मस्जिद, इमामबाड़ा, दरगाह या ख़ानक़ाह क्या सिर्फ मज़हबी केंद्र हैं?

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Mosques Dargah Khanqah Muslim
      जैगम मुर्तजा-

मध्य और दक्षिण एशिया के अलावा यूरोप और अमेरिका इन इमारतों की भूमिका सिर्फ नमाज़ या मजलिस तक सीमित नहीं है। जहां क़ौम बेदार है और समाज में नफ्सा-नफ्सी नहीं है वहां ये तमाम इमारतें सामाजिक और सांस्कृतिक बदलाव का केंद्र हैं। आज भी तमाम मस्जिदें शादी के अवसर पर बर्तन, मौत के वक़्त मसहरी, सिपारा, दरी जैसी चीज़े मुहैया कराती ही हैं। इमामबाड़े और दरगाहें कम्यूनिटी सेंटर की भूमिका बख़ूबी निभा रहे हैं। जहां ये हैं वहां शादी के टैंट और मौत के वक़्त कुर्सियां सड़क पर नहीं डालनी पड़ती हैं।

जैसे-जैसे आबादी बढ़ रही है, नए मुहल्ले बस रहे हैं और नए धार्मिक केंद्र बन रहे हैं वहां पर इनकी भूमिका की नए सिरे से समीक्षा की ज़रूरत है।

मस्जिद में हर मुहल्लेवासी का रिकार्ड होना चाहिए। यहां सिर्फ नमाज़ियों की गिनती नहीं हो बल्कि लोगों की आर्थिक/सामाजिक ज़रूरतों और स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों का भी हल निकले। लोगों को पता हो कि हमारे आस-पड़ौस में किसे, क्या चाहिए।

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मध्य एशिया की तमाम बड़ी मस्जिदों में लाइब्रेरी, सामाजिक हाॅल और मीटिंग स्थल के अलावा डिस्पेंसरी की भी सुविधाएं हैं। अब जबकि हमारे यहां सरकार ने लोगों को उनके हाल पर छोड़ दिया है तो हमारे धार्मिक केंद्र हमारी आत्मनिर्भरता का मरकज़ बन सकते हैं।

हालांकि बहुसंख्यक आबादी का नहीं मालूम लेकिन भारत के अल्पसंख्यक दनिया के सबसे सस्ते नागरिक हैं। उनके गांव, मुहल्ले में ऐसे भी नागरिक सुविधा के नाम पर बस सरकारी घंटे होते हैं।

सरकारों को लगता है कि हमें स्कूल, कालेज, अस्पताल, पीने के साफ पानी, सफाई-कर्मी या प्लानिंग की कोई ज़रूरत नहीं है। ऐसे में हमारे सामाजिक और धार्मिक केंद्रों की भूमिका अहम हो जाती है।

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हाल में महामारी के दौरान मची अफरा तफरी हमारे लिए नए सबक़ दिए हैं। इस दौरान इन धार्मिक केंद्रों में कुछ ने बहुत शानदार काम किया है। दरगाह निज़ामुद्दीन का लंगरख़ाना हालांकि सीमित संसाधनों के साथ काम कर रहा है लेकिन एक माॅडल हो सकता है।

आक्सीजन, बची हुई दवाएं, राशन, बेड और स्थानीय डाक्टरों के साथ यहां एक छोटा-मोटा सेटअप तो है ही। इसी तरह देश भर में कई मस्जिद, मदरसे और मज़हबी तंज़ीम शानदार काम कर रहे हैं। लेकिन ये काफी नहीं है।


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मौजूदा इमारतों या वक़्फ संपत्तियों में बड़े बदलाव संभव नहीं हैं लेकिन मस्जिद के स्टोर रूम अब ऐसे तो हों जहां वज़ू के लोटे और मैयत की मसहरी के अलावा पांच-दस सार्वजनिक ऑक्सीजन सिलिंडर और एक-दो ऑक्सीजन कंसेनट्रेटर भी हों।

ख़ानक़ाह और इमामबाड़े की इमारतें ज़रूरत पड़ने पर दो से पांच बेड के आइसोलेशन सेंटर के तौर पर इस्तेमाल हो सकें। मस्जिद से लगा मौलवी साहब का कमरा बने तो एक कमरा ऐसा बना दिया जाए जहां स्वयंसेवी तौर पर डाक्टर आकर जांच कर सकें और दवा दे सकें।

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हमें अपनी नई मस्जिद, इमामबाड़े, दरगाहें इस हिसाब से डिज़ाइन करनी होंगी जहां शादी के खाने और मैयत की तैयारी के अलावा लाइब्रेरी, सूचना केंद्र, दवाख़ाना, स्वास्थ्य जांच, बेड, ऑक्सीजन और ज़रूरतमंदों को वक़्त पर राशन भी मिल सके।

एक हल ये हो सकता है कि हम सार्वजनिक सुविधा केंद्र को मज़हब का हिस्सा मान लें और जहां मस्जिद बनें, वहां साझा संपत्ति के तौर पर ऐसे केंद्र भी बनें। हमें यह याद रखना होगा कि मज़हब समाज से अलग नहीं है।


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मज़बूत समाज से ही मज़हब मज़बूत होता है। ये राशन के पैकेट और लोगों तक ख़ून, ऑक्सीजन, प्लाज़्मा पहुंचाना शानदार काम हैं लेकिन स्थायी हल नहीं है।

हमें स्थायी हल की तरफ सोचना होगा। जबकि सरकारें पल्ला झाड़ चुकी हैं तब अपनी और अपने लोगों की हिफाज़त की ज़िम्मेदारी हम पर और ज़्यादा आ जाती है। आप रोज़-रोज़ चंदे नहीं कर सकते न रोज़ अपना घर-बार छोड़कर लाइनों में लग सकते। इसलिए आगे बढ़िए और समाधान खोजिए और समस्या का हल बनिए।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, यह उनके निजी विचार हैं)


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