#FarmersProtest: कैसे हुई थी हूल क्रांति, जिसका जश्न किसान मनाएंगे

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निशांत देव चंदन पासवान-

राजधानी दिल्ली की सीमाओं पर बीते सात महीने से जारी किसान आंदोलन देशव्यापी होने के साथ फिर तेज हो चला है। विख्यात विद्वान नोम चोम्स्की ने आंदोलन को संघर्ष का नया मॉडल बताया है। पूरी दुनिया की नजरें किसान आंदोलन पर ठहरी हुई हैं, जो इतने झंझावात झेलकर भी कमजोर नहीं हुआ। इतिहास की हर महत्वपूर्ण घटना, ऐतिहासिक किरदारों का जन्मदिन और पुण्यतिथि के कार्यक्रम यहां जोश और उत्साह का संचार कर रहे हैं। इसी क्रम में 30 जून को हूल क्रांति दिवस मनाया जाएगा। यह हूल क्रांति दिवस क्या है, इसको भी देश जानेगा, क्योंकि यह ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन के समय में 1857 से पहले हुआ विद्रोह था, जिसमें जमींदार, साहूकार, व्यापारी निशाना बने और उनको बचाने वाले अंग्रेजों से सख्त मुकाबला हुआ। इस ऐतिहासिक विद्रोह में क्या, क्यों और कैसे हुआ, यह जानकारी गौर से पढ़िए।

हूल क्रांति के प्रमुख नायक थे सिदो मुर्मू और कान्हू मुर्मू। उनके दो और भाई थे- चांद मुर्मू और भैरव मुर्मू। झारखंड के साहेबगंज जिला के बरहेट प्रखंड के गांव भोगनाडीह में उनका जन्म हुआ। उस समय इस क्षेत्र को राजमहल कहा जाता था। आज भी इस क्षेत्र की लोकसभा को राजमहल लोकसभा नाम से जाना जाता है। यहां के पहाड़ों को राजमहल की पहाड़ी कहा जाता है। साहेबगंज को जिला का दर्जा 17 मई 1983 को मिला, इससे पहले दुमका जिला हुआ करता था।

सिदो मुर्मू का जन्म 1815 में हुआ था, कान्हू मुर्मू का 1820 में, चांद का 1825 और भैरव का जन्म 1835 को हुआ। सिदो-कान्हू ने 1855-56 में ब्राह्मण-सवर्ण साहुकारों, व्यापारियों व जमींदारों के खिलाफ विद्रोह किया, जिसे संथाल विद्रोह या हूल क्रांति के नाम से जाना जाता है। इस लड़ाई में अंग्रेजों ने जमींदारों, साहूकारों का साथ दिया, क्योंकि अंग्रेजी शासन-प्रशासन में ब्राह्मण-सवर्ण थे। अमूमन इतिहास में इस नजरिए को अनदेखा किया गया है, जो भारतीय समाज की खासियत भी है।

30 जून हर साल संथाल विद्रोह की याद दिलाता है। इसी तारीख में 1855 में सिदो-कान्हू ने जनक्रांति का बिगुल फूंका था। इससे पहले आदिवासी जनजाति संथालों ने अपने हक के लिए कमिश्नर, दारोगा, कलेक्टर और जमींदारों के सामने अपनी समस्याओं को रखा था। सभी के यहां से निराशा हाथ लगी तो विद्रोह का कदम उठाया।

घटनाक्रम इस तरह शुरू हुआ। वर्ष 1854 में वीर सिंह मांझी के नेतृत्व में संथालों ने महाजनों पर हमला करके अपनी संपत्ति को छीन लिया। इस घटना के बाद जमींदारों ने हिकारत के साथ वीर सिंह मांझी के साथ जानलेवा मारपीट की, जिससे संथाल समुदाय भड़क गया। असंतोष, आक्रोश के हालात में भोगनाडीह गांव के चार भाइयों सिदो, कान्हू, चांद और भैरव मुक्ति की चाह में 30 जून 1855 को तकरीबन 1000 लोगों के साथ तीर-धनुष और पारंपरिक हथियारों से लैस होकर भोगनाडीह में जमा हुए।

इस घटना की खबर दुमका के निकट सुरैयाहाट निवासी बेचु राउत तक पहुंची तो उन्होंने भी विद्रोह का बिगुल फूंक दिया।

सिदो मुर्मू ने सख्वा पेड़ की टहनी तोड़कर एक-एक टहनी क्षेत्र के सभी माझिया (मुखिया) को हूल यानी विद्रोह में शामिल होने का न्योता भेजा। सभी माझिया आए और उनके साथ आए तीर-धनुष। बागी संथालों की अब संख्या हो गई लगभग 10 हजार। फिर एक सभा हुई और सिदो-कान्हू ने गुलामी और शोषण से मुक्ति के लिए संघर्ष का ऐलान किया। सभा में मौजूद संथालों ने एक स्वर से शपथ ली कि वे अब जमींदारों, साहूकारों, महाजनों, अंग्रेज पुलिस और मजिस्ट्रेट का अन्याय बर्दाश्त नहीं करेंगे।

आंदोलन के क्रम में ही संथालों पर अत्याचार करने वाले पांच महाजनों का वध कर दिया गया। इसके बाद महाजनों, जमींदारों से घूस खाने वाले दीघी थाने का दारोगा महेश लाल दत्त जब विद्रोहियों के नेता सिदो-कान्हू को गिरफ्तार करने पंचकठिया पहुंचा तो संथालों ने उस ब्राह्मण दारोगा समेत सभी पुलिस वालों को पकड़कर पंचायत लगाई और दारोगा समेत नौ पुलिस वालों को भी मौत के घाट उतार दिया।

इस घटना के बाद संथाल विद्रोह की आग धधक उठी। संथाल विद्रोहियों के डर से अंग्रेजों के दलाल घबरा उठे और साजिशों में जुट गए। गोड्डा के दारोगा प्रताप नारायण ने विद्रोहियों में फूट पैदा करने की तो उसे भी संथालों ने मार डाला।

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21 जुलाई 1855 को अंग्रेज पुलिस, जमींदारों और महाजनों की संयुक्त सेना ने संथालों पर हमला किया मगर संथालों के तीरों ने उन्हें पराजित कर दिया।, संथालों के भय से अंग्रेजों ने पाकुड़ में मर्टीलो टावर का निर्माण किया। अंग्रेज सिपाही उसी में छुपकर लड़ते और संथाल जंगल से निकलकर खुले में आकर।

टावर के छोटे छेद पर तीर से निशाना बनाना आसान नहीं था। संथालों ने टावर में घुसने की कोशिश की तो गोलियों की बौछार से कई संथाल टावर की सीढ़ियों पर शहीद हो गए। लेकिन अंग्रेज संथालों का मुकाबला उस वक्त तक फिर भी कर नहीं पा रहे थे।

अगस्त महीने में विद्रोह कुचलने को जनरल लॉयड के नेतृत्व में कलकत्ता से सेना को बुलाया गया। अंग्रेज सेना ने बड़ा आक्रमण किया, जिससे संथालों को बड़ी क्षति हुई और विद्रोही उस क्षेत्र को छोड़कर चले गए। फिर अंग्रेज सरकार की तरफ से घोषणा की गई कि अगर संथाल आत्मसमर्पण कर दें तो नेताओं को छोड़कर सभी को माफ कर दिया जाएगा और शांति स्थापना के बाद संथालों की शिकायतों पर विचार किया जाएगा।

इस धमकी के बावजूद किसी संथाल ने आत्मसमर्पण नहीं किया। तब 10 नवंबर 1855 को ब्रिटिश शासकों ने अविभाजित बंगाल के संथाल अंचलों को सेना के के हवाले कर दिया। सरकार ने घोषणा की कि जिस संथाल के हाथों में हथियार देखा जाएगा उसे अंग्रेज सरकार का दुश्मन माना जाएगा। पहले संथालों की लड़ाई जमींदारों, महाजनों और साहूकारों से थी, लेकिन अब लड़ाई सीधे तौर पर अंग्रेजी हुकूमत से हो गई।

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अल्टीमेटम जारी करने के बाद अंग्रेजी हुकूमत के सिपाही संथालों की बस्ती उजाड़ने लगे। इस दरम्यान संथालों और अंग्रेजी सिपाहियों के बीच भयंकर युद्ध हुआ। अंग्रेजी सिपाही बंदूक असला-बारूद से लड़ रहे थे और संथाल तीर-धनुष के साथ। भला तीर-धनुष का बंदूकों से क्या मुकाबला?

फिर भी सभी संथाल योद्धा बड़ी बहादुरी से लड़ रहे थे। इस लड़ाई में संथालों को जान-माल की भारी क्षति हुई। चौतरफा आक्रमण के सामने संथाल विद्रोहियों को पीछे हटना पड़ा। फरवरी 1856 को सिदो मुर्मू पचकठिया नामक स्थान पर अंग्रेज सेना की गिरफ्त में आ गए और उन्हें वहीं एक बरगद के पेड़ पर फांसी दे दी गई।

मगर युद्ध बंद नहीं हुआ था। चांद और भैरव भी भागलपुर के पास भयंकर युद्ध में मारे गए। उसके बाद कान्हू भी गिरफ्तार हो गए। 1856 के अंत में कान्हू को विशेष आयुक्त आशले ईडेन के सामने पेश कर भोगनाडीह में फांसी दे दी गई।

शोषण एवं अत्याचार के खिलाफ सशस्त्र क्रांति की याद को ताजा करने के लिए हर साल झारखंडवासी 30 जून को हूल दिवस मनाते हैं। संथाल विद्रोह में दुमका क्षेत्र के सेनानायक रहे सरैया हाट प्रखंड स्थित सरवाधाम गांव के बेचु राउत की याद लोगों के जेहन में कमजोर हो गई हैं, जिन्होंने युद्ध में अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिए थे।

यह सच है कि इस लड़ाई में अंग्रेज विजयी हुए, मगर संथालों ने अंग्रेजी हुकूमत को जड़ से हिला कर रख दिया था। उनकी हार के बावजूद जमींदारों-साहूकारों को लगा कि संथाल बदला लेंगे, इस खौफ में कुछ उत्तर में गंगा पार कर पूर्णिया, कुछ भागलपुर, कुछ मालदा के इलाकों में भाग गए और फिर कोई जमींदारी करने उस संथाल क्षेत्र में वापस नहीं लौटा। विद्रोह जिसके खिलाफ शुरू हुआ था, वह कामयाब हो गया।

संथालों के इस विद्रोह और संथालों की वीरता की खबर यूरोप तक गई। मजदूर वर्ग के महान विचारक कार्ल मार्क्स ने इस विद्रोह को भारत की प्रथम जनक्रांति कहा था।


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