन आंसू बहाना याद है…., यह गजल हसरत मोहानी ने ही लिखी थी।

हसरत मोहानी ने कई बार विदेशी यात्राएं भी कीं, पर अपने उसी तामझाम के साथ। यानी एक मामूली दरी में लिपटा बिस्तर और टीन का बक्सा। पाकिस्तान गए तो वहां की सरकार के अनुरोध पर भी सरकारी मेहमान बनने से इंकार कर दिया और उस टूटे-फूटे मकान में रहे जो उनके दोस्त का था।

हसरत मोहानी बड़े-से-बड़े जलसे में जाते तो भी अपनी उसी धज में। पर वहां उन्हें जो भी देखता वही स्वागत में खड़ा हो जाता। कम्युनिस्ट पार्टी के प्रचार के लिए जाते तो किसी की साइकिल पर पीछे कैरियर पर बैठ कर गांव-गांव का सफर कर आते। चेहरे पर कोई थकान नहीं।

यह भी पढ़ें: भारत में चार मुस्लिम युवाओं ने दी प्रगतिशील साहित्य आंदोलन को हवा

1936 में लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ का अधिवेशन हुआ। इसकेे अध्यक्ष मुंशी प्रेेमचंद थे। हसरत मोहानी भी बुलाए गए। उन्हें प्रथम श्रेणी का किराया दिया गया तो बोले -’इतना क्यों दे रहे हो। मैं तो तीसरे दर्जे में सफर करता हूं।’ सो किराया और इक्के के पैसे जोड़कर लिए और बाकी वापस कर दिए।

ऐसा ही वाक्या एक बार अलीगढ़ का हुआ। कोई पूछ बैठा- ’आप तीसरे दर्जे में क्यों सफर करते हैं?’ जवाब दिया–’क्योंकि चौथा क्लास नहीं होता।’

एक बार जेल में उन्हें ओढ़ने के लिए विलायती कंबल दिया गया। रात भर ठिठुरते रहे, पर उसे ओढ़ा नहीं। वे विदेषी माल का इस्तेमाल नहीं करते थे। हसरत अपने जिद और उसूलों केे कड़े पाबंद थे। वे अफसरों और बड़े आदमियों के घरों पर दावत से परहेज करते थे।

एक किस्सा है- एक दिन कानपुर के लकड़ी के सौदागर उनसे मिलने उनके घर पहुंचे। हसरत उस समय फटे हुए टाट पर बैठे कुछ लिख रहे थे। पीछे एक पुराना पर्दा लटक रहा था। हसरत लिखते जाते और पर्दे के पीछे से कुछ निकालते और मुंह में रख लेते। साथ में गुड़ की डली भी। सौदागर कुछ समझ नहीं पाया। पूछा तो हसरत ने पीछे से मिट्टी की हांडी निकाली जिसमें पानी में भीगी हुई सूखी रोटी थी। बोले- ’खाओ। फकीरों का खाना रईस नहीं खा पाएंगे।’ सौदागर चुप्पी मार गया। ऐसा थी हसरत की जिंदगी की किताब।

Hasrat Mohani and Dr. Ambedkar

 

हसरत मोहानी की जिंदगी के अनेक रंग हैं। वे राजनेता तो अनोखे थे ही। जिंदगी फ़कीराना और पालिटिक्स उसूलों की। ऐसी कि धुर विरोधी भी उनके सामने सिर झुका दे। कांग्रेस के भीतर गांधी और नरमदलियों से मोर्चा लेने वाले वही अकेले शख्स थे।

आजादी के बाद जब देश का संविधान 6 जनवरी 1949 को संविधान सभा के समक्ष प्रस्तुत किया गया। पूछा गया कि क्या यह सभी को मंजूर है। हसरत मोहानी ने कहा कि ‘यह हमें मंजूर नहीं है’।

निधन से कुछ पहले हसरत मोहानी लखनऊ आकर फिरंगी महल में रहने लग गए थे। उन्हें दस्त की बीमारी लग गई थी जिसने उन्हें बहुत कमजोर कर दिया था। आखिरी वक़्त तक वे दिमागी तौर पर बिल्कुल दुरुस्त रहे। कभी हिम्मत नहीं हारी। न ही टूटे और झुके। उनकी आंखों में वह पैनापन हरदम बरकरार रहा जिसे लोगों ने उनके संघर्ष के दिनों में देखा-परखा था और वह खुद्दारी भी जिसने उन्हें ’फजलुल हसन’ से ’हसरत मोहानी’ बना दिया था।

(लेखक भारतीय के क्रांतिकारी आंदोलन पर ऐतिहासिक अंदाज में विशिष्ट साहित्य लेखन के लिए विख्यात हैं)

(आप हमें फ़ेसबुकट्विटरइंस्टाग्राम और यूट्यूब पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं)

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here