बस्तर के सिलगर में हुई गोलीबारी की सच्चाई क्या है?

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      बेला भाटिया, ज्यां द्रेज-

बस्तर में सीआरपीएफ शिविरों के विस्तार के खिलाफ बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं. इन प्रदर्शनों को मीडिया का कवरेज नहीं मिलता. 17 मई 2021 को पुलिस गोलीबारी में तीन प्रदर्शनकारियों की मौत के बाद सिलगर में जारी आंदोलन पर सबकी नजर गई.

सिलगर एक छोटा आदिवासी गांव है जो बीजापुर और सुकमा जिलों की सीमा के पास है. ये दोनों ही क्षेत्र पांचवीं अनुसूची के तहत आते हैं. बीजापुर से सिलगर तक 66 किलोमीटर की सड़क सीआरपीएफ कैंपों से भरी पड़ी है. पक्की सड़क सिलगर से कुछ किलोमीटर पहले समाप्त हो जाती है लेकिन सरकार इसे जगरगुंडा तक ले जाने और रास्ते में और शिविर बनाने की योजना बना रही है.

ग्राम सभा की सहमति लेने की बात तो दूर, सिलगर शिविर 12 मई की रात (लगभग 3 बजे) बिना ग्रामीणों को सूचित किए स्थापित किया गया था. सिलगर के लोगों को शिविर के बारे में दिन में एक पड़ोसी गांव के निवासियों से पता चला जो साप्ताहिक बाजार के लिए सिलगर आए थे.

उनमें से लगभग 40-50 अगले दिन चर्चा करने और अपना विरोध दर्ज कराने के लिए शिविर में गए लेकिन लाठियों की दम पर उन्हें तितर-बितर कर दिया गया. बल प्रयोग में 24 लोग घायल हो गए. 14 मई को आसपास की पांच ग्राम पंचायतों के लगभग एक हजार आदिवासियों ने सामूहिक विरोध शुरू किया, जो दिन पर दिन मजबूत होता गया. यह विरोध आज भी बड़े पैमाने पर जारी है.

14 से 16 मई तक शिविर से कुछ सौ मीटर की दूरी पर, सिलगर और आसपास के गांवों से बड़ी संख्या में महिलाएं और पुरुष हर दिन सड़क पर इकट्ठा होने शुरू हुए. (कैंप सड़क से सटा हुआ है और उससे अलग कंसर्टिना वायर की दो लाइनें हैं, दो एमपीवी- माइन प्रोटेक्शन व्हीकल कैंप के बाहर खड़ी हैं.) लोगों ने कैंप को हटाने की मांग करते हुए नारेबाजी की.

हर दिन पुलिस ने उन्हें तितर-बितर करने की कोशिश की, कभी लाठियों से, कभी मिर्ची पटाका या आंसू गैस से. इन दिनों दर्जनों प्रदर्शनकारी मामूली रूप से घायल हुए और इलाज के लिए अपने गांव लौट गए.

इस अवधि के दौरान प्रदर्शनकारी अहिंसक लेकिन दृढ़ संकल्पित रहे. 17 मई को हुई रैली में सबसे ज्यादा संख्या में लोग शामिल हुए (एक साक्ष्य के अनुसार, लगभग 10 हजार ग्रामीण वहां थे). उस दिन जो हुआ वह कई चश्मदीदों की गवाही से स्पष्ट हो जाता है.

उनमें से कई लोगों ने बताया कि लोगों का धैर्य लंबे आंदोलन के चलते जवाब देता जा रहा था. जब सुरक्षा बल ने उन्हें तितर-बितर करने के लिए लाठीचार्ज किया और आंसू गैस के गोले दागे तथा हवा में फायरिंग की, तो कुछ प्रदर्शनकारी तो भाग खड़े हुए लेकिन अन्य ने पत्थर उठाकर सुरक्षा बलों पर फेंकना शुरू कर दिया (ज्यादा संभावना है कि यह सड़क निर्माण के लिए वहां पड़ी बजरी थी).

यह भी बताया गया कि कुछ प्रदर्शनकारियों ने चिल्लाकर कहा कि वह पुलिस की गाड़ियों को आग लगा देंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ.

उस समय तक सुरक्षा बल सड़क के दोनों ओर मौजूद थे और बीच में प्रदर्शनकारी थे. देखते ही देखते पुलिस ने गोलीबारी शुरू कर दी. तीन प्रदर्शनकारी मौके पर ही मारे गए (उनमें से एक, तिम्मापुरम गांव का उइका पांडु, जिसे मुरली भी कहा जाता है, के सिर में चोट लगी थी. वह 16-17 साल का था), कम से कम 40 लोग घायल हुए जिनमें तीन को गोली लगी.

अधिकांश घायलों को देखभाल के लिए उनके गांव ले जाया गया और अधिक गंभीर प्रदर्शनकारियों को जिला अस्पताल ले जाया गया. पुलिस की गोलीबारी में जिंदा बचे पुसबका गांव के एक व्यक्ति की पीठ में गोली लगी थी. वह अब बीजापुर के आईसीयू में हैं.

20 मई के आसपास जारी एक प्रेस नोट में पुलिस ने दावा किया कि 17 मई को आंदोलनकारियों की संख्या बढ़कर 3000 हो गई थी और उनमें से कइयों के पास हथियार थे और उन्होंने कैंप को जलाने के इरादे से हमला किया. सेना के पास सिवाय गोली चलाने के कोई चारा नहीं था. यह विचित्र कहानी हमारे द्वारा सुनी गई किसी भी गवाही से मेल नहीं खाती. उस समय तक शिविर में भारी हथियारों से लैस कर्मियों की मौजूदगी थी और उस पर हमला करने की कोशिश करने का कोई मतलब ही नहीं था.

पुलिस गोलीबारी के बावजूद स्थानीय आदिवासी शांत नहीं हुए हैं और विरोध हर दिन जारी है. दरअसल 17 मई के बाद प्रदर्शनकारियों की संख्या बढ़ी है. 23 मई को हमने शिविर के पास उनका विरोध देखा. यह पूरी तरह शांतिपूर्ण, एकता और संकल्प का उल्लेखनीय प्रदर्शन था. ऐसा लगता है कि पुलिस 17 मई के बाद संयमित हो गई है और जब हम वहां थे तब भीड़ को तितर-बितर करने के लिए कोई लाठीचार्ज या अन्य प्रयास नहीं किया गया.

24 मई को हमने सीआरपीएफ के खिलाफ औपचारिक शिकायत तैयार करने में सिलगर के ग्रामीणों की मदद की और उनमें से एक के साथ स्थानीय थाने (जगरगुंडा) गए. शिकायत में मांग की गई है कि दोषियों के खिलाफ आईपीसी की धारा 302 (हत्या) और 307 (हत्या का प्रयास) के तहत प्राथमिकी दर्ज की जाए. थाना प्रभारी से इस साधारण सी शिकायत को स्वीकार करने और आधिकारिक रसीद देने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ी. अगर बस्तर के लोगों को इस तरह के अत्याचारों की शिकायत करने की भी इजाजत नहीं है, तो वे कहां जाएं?

जैसा कि हमने लिखा है, सीआरपीएफ शिविर के बाहर “चक्का-जाम” के रूप में विरोध जारी है, जिसका उद्देश्य शिविर की आपूर्ति लाइनों को काटना है. इस नाकेबंदी का आज (27 मई) तीसरा दिन है.

शिविर को लेकर लोगों के विरोध का मुख्य कारण यह है कि वह उत्पीड़न (जैसे तलाशी, मारपीट, यौन उत्पीड़न, मनगढ़ंत मामले, फर्जी मुठभेड़ आदि) से डरते हैं. इस चिंता की वैधता नाटकीय रूप से सिलगर पहुंचने के तुरंत बाद हमारे सामने लाई गई, जब हमें पता चला कि एक निहत्था नागरिक मिडियम मासा क्षेत्र में एक और नए सीआरपीएफ शिविर के पास एक दिन पहले मारा गया था. वह और दो अन्य लोग आम बटोर रहे थे कि तभी अचानक सेना आ गई. वह डर के मारे भागने लगे. दो भाग निकले लेकिन मासा की गोली मारकर हत्या कर दी गई. यह 22 मई को टोलेवर्ती गांव में हुआ.

(स्थानीय जानकारी के आधार लिखी गई रिपोर्ट के तथ्य और विचार लेखकों के निजी हैं)

कौन हैं ज्यां द्रेज और बेला भाटिया

अरसे पहले एक तस्वीर वायरल हुई थी, जिसे देखकर लोगों को लगा कि एक अंग्रेज सड़क पर बैठकर गरीबों के साथ खाना खा रहा है। ये थे प्रसिद्ध अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज। दरअसल वे जंतर मंतर के एक चौराहे पर आंदोलन कर रहे मनरेगा मजदूरों के बीच बैठकर खाना खा रहे थे। द्रेज ने दलित समाज और आदिवासियों को हक वाकिफ कराने की सादगी भरी कोशिश की है। झारखंड के गरीब मजदूरों के साथ हो रहे शोषण के खिलाफ आवाज उठाने पर जेल भी जाना पड़ा।

ज्यां द्रेज़ बेल्जियम के सक्षम घराने से हैं। उनके पिता जेक्स द्रेज़ यूनिवेर्सिस्ट ऑफ़ केथथिक लोवेन ऑपेरशन अनुसंधान और अर्थमिति के केंद्र संस्थापक हैं। ज्यां द्रेज़ के भाई ज़ेवियर द्रेज़ विपणन और उपभोक्ता अनुसंधान के विद्वान हैं। ज्यां द्रेज़ की पत्नी का नाम बेला भाटिया है, जो छत्तीसगढ़ यूनिवर्सिटी में पढ़ाती हैं और आदिवासी समुदाय के अधिकारों के लिए मुखर रही हैं।


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