देख कर सांप, आदमी बोला बाप रे बाप!: विश्व आदिवासी दिवस पर पांच कविताएं

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-विश्व आदिवासी दिवस-


नीरज नीर की कविता- शहर में आदिवासी

देख कर साँप,
आदमी बोला,
बाप रे बाप!
अब तो शहर में भी
आ गए साँप।
साँप सकपकाया,
फिर अड़ा
और तन कर हो गया खड़ा।
फन फैलाकर
ली आदमी की माप।
आदमी अंदर तक
गया काँप।
आँखेँ मिलाकर बोला साँप:
मैं शहर में नहीं आया
जंगल में आ गयें हैं आप।
आप जहाँ खड़े हैं
वहाँ था
मोटा बरगद का पेड़।
उसके कोटर में रहता था
मेरा बाप।
आपका शहर जंगल को खा गया।
आपको लगता है
साँप शहर में आ गया।

बाल गंगाधर ‘बागी’ की कविता- आदिवासी

कोयलों की खदानों में जिंदगी है ढह गयी
सूरज तलाशते यूं रात कितनी कट गयी
मगर मेरी जिंदगी की डोर न ही मिल सकी
आंखों की रोशनी तलाश ते बिखर गई

 

कोयला बदन है और कोयले की मोहरें
जिंदगी है रेत काली, ऊपर से ठोकरें

 

जल है जमीन नहीं जंगल न खदान है
अपनी ज़मीन पे न अपनी कमान है
जहाँ हमने पाले ये खुशियों के ख्वाब को
वहाँ से उखड़ आज छूआ जहान है

 

नन्हें फूल पौधों की लगाई जहाँ क्यारियां
घर है बबार्द औ’ साथ हैं बेकारियां

 

मेहनत मजदूरी करूं अपनी ही ज़मीन पर
अनाज से घर भरूं उनके अमीन संग
हमारी ज़मीन के वो काश्तकार बनकर
हमारे हैं दर्द सारे उनके हसीन पल

 

ठौर है ठिकाना कहाँ अपना मकान है
हक है सम्मान कहाँ अपना जहान है

 

जंगल में घूमते घूमंतू मैं हो गया
गांव शहर बस्ती फुटपाथ पे ही सो गया
भूखे पेट अक्सर दिन-रात कहीं सो गया
दुनिया का दर्द सारा नाम अपने हो गया

 

कोई बताये पहचान मेरी क्या है?
सामने लोकतंत्र के औकात मेरी क्या है?

 

आदिम समाज हूँ आदिवासी नाम है
फितरत हमारी सरलता की खान है
तीर कमान रखूं भाला या फरसा
मगर भाईचारे में ऊंचा ही नाम है

 

पर्वत व झरना पे फूलों की वादियां
मेरे बागवानी से सजी इनकी क्यारियां

 

ताल व तंबूर झांझ मृदंग व मजीरे हैं
आजाद होके लोगों संग नचाती भी हीरे हैं
यहाँ रांझे जान नहीं देते हैं जाति पर
यहाँ प्यार झरनों व नदियों के तीरे हैं

 

सोनी महिवाल यहाँ प्यार की तमन्ना है
आजाद जिंदगी जीती हर घर की कन्या है

 

जड़ से पत्तों तक वनस्पति को देखते
झरनों से सागर तक नदियांे को देखते
आगजनी या कुछ हो जमके हैं रोकते
कुदरत को अक्सर हैं हानि से रोकते

 

घर से कुदरत तक इनकी निगरानी है
आदिवासी समाज की यह गौरव कहानी है

 

दवा है न दारू पकवान की तो बात क्या
हड़प नीतियों से लुटता समाज यह
लूट है घूसखोरी बेईमान इनके साथ यहाँ
हमारी ज़मीनों पर किसका है राज यहाँ

 

शहर से जंगल तक राज उनका हो गया
आदिवासी हाथ से संसाधन सारा खो गया


प्रमोद धिताल / सरिता तिवारी की कविता- आदिवासी

इस मिट्टी में गिरा हुआ आदिम बीज हूँ मैं
इसी में उगा हुआ पौधा हुँ

 

यहीं की हवा में साँस लेकर पला-बढ़ा
यहीं के जल से तृप्त हुआ
यहीं गड़ी हुई हैं मेरी जड़ें
इसी के ऊपर फैली हुई हैं मेरी शाखाएँ
इसी मिट्टी से बना हूँ मैं
इसी में खड़ा वृक्ष हूँ

 

ऋतुओं को बदलते
यहीं गिरा हूँ और फिर उगा हूँ
सहता रहा यहीं
सर्दी की कठोर ठण्ड और वर्षा की अनवरत बारिश
इसी धरती की शारदीय छटा में
मिलायी अपनी यौवन की लाली

 

कालान्तर से
वैसे ही जी रहा हूँ यहाँ
पचाया हवा और जल
हाथी की सूण्ड में लपटते हुए
गैण्डे के पैर के नीचे घिसटते हुए
बाघ–तेंदुएँ से लड़ते–लड़ते
रचा हूँ इस श्रापित कालापानी में
सुनहरी उपत्यका

 

यह मिट्टी मेरी माँ है
इसी का लिखा हुआ आख्यान हूँ मैं

 

ख़ाली हैं ज़मींदार के बहिखाते के धुमिल पृष्ठ
वहाँ नहीं मिलेगा कोई हिसाब
किस–किस महाराजा की सवारी में
मैंने जिगर के टूटने तक रास्ता खोदा
कितना हल जोता चौधरी का खेत
कितने दिन चलाया फावड़ा
एक टुकड़ा लंगोट के सहारे
कितने साल–महिने और दिन की शरम ढँका
लेकिन रखा है मैंने एक–एक हिसाब

 

न पटवारी को मालूम है
न चौतरिया को मालूम है
लेकिन मालूम है मुझे
कहाँ–कहाँ चुकाया मैंने
साँस लेने का मूल्य

 

इस मिट्टी के सिवाय मेरा कोई नहीं है सहोदर
कोई रिश्तेदार, कोई प्रियजन
इस मिट्टी के अलावा कोई नहीं है मेरा अपना
इसी में दफनाए गए हैं
महामारी में मरे हुए मेरे पुरखों के हस्तीहाड
मलेरिया से निगले हुए मेरे दोस्तों की पसलियाँ
हैजा से सफाया किये हुए मेरे बच्चों की मासूम कोमल खोपडि़याँ

 

मैं उन्हीं अवशेषों का साक्षी होकर बैठा हूँ
भुलाए बिना कोई हरफ़
मैं उन्हीं त्रासदियों की कहानी कहने के लिए खड़ा हूँ।

राकेश कुमार पालीवाल की कविता- बचेगा आदिवासी ही

सदियों,सहस्त्राब्दियों से नहीं
वह बचता आया है
लाखों करोडो सालों से
वह लगातार बचता आया है
मानव नियंत्रित हिरोशिमा नागाशाकी
और ग्यारह नौ जैसी महाघाती त्रासदियों से
सुनामी तो अभी हाल फिलहाल की बात है
आदिवासी समूहों का बाल बांका नही कर पायी
सुनामी से भी सौ सौ गुणी भयावह प्राकृतिक आपदाएं
मनुष्यता का इतिहास गवाह है
कई कई बार उजडी हैं
इन्द्रप्रस्थ और दिल्ली जैसी कई महानगरी
मोहन जोदडो की महान सभ्यता भी
समा गई थी मौत के आगोश मे
बे अवरोध पलक झपकते
हमारी धरती के गर्भ मे छिपे हैं
न जाने कितने महानगरों के अस्थि कलश
मोहन जोदडो की तरह
समुद्र की तलहटी मे खोजने पर
मिल सकते हैं दर्जनों द्वारकाओं और
कितने ही राम सेतुओं के खंडहर अवशेष
दुनिया भर मे तमाम अनुसंधानों के बावजूद
अभी तक नहीं मिली किसी देश मे
किसी आदिवासी गांव की कब्र
इतिहास या विज्ञान को
ऐसी कोई लोककथा भी नही है
जिसमे जिक्र हो
आदिवासी सभ्यता के क्षणिक अंत का
फिर भी हम अज्ञानता वश
अक्सर उन्हें कहते हैं पिछडा और अज्ञानी
जब कि चिर काल से असली ज्ञान
उन्हीं के पास है संरक्षित सुरक्षित
उसी ज्ञान के सहारे खींचकर लाये हैं वे
अपनी सभ्यता और संस्कृति की आदिम गाडी
हम भी यदि सीखना चाहते हैं जीने के असल गुर
गुरू बनाना होगा आदिवासियों को ही
उन्ही के चरण कमल मे बैठकर सीखना होगा
प्रकृति संरक्षण और पर्यावरण संतुलन का
वह आईंस्टीनी समीकरण
जिससे साबुत रह सकती है हमारी धरती
जिससे जीवित रक सकती है हमारी प्रजाति
जिससे जीवित रक सकती है समग्र वनस्पति
जिससे जीवित रक सकती है सभ्यता संस्कृति
अब हमे थोडा सुस्त कर देना चाहिये
भौतिक प्रगति और विकास का राग दरबारी
और ठीक से समझ लेना चाहिये
आदिवासियों का आदिम अर्थशास्त्र
अपना लेनी चाहियें
आदिवासियों की तमाम अच्छी आदतें
और बंद कर देना चाहिये
आदिवासियों को मुख्य धारा मे लाने का मृत्यू राग
मुझे तो पूरा यकीन है दोस्तों
बदलना पडेगा
हमें ही अपना रास्ता एक दिन
और यदि अपनी जिद से
चलते रहे इसी आत्मघाती पथ पर
तो वह दिन बहुत दूर नही जब
इस धरती पर एक बार फिर
बचेगा आदिवासी ही
सिर्फ आदिवासी ही बचेंगे
कालान्तर, दिग दिगांतर तक

जसिंता केरकेट्टा की कविता- मेरे हाथों के हथियार

मैं देख रहा हूँ
हर दिन माँ जाती है,
पर हाथों में उसके
खुरपी और डलिया की जगह
तीर और कमान हैं।
भागता हुआ माँ के पीछे
पगडंडी तक पहुँच
देखता हूँ
दूर तक आदमियों का झुंड।
जाकर उस भीड़ में
गुम हो जाती है माँ।
भीड़ नारे लगाती हुई
मेरी नज़रों से दूर निकल जाती है।
उस रात माँ लौट आती है
सफ़ेद पट्टी बँधे उसके सिर से
रिस रहा गाढ़ा लाल ख़ून।
मैं टुटूर-टुटूर ताकता उसे
छूकर देखता हूँ लाल ख़ून
और
मेरी आँखों में भी लहू उतर आता है।
मुझे गोद में लेकर उस दिन
माँ ने बस इतना कहा :
“हम लड़ रहे हैं
अपनी ज़मीन
और अपना वजूद बचाने के लिए
मेरे बाद तुम्हें भी लड़ना होगा।”
अगले दिन माँ-तीर कमान लिए
निकल पड़ी फिर।
देर रात घर न लौटने पर
सिसकता हुआ मैं रात भर
अँधेरे और उजाले की चौखट पर
खड़ा उसका इंतज़ार करता रहा
तब भी जाने क्यों माँ नहीं आई।
वर्षों बाद जाना मैंने
लेकर वह तीर कमान
घर लौटने के लिए तो
निकली नहीं थी।
आज मैं लड़ रहा हूँ
माँ के सपनों को बचाने के लिए।
लड़ रहा हूँ,
उस दर्द के साथ
जो मेरे सीने में गहरे खुदे हैं।
लड़ रहा हूँ सदियों से।
लोगों को ये बस लड़ाई लगती हो
नहीं दिखता
मेरा सदियों पुराना दर्द;
नहीं दिखता
मेरा सदियों पुराना ज़ख़्म;
नहीं दिखते
सदियों से दूसरों द्वारा
लूटते-खसोटते वक़्त
मेरी देह पर गड़ गए
ज़हरीले नाख़ूनों के दाग़!
उन्हें तो दिखते हैं
सिर्फ़ मेरी ज़मीन, जंगल
और
मेरे हाथों के हथियार।

 

(कविता कोश से साभार)


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