अब्दुलकरीम अल-करामी (अबु सलमा)-
हम लोग लौटेंगे
प्यारे फलस्तीन
मैं कैसे सो सकता हूं
मेरी आंखों में यातना की परछाईं है
तेरे नाम से मैं अपनी दुनिया संवारता हूं
और अगर तेरे प्रेम ने मुझे पागल नहीं बना दिया होता
तो मैं अपनी भावनाओं को
छुपाकर ही रखता
दिनों के काफिले गुजरते हैं
और बातें करते हैं
दुश्मनों और दोस्तों की साजिशों की
प्यारे फलस्तीन
मैं कैसे जी सकता हूं
तेरे टीलों और मैदानों से दूर
खून से रंगे
पहाड़ों की तलहटी
मुझे बुला रही है
और क्षितिज पर वह रंग फैल रहा है
हमारे समुद्र तट रो रहे हैं
और मुझे बुला रहे हैं
और हमारा रोना समय के कानों में गूंजता है
भागते हुए झरने मुझे बुला रहे हैं
वे अपने ही देश में परदेसी हो गये हैं
तेरे यतीम शहर मुझे बुला रहे हैं
और तेरे गांव और गुंबद
मेरे दोस्त पूछते हैं
‘क्या हम फिर मिलेंगे?’
‘हम लोग लौटेंगे?’
हां, हम लोग उस सजल आत्मा को चूमेंगे
और हमारी जीवन्त इच्छाएं
हमारे होंठों पर हैं
कल हम लोग लौटेंगे
और पीढ़ियां सुनेंगी
हमारे कदमों की आवाज
हम लौटेंगे आंधियों के साथ
बिजलियों और उल्काओं के साथ
हम लौटेंगे
अपनी आशा और गीतों के साथ
उठते हुए बाज के साथ
पौ फटने के साथ
जो रेगिस्तानों पर मुस्कुराती है
समुद्र की लहरों पर नाचती सुबह के साथ
खून से सने झण्डों के साथ
और चमकती तलवारों के साथ
और लपकते बरछों के साथ
हम लौटेंगे
अनुवाद – रामकृष्ण पाण्डेय