इस बार ओलंपिक में महिलाओं का रहा जबरदस्त प्रदर्शन

द लीडर हिंदी। ओलंपिक खेल विश्व की सबसे बड़ी खेल प्रतियोगिता है इसमें पूरे विश्व के सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी भाग लेते हैं। ओलंपिक खेलों का आयोजन प्रति 4 वर्ष में किया जाता है ओलंपिक खेलों के इन 4 साल की समयावधि को ओलपियाड कहते हैं. इस बार टोक्यो ओलंपिक में भारत की झोली में सात मेडल आए जिसमें एक गोल्ड, दो सिल्वर और चार ब्रॉन्ज मेडल है। वहीं बात कि जाए ओलंपिक में महिलाओं के प्रदर्शन की तो 2016 में रियो ओलंपिक के मुकाबले टोक्यो ओलंपिक 2020 में महिलाओं ने बेहतर प्रदर्शन किया।

टोक्यो ओलंपिक 2020 में भारतीय महिला हॉकी टीम देश को कोई पदक नहीं दिला सकी। भारतीय महिला टीम को पहले सेमीफाइनल में अर्जेंटीना से हार मिली और फिर कांस्य पदक की लड़ाई में भारत ग्रेट ब्रिटेन की टीम से हार गया। इसी के साथ भारत का टोक्यो ओलिंपिक खेलों में हॉकी के खेल से सफर समाप्त हो गया। हालांकि, इन ओलिंपिक खेलों में पुरुष हॉकी टीम ने कांस्य पदक जीता है।

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अब बात करते हैं कि, रानी रामपाल की कप्तानी वाली भारतीय महिला टीम का सफर इन ओलिंपिक खेलों में कैसा रहा है। महज तीसरी बार ओलिंपिक खेलने उतरी भारतीय टीम को लीग फेज में हार की हैट्रिक झेलनी पड़ी। एक के बाद एक लगातार तीन मुकाबले भारत ने गंवाए और फिर लगातार तीन मैचों में जीत की हैट्रिक लगाई टीम सेमीफाइनल में पहुंची और फिर लगातार दो मुकाबले हारकर भारतीय महिला हॉकी टीम टूर्नामेंट से भी बाहर हो गई।

रियो ओलंपिक से बेहतर रहा टोक्यो ओलंपिक

देखा जाए तो ओलिंपिक खेलों में भारतीय महिला हॉकी टीम का ये सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन है, क्योंकि पहली बार टीम सेमीफाइनल तक पहुंची, लेकिन सच्चाई ये भी है कि, भारत ने चौथे स्थान पर ये टूर्नामेंट समाप्त किया है। 1980 में जब 6 टीमें ओलिंपिक में हॉकी के खेल में उतरी थीं तो भारतीय महिला टीम उस समय भी रोबिन राउंड वाले फॉर्मेट के हिसाब से चौथे स्थान पर थी। वहीं, 2016 के रियो ओलंपिक में भारत 12वें स्थान पर था।

टोक्यो 2020 में महिलाओं का सफर

लगातार दूसरी बार ओलिंपिक खेलने उतरी भारतीय महिला टीम को पहले मैच में नीदरलैंड्स के हाथों 5-1 से हार झेलनी पड़ी। वहीं, दूसरे मैच में जर्मनी ने भारत को 2-0 से हराया और तीसरे मैच में ग्रेट ब्रिटेन से 4-1 से हार मिली। इन तीन मैचों के बाद लग रहा था कि, भारत अपना वही प्रदर्शन दोहराएगा, जो कि 2016 कि रियो ओलिंपिक में था। भारत उन ओलिंपिक खेलों में 12वें स्थान पर रहा था। हालांकि, यहां से भारत ने कमाल का प्रदर्शन दिखाना शुरू किया।

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लीग फेज के चौथे मैच में भारतीय टीम ने आयरलैंड को 1-0 से हराकर अपनी वापसी का संकेत दिया। आखिरी लीग मैच में भारत ने साउथ अफ्रीका को 4-3 से हराया, लेकिन ये आंकड़े क्वार्टर फाइनल में पहुंचने के लिए काफी नहीं थे। भारत को दूसरी टीमों के नतीजों पर भी निर्भर होना पड़ा, लेकिन किस्मत अच्छी रही कि, भारत क्वार्टर फाइनल में पहुंच गया, जहां उसका सामना ऑस्ट्रेलिया से हुआ और भारत ने कंगारू टीम को 1-0 से मात दे दी।

भारत लगातार तीन मैच टोक्यो ओलंपिक में जीत चुका था और चौथा मैच अगर जीत जाता तो भारत के पास कम से कम सिल्वर मेडल जीतने का मौका होता, लेकिन टीम अर्जेंटीना से 2-1 से हार गई। हालांकि, अभी भी भारत के पास कांस्य पदक जीतने का मौका था, लेकिन भारतीय महिला टीम को ग्रेट ब्रिटेन के हाथों 4-3 से हार झेलनी पड़ी और टूर्नामेंट बिना पदक के समाप्त करना पड़ा।

हॉकी से जुड़ा भारत का इतिहास

भारत का खेल इतिहास गहन रूप से हॉकी से जुड़ा हुआ है। टोक्यो ओलंपिक 2020 से पहले देश ने इस खेल में आठ स्वर्ण सहित कुल 11 पदक जीते थे। मॉस्को 1980 ओलंपिक में अपना आखिरी पदक जीतने के बाद से भारत ने खेल की दमदार टीमों के साथ तालमेल बनाए रखने के लिए संघर्ष किया है। कई निराशाओं और उतार-चढ़ाव के बाद पुरुष और महिला हॉकी टीमों ने टोक्यो 2020 ओलंपिक को यादगार बना दिया।

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पुरुष टीम: 1980 के बाद पहला पदक

1980 के बाद से भारतीय टीम पुरुषों की हॉकी में पांचवें स्थान से ऊपर नहीं पहुंची। लेकिन, टोक्यो में मनप्रीत सिंह और उनकी टीम के मैदान में उतरते ही सब कुछ बदल गया। टीम बेहतर तरीके से तैयार, रणनीतिक रूप से जागरूक और तकनीकी रूप से मजबूत थी। क्योंकि, वे इस खेल में भारत के इतिहास का एक और शानदार अध्याय की पटकथा लिखने जा रहे थे। भारतीय पुरुष टीम ने ग्रुप चरण को पांच मुकाबलों में से चार में जीत के साथ समाप्त किया। उन्हें एकमात्र हार पूर्व चैंपियन ऑस्ट्रेलिया से मिली। उन्होंने ग्रेट ब्रिटेन पर 3-1 से जीत के साथ सेमीफाइनल में प्रवेश किया। हालांकि, भारत सेमीफाइनल में बेल्जियम (2-5) से हार गया, लेकिन उन्होंने कांस्य पदक जीतने के लिए संयमित शैली में वापसी की। भारत दूसरे क्वार्टर में एक स्थिति पर जर्मनी से 1-3 से पीछे था, लेकिन उन्होंने जल्द ही स्थिति को पलट दिया। सात मिनट में चार गोल करके 5-3 की बढ़त बना ली। हालांकि, जर्मनों ने 48वें मिनट में अंतर को 4-5 कर दिया, लेकिन भारत ने कम बढ़त के साथ कांस्य पदक जीता। यह 41 साल बाद हॉकी में भारत का पहला पदक था।

महिला टीम: पहली बार सेमीफाइनल

दुनिया में चौथे नंबर की पुरुष टीम से अगर टोक्यो में अच्छा प्रदर्शन करने की उम्मीद की जाती, तो महिलाओं ने छलांग लगाते हुए सेमीफाइनल में पहुंचकर सभी को चौंका दिया। उन्होंने कुछ मुकाबलों में हार के साथ शुरुआत की थी। इनमें नीदरलैंड के खिलाफ 1-5 और जर्मनी के खिलाफ 0-2 की हार शामिल थी। लेकिन, भारत ने आयरलैंड को 1-0 से हराया और दक्षिण अफ्रीका का पीछा करते हुए 4-3 से जीत हासिल की, जिसमें वंदना कटारिया ओलंपिक में हैट्रिक लगाने वाली पहली भारतीय महिला बनीं। उन्होंने प्रतियोगिता में टीम के बने रहने और क्वार्टरफाइनल में पहुंचने में मदद की।

पुरुषों की टीम का खेल में लंबा इतिहास रहा है, इसकी तुलना में महिलाएं नौसिखिया थीं। भारतीय महिला टीम ने तीसरी बार ओलंपिक के लिए क्वालीफाई किया था और पहली बार लगातार ओलंपिक में उपस्थिति दर्ज की थी। लेकिन, यह बात कोई मायने नहीं रखती थी, क्योंकि भारत ने क्वार्टर फाइनल में ऑस्ट्रेलिया को हराया था। भारतीय टीम ने शानदार प्रदर्शन किया।

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1896 से अबतकः ओलंपिक खेलों का इतिहास

प्राचीन काल में शांति के समय योद्धाओं के बीच प्रतिस्पर्धा के साथ खेलों का विकास हुआ. दौड़, मुक्केबाजी, कुश्ती और रथों की दौड़ सैनिक प्रशिक्षण का हिस्सा हुआ करते थे.इनमें से सबसे बेहतर प्रदर्शन करने वाले योद्धा प्रतिस्पर्धी खेलों में अपना दमखम दिखाते थे. समाचार एजेंसी ‘आरआईए नोवोस्ती’ के अनुसार प्राचीन ओलंपिक खेलों का आयोजन 1200 साल पूर्व योद्धा-खिलाड़ियों के बीच हुआ था. हालांकि ओलंपिक का पहला आधिकारिक आयोजन 776 ईसा पूर्व में हुआ था, जबकि आखिरी बार इसका आयोजन 394 ईस्वी में हुआ. इसके बाद रोम के सम्राट थियोडोसिस ने इसे मूर्तिपूजा वाला उत्सव करार देकर इस पर प्रतिबंध लगा दिया गया.इसके बाद लगभग डेढ़ सौ सालों तक इन खेलों को भुला दिया गया. हालांकि मध्यकाल में अभिजात्य वर्गों के बीच अलग-अलग तरह की प्रतिस्पर्धाएं होती रहीं. लेकिन इन्हें खेल आयोजन का दर्जा नहीं मिल सका. कुल मिलाकर रोम और ग्रीस जैसी प्रभुत्वादी सभ्यताओं के अभाव में इस काल में लोगों के पास खेलों के लिए समय नहीं था. 19वीं शताब्दी में यूरोप में सर्वमान्य सभ्यता के विकास के साथ पुरातन काल की इस परंपरा को फिर से जिंदा किया गया. इसका श्रेय फ्रांस के अभिजात पुरूष बैरों पियरे डी कुवर्तेन को जाता है.

कुवर्तेन ने दो लक्ष्य रखे, एक तो खेलों को अपने देश में लोकप्रिय बनाना और दूसरा, सभी देशों को एक शांतिपूर्ण प्रतिस्पर्धा के लिए एकत्रित करना. कुवर्तेन मानते थे कि खेल युद्धों को टालने के सबसे अच्छे माध्यम हो सकते हैं. कुवर्तेन की इस परिकल्पना के आधार पर वर्ष 1896 में पहली बार आधुनिक ओलंपिक खेलों का आयोजन ग्रीस की राजधानी एथेंस में हुआ. शुरुआती दशक में ओलंपिक आंदोलन अपने अस्तित्व को बचाने के लिए संघर्ष करता रहा क्योंकि कुवर्तेन की इस परिकल्पना को किसी भी बड़ी शक्ति का साथ नहीं मिल सका था. वर्ष 1900 तथा 1904 में पेरिस तथा सेंट लुई में हुए ओलंपिक के दो संस्करण लोकप्रिय नहीं हो सके क्योंकि इस दौरान भव्य आयोजनों की कमी रही. लंदन में अपने चौथे संस्करण के साथ ओलंपिक आंदोलन शक्ति संपन्न हुआ. इसमें 2000 एथलीटों ने शिरकत किया. यह संख्या पिछले तीन आयोजनों के योग से अधिक थी.

वर्ष 1930 के बर्लिन संस्करण के साथ तो मानों ओलंपिक आंदोलन में नई जीवन शक्ति आ गई. सामाजिक और राजनैतिक स्तर पर जारी प्रतिस्पर्धा के कारण नाजियों ने इसे अपनी श्रेष्ठता साबित करने का माध्यम बना दिया. 1950 के दशक में सोवियत-अमेरिका प्रतिस्पर्धा के खेल के मैदान में आने के साथ ही ओलंपिक की ख्याति चरम पर पहुंच गई. इसके बाद तो खेल कभी भी राजनीति से अलग नहीं हुआ. खेल केवल राजनीति का विषय नहीं रहे. ये राजनीति का अहम हिस्सा बन गए. चूंकि सोवियत संघ और अमेरिका जैसी महाशक्तियां कभी नहीं खुले तौर पर एक दूसरे के साथ युद्ध के मैदान में भिड़ नहीं सकीं. लिहाजा उन्होंने ओलंपिक को अपनी श्रेष्ठता साबित करने का माध्यम बना लिया. अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जॉन एफ. केनेडी ने एक बार कहा था कि अंतरिक्ष यान और ओलंपिक स्वर्ण पदक ही किसी देश की प्रतिष्ठा का प्रतीक होते हैं.

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शीत युद्ध के काल में अंतरिक्ष यान और स्वर्ण पदक महाशक्तियों का सबसे बड़ा उद्देश्य बनकर उभरे. बड़े खेल आयोजन इस शांति युद्ध का अंग बन गए और खेल के मैदान युद्धस्थलों में परिवर्तित हो गए. सोवियत संघ ने वर्ष 1968 के मैक्सिको ओलंपिक में पदकों के होड़ में अमेरिका के हाथों मिली हार का बदला 1972 के म्यूनिख ओलंपिक में चुकाया. सोवियत संघ की 50वीं वर्षगांठ पर वहां के लोग किसी भी कीमत पर अमेरिका से हारना नहीं चाहते थे

इसी का नतीजा था कि सोवियत एथलीटों ने 50 स्वर्ण पदकों के साथ कुल 99 पदक जीते. यह संख्या अमेरिका द्वारा जीते गए पदकों से एक तिहाई ज्यादा थी. साल 1980 में अमेरिका और उसके पश्चिम के मित्र राष्ट्रों ने 1980 के मॉस्को ओलंपिक में शिरकत करने से इनकार कर दिया. इसके बाद हिसाब चुकाने के लिए सोवियत संघ ने 1984 के लॉस एंजलिस ओलंपिक का बहिष्कार कर दिया. साल 1988 के सियोल ओलंपिक में सोवियत संघ ने एक बार फिर अपनी श्रेष्ठता साबित की. उसने 132 पदक जीते. इसमें 55 स्वर्ण थे. अमेरिका को 34 स्वर्ण सहित 94 पदक मिले थे. अमेरिका पूर्वी जर्मनी के बाद तीसरे स्थान पर रहा. वर्ष 1992 के बार्सिलोना ओलंपिक में भी सोवियत संघ ने अपना वर्चस्व कायम रखा. हालांकि उस वक्त तक सोवियत संघ का विघटन हो चुका था. एक संयुक्त टीम ने ओलंपिक में हिस्सा लिया था. इसके बावजूद उसने 112 पदक जीते. इसमें 45 स्वर्ण थे. अमेरिका को 37 स्वर्ण के साथ 108 पदक मिले थे.

साल 1996 के अटलांटा और 2000 के सिडनी ओलंपिक में रूस (सोवियत संघ के विभाजन के बाद का नाम) गैर अधिकारिक अंक तालिका में दूसरे स्थान पर रहा. 2004 के एथेंस ओलंपिक में उसे तीसरा स्थान मिला. बीजिंग ओलंपिक 2008 को अब तक का सबसे अच्छा आयोजन माना जा गया है. पंद्रह दिन तक चले ओलंपिक खेलों के दौरान चीन ने ना सिर्फ़ अपनी शानदार मेज़बानी से लोगों का दिल जीता बल्कि सबसे ज़्यादा स्वर्ण पदक जीत कर भी इतिहास रचा. पहली बार पदक तालिका में चीन सबसे ऊपर रहा. जबकि अमरीका को दूसरे स्थान से ही संतोष करना पड़ा. भारत ने भी ओलंपिक के इतिहास में व्यक्तिगत स्पर्धाओं में पहली बार कोई स्वर्ण पदक जीता और उसे पहली बार एक साथ तीन पदक भी मिले.

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