हसरत मोहानी पुण्यतिथि: अलीगढ़ कॉलेज की वह ‘खाला अम्मा’, जिन्होंने ब्रिटिश हुकूमत की चूलें हिला दीं

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सुधीर विद्यार्थी-

हसरत साहब का जीवन बहुत सादा और उदार था। धार्मिक होते हुए भी उनमें कट्टरता नाममात्र को नहीं थी। वे जब तक मुस्लिम लीग में रहे, जिन्ना से बराबर उनका मतभेद बना रहा। शायद लोकमान्य तिलक की विद्वता के प्रभाव में वे भगवद्गीता और श्रीकृष्ण प्रेमी भी बन गए। तिलक से उनका इतना लगाव था कि 1907 में जब सूरत कांग्रेस में तिलक उससे अलग हुए तो हसरत साहब ने भी कांग्रेस छोड़ दी। लोकमान्य के देहांत के बाद जब उनके फूल (अस्थियों) का कलश इलाहाबाद में त्रिवेणी संगम ले जाया जा रहा था, उस समय हसरत साहब ने आंसू बहाते हुए रूंधे हुए गले से केवल शेर फरमाए–

आलम में मातम क्यों न हो बरपा, दुनिया से सिधारे आज तिलक….

जब तक वह रहे दुनिया में रहा, हर एक दिल पर काबू उनका।

अब होके नजर से पोशीदा, रूहों पे करेंगे राज तिलक।

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हसरत का बचपन मोहान में बीता। वहीं प्रारंभिक शिक्षा हुई। स्कूली पढ़ाई फतेहपुर में हुई। फिर कालेज में दाखिल हुए अलीगढ़ में, जहां से 1903 में उन्होंने बीए किया। छात्र जीवन में हसरत साहब साहित्यिक-राजनीतिक आंदोलनों में हिस्सेदारी करने लगे थे। इसी से वे कालेज से निकाले गए। उनमें प्रतिभा थी, जो विद्यार्थी जीवन में ही रंग ले आई।

अपना पत्र ’उर्दू-ए-मुअल्ला’ निकालना शुरू किया। पहला अंक छपा जुलाई 1903 में। इस पत्र के माध्यम से उन्होंने साहस और जोश से साहित्यिक, राजनीतिक और धार्मिक मसलों पर अपने विचारों को छापा और स्वदेशी का जमकर प्रचार किया। सन् 1908 में इसी पत्र में मिस्र में अंग्रेजों की तालीमी पॉलिसी’ लेख लिखने के कारण उन पर राजद्रोह का मुकदमा चला।

23 जून 1908 को वे पकड़कर कारागार में डाल दिए गए। दो साल की सजा और पांच सौ रूपए का जुर्माना। जेल जीवन की इसी कहानी को हसरत साहब ने लिपिबद्ध करके ’उर्दू-ए-मुअल्ला’ में तेरह भागों में प्रकाशित किया। उन्होंने लिखा है कि जेल में उन्हें प्रतिदिन एक मन गेहूं पीसना पड़ता था। अपनी प्रसिद्ध कविता ’चक्की की मशक्कत’ उन्होंने उन्हीं दिनों लिखी थी–

है मश्के सुखन जारी चक्की की मशक्कत भी / इक तुर्फा तमाशा है ’हसरत’ की तबीयत भी।

हसरत साहब दूसरी बार 1916 में राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार हुए और नैनी जेल में रहे। 1920 में वे स्थायी रूप से कानपुर आ गए और यहां रहकर उन्होंने स्वदेशी स्टोर खोल लिया जिसमें उनकी बेगम भी साथ बैठती थीं। कानपुर के अमीनगंज में उनकी रिहायश बनी। फिर अपने एक मित्र रामप्रसाद के साथ उनके मकान में रहते रहे। इसके बाद कमाल खां के घेर में ठिकाना लिया। तीसरी बार वे 1922 में पकड़े गए। इस तरह उन्होंनेे कुल छह साल कैद में रखा गया। फिर भी उन्होंने लिखा-

रूह आज़ाद है, खयाल आज़ाद/जिस्मे हसरत की है कैद बेकार।

जेल से छूटने पर ’उर्दू-ए-मुअल्ला’ पर फिर छापा, लेकिन जमानत मांगे जाने पर वे उसे अदा नहीं कर पाए और अखबार बंद हो गया। सन् 1921 में वे मुस्लिम लीग अहमदाबाद अधिवेशन के अध्यक्ष थे जहां उन्होंने पूर्ण स्वाधीनता की मांग की। उनका अध्यक्षीय भाषण प्रतिबंधित कर दिया गया और राजद्रोह के आरोप में वे दो वर्ष के लिए जेल में डाल दिए गए। 1936 में वे लीग में फिर सक्रिय हुए। सन् 1942 में लीग के इलाहाबाद अधिवेशन में जिन्ना को पूर्ण अधिकार देने के प्रस्ताव के विरोध में वे तन कर खड़े हो गए।

हसरत अपने ढंग के अनोखे नेता थे। हंसराज रहबर उन्हें भारतीय राजनीति के अजीबोगरीब पात्र मानते थे। वे खुले स्वभाव के बहुत दबंग व्यक्ति थे। साइमन कमीशन का विरोध नहीं किया तो नहीं किया। यहां तक कि गांधी जब कानपुर में कमीशन का विरोध करने पहुंचे तो उन्होंने ’गांधी गो बैक’ के नारे लगाए।

हसरत मोहानी का व्यक्तित्व साहित्य, राजनीति और मजहब का विचित्र मिश्रण था। उनके बचपन का किस्सा यह भी है कि उनके कस्बे मोहान में नदी के किनारे दरगाहें थीं जहां हिंदू और मुसलमान जुमेरात को मिठाई चढ़ाने आते थे। जब लोग वहां से विदा हो जाते तब हसरत साहब नदी के किनारे बैठकर दोस्तों के साथ वो मिठाई उड़ाया करते थे।

उनकी बेटी नईमा बताती हैं कि उन्हें कहानियां सुनने का बड़ा शौक था। ऐसी कहानियां बड़े शौक से सुनते, जिनमें लड़ाइयों का वर्णन हो। बड़ी फूफी से भी वे अक्सर किस्से सुना करते थे। उनका यह शौक बराबर जारी रहा। वे बताती हैं कि हसरत साहब गांव के बच्चों को जमा करके कभी-कभी आल्हा सुना करते थे। मोहान में उनके मिडिल स्कूल के हेडमास्टर पंडित लक्ष्मीनारायण थे। उन्होंने हसरत की प्रतिभा को पहचान लिया था। वे बराबर उन्हें प्रोत्साहित करते। पंडित जी की दिलचस्पी भी शेरो-शायरी में थी। हसरत साहब भी उसी रौ में बहने लग गए।

रबिया बेगम ने लिखा है- उस जमाने में जबकि वह मोहान के स्थानीय स्कूल में पढ़ते थे, उन्होंने सोचा कि एक साथ दो इम्तिहान पास करना चाहिए। एक इम्तिहान स्थानीय स्कूल में दिया। दूसरे के लिए मोहान से करीब एक स्थान झलोतर जाना पड़ा। कोई साथ ले जाने वाला नहीं था। अंत में स्कूल के हेडमास्टर पंडित लक्ष्मीनारायण साथ ले जाने के लिए तैयार हो गए। नतीजा निकलने पर मालूम हुआ कि हसरत दोनों इम्तिहानों में फर्स्ट आए।

उसके बाद वे फतेहपुर पढ़ने गए, फिर अलीगढ़। जब वे अलीगढ़ जाने लगे तो बहुत रोना-धोना हुआ। बाजू पर इमामज़ामिन बांधे गए और उनके बाद रूखसत किए गए। रशीद अहमद सिद्दीकी ने लिखा है कि उनकी गोल छिदरी दाढ़ी, उनकी बारीक आवाज, छोटे ताल की ऐनक, बगैर फुंदने की पुरानी तुर्की टोपी, घिसी-पिटी चप्पल, मोजे़ से कोई सरोकार नहीं, मोटे खद्दर की पेबंद लगी शेरवानी जिसके अक्सर बटन टूटे या गायब होते, हाथ में बदरंग जूट का झोला, दरी, तकिया, मोटी मलगजी चादर का मुख़तसर बिस्तर, टेढ़-मेढ़ा पुराना छोटा-सा एक ट्रंक, ये थे हसरत।

सुना कि हसरत इसी हुलिया में अलीगढ़ पहुंचे तो उनका खूब मजाक उड़ा। रशीद के शब्दों में ही देखिए–’बाजू पर इमामज़ामिन बंधा हुआ, मशरू का पायजामा, एक बड़ा पानदान साथ, लड़कों में ’ख़ाला अम्मा’ के से मशहूर हो गए, लेकिन यही हसरत अपनी प्रतिभा, हिम्मत और सत्यता में ऐसे खरे साबित हुए कि साथियों की आंख का तारा बन गए। अलीगढ़ कालेज में छात्र की हैसियत से विदेशी हुकूमत से सबसे पहले ’ख़ाला अम्मा’ ने ही टक्कर ली। कालेज में हलचल मच गई। हसरत निकाले गए।’

हसरत का एक और चित्र शौकत थानवी ने भी प्रस्तुत किया है–’एक बार हमीरपुर में एक मुशायरा था। मैं लखनऊ से चला, कानपुर में एक साहब और साथ हो लिए। उजड़ी सूरत, ऐनक में एक तरफ धज्जी बंधी, मैली-सी तुर्की टोपी, उटन्गा-सा चार खाने का पाजामा, ढीली-ढाली शेरवानी, पैरों में मैला-सा किरमिच का जूता, चीं-चीं करती आवाज, अजीब भद्दा-सा नक़्शा। साक़िब कानपुरी ने परिचय कराया कि आप मौलाना हसरत मोहानी हैं। मैं सकते में रह गया। या अल्लाह ऐसे होते हैं हसरत मोहानी?’

पर यही थे वे हसरत जिन्होंने अलीगढ़ पॉलिसी के खिलाफ आजादी की आवाज उठाई। उनकी इसी सोच के चलते ’उर्दू-ए-मुअल्ला’ साहित्य के साथ राजनीति की भी पत्रिका बन गई। नईमा लिखती हैं कि ’उर्दू-ए-मुअल्ला’ के शुरूआती दिनों में अलीगढ़ कालेज के प्रशासन ने विद्यार्थियों पर यह पाबंदी लगा दी थी कि इस पत्रिका को न कोई खरीदे, न पढ़े और न ही हसरत के स्वदेशी स्टोर से कोई सामान खरीदा जाए।

सच तो यह है कि ’उर्दू-ए-मुअल्ला’ ने बिना किसी खौफ के आजादी की लड़ाई का परचम थाम लिया था। हसरत साहब को इसमें छपे एक लेख के कारण जेल भी जाना पड़ा। पुलिस एक्ट के कारण ’उर्दू-ए-मुअल्ला’ में छपे कुछ कानून विरोधी शब्दों पर एक सप्ताह के अंदर तीन हजार रूपए जिला मजिस्ट्रेट के यहां जमा कराने का आदेश हुआ। उस समय ’उर्दू-ए-मुअल्ला’ के पांच सौ से ज्यादा ग्राहक न थे पर जेल जाने के बाद वह भी बंद हो गया।

(लेखक भारतीय के क्रांतिकारी आंदोलन पर ऐतिहासिक अंदाज में विशिष्ट साहित्य लेखन के लिए विख्यात हैं)


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