#WorldIndigenousDay: क्या आप जानते हैं कि दुनिया में आदिवासियों की भी सरकार है, जारी करती है पासपोर्ट

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आशीष आनंद-

‘हम असुर लोग पाट में रहते हैं। झारखंड के पाट, यानी नेतरहाट में। हमारे इलाके में भारत का बॉक्साइट भरा है। इलाका हमारा है, लेकिन इस पर राज एक कारपोरेट कंपनी करती है। राजधानी रांची से हम करीब 170 किलोमीटर दूर हैं, इसलिए पहाड़ों से हमारी चीख वहां पहुंचने से पहले ही दम तोड़ देती है। मोबाइल के जरिए मीडिया यहां पहुंच गया है, पर मीडिया वाले इधर झांकते भी नहीं। कारपारेट कंपनी ने सबकी खूब खातिरदारी कर रखी है। हमारी सुनने वाला कोई नहीं है और दिन-रात कंपनी के डंफर हमारी छाती रौंद रहे हैं। इसलिए हम अपनी कहानी अपने बच्चों को बताने के लिए, आप जैसे लोगों को दिखाने के लिए इस तरह की तस्वीरें बना रहे हैं। अपनी दीवालों पर। अपने दिमागों में और काल की छाती पर। इसलिए कि ‘समुद्र मंथन’ खत्म नहीं हुआ है। न ही असुर लोग पूरी तरह से मरे हैं। हम आज भी ज़िंदा हैं।’

गुरदरी बॉक्साइट माइंस के आसपास के गांवों में बसे असुर आदिवासियों की ये आह ‘असुर आदिवासी विज़डम डॉक्यूमेंटेशन इनीशिएटिव’ फेसबुक पेज पर मौजूद है. वे ‘असुर नेशन डॉट इन’ नाम से वेबसाइट और फेसबुक पेज के ज़रिए अपनी बात दुनियाभर में पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं। कुछ महीने पहले उन्होंने अपना कम्युनिटी रेडियो भी शुरू किया है, जंगल में बैठकर ही कार्यक्रमों को ब्रॉडकास्ट किया जाता है।

इस तरह वे अपनी भाषा, संस्कृति, पुरखों की ज्ञान परंपरा और वजूद बचाने को संघर्ष कर रहे हैं।

असुर आदिवासियों का कहना है कि यूनेस्को की खतरे में पड़ी विश्व भाषाओं के एटलस के हिसाब से असुर आदिवासी भाषा खतरे की सूची में है। उनका आरोप है कि कारपोरेट कंपनियों ने हमारा जीवन तबाह कर हाशिये पर पहुंचा दिया है। वहीं, हिंदू कथा-पुराण हमें राक्षस कहते हैं और हमारे रावण, महिषासुर आदि पुरखों की हत्याओं का विजयोत्सव मनाते हैं। इन हालातों के बीच हम असुर आदिवासियों ने अस्तित्व बचाने और भाषा-संस्कृति के संरक्षण को नेतरहाट के जोभीपाट गांव में ‘असुर आदिवासी विजडम अखड़ा’ केन्द्र की स्थापना की है। वे अपील कर रहे हैं कि जीने में मदद कीजिए, सहायता दीजिए ताकि अपनी भाषा-संस्कृति और ज्ञान परंपराओं को बचा सकें।

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ये कितनी अजीब बात है कि दुनियाभर के वैज्ञानिक जहां आदिवासियों को ही अब ग्रह बचाने का जरिया मान रहे हैं और वहीं आदिवासियों को अपना वजूद बचाने के लिए जीने-मरने का संघर्ष करना पड़ रहा है। असुर आदिवासी ही नहीं, बस्तर से लेकर पूर्वोत्तर के राज्यों में, सोनभद्र से लेकर लक्ष्यद्वीप तक यही हाल दिखाई देता है।

ऐसा सिर्फ भारत में ही नहीं, पूरी दुनिया में हो रहा है। विकसित कहे जाने वाले देशों में भी आदिवासी वजूद और हक के संघर्षों में उतर चुके हैं और उनको गुलाम बनाने वाले प्रतीकों का सफाया कर रहे हैं। क्रिस्टोफर कोलंबस से लेकर नेपोलियन की बीवी तक की मूर्तियों को उखाड़कर नाले में फेंक देना ऐसे ही नहीं हुआ है। वे अब अपने पूर्वजों और नायकों की शिक्षाओं को जिंदा करने की कोशिश कर रहे हैं।

वैश्विक एकता बनाने के प्रयास भी आदिवासियों के बीच हो रहे हैं।

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गुजरात की आदिवासी छात्रा लता चौधरी ने आदिवासी एकता ध्वज का नमूना बनाया है, जिसमें गोल घेरे में कई रंगों के गोले हैं, जो विभिन्न देशों में मौजूद आदिवासियों की संस्कृति को अभिव्यक्त करते हैं और बीच में मौजूद पंख उनकी एकता को प्रदर्शित करता है। वे बताती हैं कि 2012 के दिसंबर से दुनियाभर में यह आदिवासी एकता ध्वज भेज रहे हैं, जिसे कई समूहों ने अपना भी लिया है।

लता चौधरी का कहना है कि आदिवासी एक दूसरे से पूरी दुनिया में इस तरीके से जुड़ रहे हैं, हालांकि अधिकारों की कम जानकारी की वजह से बहुत परेशानियों का सामना करते हैं। किताबें ये तक कहती हैं कि आदिवासियों को वीज़ा-पासपोर्ट के बगैर सरहदें पार करने का हक है। क्योंकि सरहदें बहुत बाद में बनीं और आदिवासी हमेशा से बिना सरहदों के रहे हैं। उनके टैटू-टोटम या संस्कृति किसी सरहद या पासपोर्ट से ठहर नहीं सकते।

लता के दावे की पड़ताल करने पर जानकारी मिली कि इस दावे में दम तो है। यह भी सच है कि दुनिया में बाकायदा एक आदिवासी सरकार संचालित हो रही है, जो अपना पासपोर्ट भी जारी करती है, जो आदिवासियों के लिए कई देशों में आने-जाने का जरिया है। तथ्य यह भी है कि एबोर्जिनल प्रोवीजनल गवर्नमेंट नाम से संचालित इस सरकार ने जेल में बंद विकीलीक्स के सह संस्थापक जूलियन असांजे को भी पासपोर्ट जारी किया था।

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एपीजी डॉट ओआरजी डॉट एयू वेबसाइट पर आदिवासी सरकार के बारे में विवरण दर्ज है कि यह सरकार क्या है और किस तरह का काम कर रही है।

इसमें बताया गया है कि आदिवासी अनंतिम सरकार (APG)का गठन 16 जुलाई 1990 को हुआ था। इस सिद्धांत पर सरकार को स्थापित किया गया कि आदिवासी संप्रभु लोग हैं, एपीजी आदिवासी समुदाय के आत्मनिर्णय और स्व-सरकार के लिए अभियान चलाती है।

ऑस्ट्रेलियाई में इस सरकार को बनाया गया, जिसे वहां की सरकार ने स्वीकार्यता नहीं दी है। वहीं एपीजी का कहना है कि हमें आदिवासी समुदाय के रूप में औपनिवेशिक हस्तक्षेप के बहिष्कार के साथ ही अपनी भूमि और जीवन का भविष्य तय करने का अधिकार है। हम इस देश को चला चुके हैं और हमारी संप्रभुता का अधिकार हमारे अंदर यह माद्दा पैदा करता है।

आदिवासी संप्रभुता को लागू करने की एपीजी की नीति के तहत ही आदिवासी पासपोर्ट जारी होता है, जो आदिवासी राष्ट्र ऑस्ट्रेलियाई राष्ट्र से अलग है। इस सरकार की आदिवासियों के अधिकारों से जुड़ी कई दूसरी नीतियां भी हैं।

एपीजी से जारी यात्रा दस्तावेजों को कई देशों, लीबिया (1987 और 1988), नॉर्वे और स्विट्जरलैंड (1990), और मोहॉक राष्ट्र (2014) में स्वीकार किया जा चुका है। वहीं ऑस्ट्रेलियाई सरकार ने आदिवासी पासपोर्ट को मान्यता देने से इनकार कर दिया। जबकि, कई आदिवासियों ने ऑस्ट्रेलियाई कस्टम के सामने केवल आदिवासी पासपोर्ट दिखाकर प्रवेश किया है।

एपीजी आदिवासी जन्म प्रमाणपत्र भी जारी करता है ताकि आदिवासी बच्चों को आदिवासी राष्ट्र के नागरिकों के रूप में पंजीकृत किया जा सके। उन्हें इस पर ऐतराज है कि अपने बच्चों को जन्म के समय औपनिवेशिक ऑस्ट्रेलियाई राज्य के साथ पंजीकृत करने के लिए मजबूर किया जा रहा है। वे कहते हैं कि हमारे अपने जन्म प्रमाणपत्र औपनिवेशिक कानून के दायित्वों की अस्वीकृति है। एपीजी ने पहली बार 1992 में आदिवासी जन्म प्रमाणपत्र जारी करना शुरू किया था।

विदेशों में राजनयिक प्रतिनिधिमंडल भेजकर एपीजी ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय से आदिवासी संप्रभुता को मान्यता देने की मांग की है। यह 1970 के दशक की शुरुआत में एबोरिजिनल दूतावास ने चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के अध्यक्ष माओ से इसी हैसियत से मुलाकात की और चीन का दौरा किया। फिर 1980 के दशक के आखिर में लीबिया में कर्नल गद्दाफी के शासनकाल में आदिवासी प्रतिनिधिमंडलों की विरासत को मान्यता मिली।

1994 में एपीजी के संस्थापक अध्यक्ष बॉब वेदरॉल और सचिव माइकल मैनसेल ने दक्षिण प्रशांत फोरम में जगह बनाने के प्रयास में यात्राएं की और कहा कि हमें दुनियाभर में अपने वजूद को हासिल करने की जरूरत है। तब तत्कालीन ऑस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री बॉब हॉक ने दक्षिण प्रशांत देशों पर ऑस्ट्रेलिया की वित्तीय ताकत का इस्तेमाल कर एपीजी को बैठक में शामिल होने से रोक दिया।

2014 में एपीजी के एक प्रतिनिधिमंडल ने मोहॉक क्षेत्र में हौडेनोसौनी संघ के प्रतिनिधियों के साथ मुलाकात की, जो उत्तरी और लैटिन अमेरिका में आदिवासी संस्कृति को सहेजने की कोशिश कर रहे हैं।

एपीजी गैर-आदिवासी उन लोगों को भी वीजा जारी करता है जो आदिवासी राष्ट्र की सीमा में रह रहे हैं और आदिवासी संप्रभुता के दावे को स्वीकार कर वीजा का आवेदन करते हैं। यह सरकार दुनियाभर में आदिवासी समाज व्यवस्था के मॉडल के व्यवहारिक पहलुओं पर बातचीत और चर्चा को सार्वजनिक मंचों पर लाने की कोशिश में है। एपीजी कार्यकारी परिषद संगठन की गतिविधियों और परिवर्तन के एजेंडे का नेतृत्व करने के लिए जिम्मेदार है। एपीजी को शुरू में बुजुर्गों की एक शासी परिषद के साथ स्थापित किया गया था।

अगस्त 1992 में, एपीजी ने होबार्ट में अपनी पहली राष्ट्रीय बैठक की थी, जिसमें 150 से ज्यादा आदिवासी पुरुषों, महिलाओं और बच्चों ने होबार्ट हवाई अड्डे पर प्रतिनिधियों का अपनी परंपराओं से स्वागत किया। प्रतिनिधि सभी आदिवासी समुदायों के राजदूत थे। स्थानीय और राष्ट्रीय मीडिया ने इस घटना को फिल्माया।

प्रतिनिधियों को शहर में बेतरतीब तरीके से नहीं, बल्कि बोनट पर चढ़ाकर आदिवासी झंडे लहराते कारों के काफिले के साथ ले जाया गया। रास्ते में काफिला जब एक पुल के नीचे से गुजरा, तस्मानियाई आदिवासी केंद्र के चाइल्ड केयर सेंटर के बच्चों ने वेलकम एपीजी का एक विशाल बैनर लगाकर स्वागत किया। पुलिस ने चौराहों पर यातायात रोककर काफिले की यात्रा व्यवस्थित किया।

संस्थापक एपीजी अध्यक्ष बॉब वेदरॉल ने उस वक्त कहा था, एपीजी सरकार आदिवासियों की कई पीढ़ियों के संघर्ष का नतीजा है, जिन्होंने आदिवासियों को इंसाफ के लिए लंबी लड़ाई लड़ी। यह सरकार इस सच्चाई और संघर्ष का प्रतिनिधित्व करती है, जिसका मकसद आदिवासियों के रूप में आने वाली पीढ़ियों को उनका हक दिलाना है, जो उनको कुदरत ने मुहैया कराया है।

संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार, दुनियाभर के 90 देशों में 47 करोड़ 60 लाख से ज्यादा आदिवासी निवास करते हैं, जो वैश्विक आबादी का 6.2 प्रतिशत हैं। उनकी अनूठी संस्कृतियों, परंपराओं, भाषाओं और ज्ञान प्रणालियों की विशाल श्रृंखला है। उनका अपनी भूमि के साथ एक खास रिश्ता है और एक विश्वदृष्टि के साथ ही विकास की प्राथमिकताओं की अवधारणाएं हैं।

यूनेस्को के मुताबिक, आदिवासी समुदाय के बीच दुनियाभर में इस्तेमाल की जाने वाली 7,000 भाषाओं में से कम से कम 40 फीसद किसी न किसी स्तर पर खतरे में हैं। जबकि विश्वसनीय आंकड़े मिलना बहुत मुश्किल है। विशेषज्ञ मानते हैं कि इन भाषाओं का कमजोर होने कारण स्कूलों में न पढ़ाया जाना और सार्वजनिक क्षेत्र में उपयोग न होना है।

मेक्सिको सिटी में हो चुके इस मामले पर विशेष दो दिवसीय कार्यक्रम में 50 देशों के 500 से ज्यादा विशेषज्ञ भागीदारों ने इस चुनौती को स्वीकार किया और आदिवासियों के हित में नारा बुलंद किया, “हमारे बिना हमारे लिए कुछ नहीं”। यह नारा कितना कारगर हुआ है, यह आदिवासियों के हालात से समझा जा सकता है।


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