हसरत मोहानी पुण्यतिथि: क्यों गांधी की तरह बैठके कातेंगे चर्खा, लेनिन की तरह देंगे न दुनिया को हिला हम

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सुधीर विद्यार्थी-

1951 में मई की वह 13 तारीख थी जब उस तूफानी जिंदगी का अंत हो गया जिसने हिंदुस्तान की राजनीति को अपने विचारों और संघर्ष बहुत गहरे तक प्रभावित किया। उन्हें विस्मृत किया जाना त्याग और सिद्धांतों की राजनीति की अनदेखी भी है।

1925 में कानपुर की धरती पर भारत में प्रथम कम्युनिस्ट कांफ्रेंस के आयोजक कामरेड सत्यभक्त जी से मिलने से पूर्व हसरत मोहानी के संबंध में मेरी जानकारी इतनी ही थी कि उन्होंने 1921 की अहमदाबाद कांग्रेस में पूर्ण स्वाधीनता का प्रस्ताव रखा था जिसे कांग्रेेस ने स्वीकार नहीं किया।

गांधी ने उनके इस प्रस्ताव को ’गैरजिम्मेदारी की बात’ कह कर रद्द करवा दिया था। यह बहुत बड़ी बात है कि जब कांग्रेस और उनका नेतृत्व देश की स्वतंत्रता के वास्तविक संग्राम को अनदेखा करके समझौतों के लचर तौर-तरीकों पर विचार कर रहा था तब हसरत मोहानी ’मुकम्मल आजादी’ का प्रस्ताव लेकर सामने आए।

उनका यह कदम उनकी प्रगतिशील सोच और जोखिम उठाने की उनकी प्रवृत्ति की ओर संकेत करता है। गांधी तब कांग्रेस के सर्वेसर्वा थे। बावजूद इसके हसरत मोहानी के पूर्ण आजादी के प्रस्ताव को कांग्रेस में एक तिहाई वोट मिल गए। प्रस्ताव आगे तो नहीं बढ़ा लेकिन कांग्रेस और गांधी जैसे उनके नेता के सामने पूर्ण आजादी के प्रस्ताव को रखे जाने के परिणाम को जानते हुए भी उन्होंने ऐसा करके देश के स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में अपने लिए विशेष जगह बना ली थी और जाने-अनजाने उन्होंने देश को ’पूर्ण आजादी’ का एक मंत्र दे दिया था।

यह वही हसरत मोहानी थे, जिन्हाेंने ‘इंकलाब जिंदाबाद’ का नारा दिया और यह भारत के क्रांतिकारी आंदोलन की ऊर्जा बन गया। समाज बदलाव की हर लड़ाई में यह नारा आज भी गुंजायमान है। इसी नारे के साथ भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने असेंबली में बम फेंककर साम्राज्यवादी हुकूमत की नीतियों का विरोध किया और इसी नारे के साथ भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव फांसी के फंदे पर बेखौफ झूल गए।

जब असहयोग आंदोलन शुरू हुआ तो विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार के बारे में भी हसरत मोहानी के विचार गांधी से भिन्न थे। उनका कहना था कि हमारी लड़ाई सिर्फ ब्रिटिश साम्राज्यवाद से है, इसलिए सिर्फ ब्रिटिश माल का बहिष्कार किया जाए। गांधी ने उनकी यह बात नहीं मानी।

देखा जाए तो हसरत मोहानी ही वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने स्वदेशी आंदोलन की नींव डाली। उन्होंने यह मांग की थी कि आंदोलन के दौरान अहिंसा का अंकुश हटा दिया जाए। इस तरह गांधी और कांग्रेस से उनका मतभेद निरंतर बना रहा और वे मजबूती से अपने पक्ष को रखते रहे। उनकी विचारधारा को जानने के लिए उनका यह शेर पर्याप्त है-

क्यों गांधी की तरह बैठके कातेंगे चर्खा/लेनिन की तरह देंगे न दुनिया को हिला हम।

एक समय दिल्ली का बल्लीमारान इलाका शायर और आजादी के दीवाने हसरत मोहानी का मुकाम हुआ करता था। वे तब लेखन में खूब मशगूल थे और नई दिल्ली में संसद भवन के सामने स्थित जामा मस्जिद में गर्म तकरीरें किया करते थे। पर वे दुनियावी अर्थ में मौलाना नहीं थे।

वे उन चंद मुस्लिमों में से थे जिन्होंनेे कांग्रेस को अपनाया था। फिर भी उसमें होने और बने रहने की उनकी अपनी शर्तें थीं। वे बहुत सख्त मिजाज और धुन के पक्के थे। इतने कि कई बार वे गांधी और कांग्रेस की नीतियों के विरोध में तन कर खड़े हो गए। बल्लीमारान की उन गलियों में जहां हसरत मोहानी ने तबील वक्त गुजारा अब किसे उनकी याद होगी।

सच यह है कि उन मुस्लिम नायकों को एक-एक करके दरकिनार कर दिया जाता रहा जो प्रगतिशील सोच के थे और जिनके नाम और काम को सामने रख कर इस तबके की सामाजिक और राजनीतिक चेतना को मांजने की दिशा में जरूरी काम किया जा सकता था। इनमें खान अब्दुल गफ्फार खां, गदर पार्टी के मौलाना बरकतउल्ला, यूसुफ मेहर अली, शहीद अशफाकउल्ला खां, कामरेड मुजफ्फर अहमद, शौकत उस्मानी और हसरत मोहानी जैसे कुछ नाम हैं। यह बड़ी बात है कि उन्नाव जिले के मोहान जैसी निपट छोटी कस्बाई जमीन के मुस्लिम परिवार में जन्मा फजलुल हसन नाम का एक शख्स ’हसरत’ बनकर अपने नाम के साथ अपनी बस्ती को भी एक पहचान दे गया। वे 1881 में पैदा हुए थे और उनका पूरा नाम था सैय्यद फजलुल हसन। पर धीरे-धीरे वे सिर्फ ’हसरत मोहानी’ रह गए।

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हसरत मोहानी रूस की साम्यवादी क्रांति से बहुत प्रभावित थे। सत्यभक्त जी ने मुझसे कहा था–’मैं जिस बात के लिए हसरत साहब का सबसे अधिक सम्मान करता हूं और उनके सामने श्रद्धा से अवनत होता हूं, वह सन् 1925 के अंतिम सप्ताह में होने वाला कम्युनिस्ट कांफ्रेंस का अधिवेशन था। कहने को इंडियन कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना मैंने ही की थी और कम्युनिस्ट कांफ्रेंस की योजना भी मैंने ही बनाई थी, पर अगर हसरत साहब, राधामोहन गोकुल जी, नारायण प्रसाद अरोड़ा जैसे मित्र मेरी सहायता को न खड़े होते तो मेरे जैसा व्यक्ति जिसकी जमा पूंजी कभी हजार-पांच सौ से ज्यादा नहीं हुई, इस ऐतिहासिक काम को कभी अंजाम नहीं कर सकता था। मुझे यह कहने में कुछ भी संकोच नहीं कि जमीन से लेकर उस पर पंडाल खड़ा करने में जो सात-आठ सौ खर्च हुआ, वह सब हसरत साहब ने ही अपने स्वदेशी स्टोर की बैंक से सूद के रूप में मिली रकम से किया। मैं तो स्वागतकारिणी समिति के टिकट बेचकर दो-तीन सौ ही इकट्ठा कर सका होऊंगा। वह प्रचार के लिए पर्चे, पोस्टर, प्रवेश टिकट आदि फुटकर कामों में खर्च हो गया।

कांफ्रेंस में हसरत साहब ने मेरे कम्युनिस्ट पार्टी को स्वतंत्र रखने का पूर्णतया समर्थन किया।’ हसरत ने अपने एक शेर में कहा भी था-

‘दरवेशी व इनक़िलाब मसलक है मेरा, सूफ़ी मोमिन हूं इश्तिरारी (कम्युनिस्ट) मुस्लिम’

(लेखक भारतीय के क्रांतिकारी आंदोलन पर ऐतिहासिक अंदाज में विशिष्ट साहित्य लेखन के लिए विख्यात हैं)


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