क्या दिलीप कुमार का नेहरूवियन होना मौलिक था: नज़रिया

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भूतपूर्व पीएम पंडित जवाहर लाल नेहरू के साथ दिलीप कुमार.
  अभिषेक श्रीवास्तव-

कल दिलीप कुमार के निधन की खबर सुन के जितना बुरा लगा था, दिन भर चली छिछली बहसों के कारण रात तक सब क्षोभ में बदल गया। अब थोड़ा ठीक हुआ है मन। सोचिए, दिलीप कुमार हमें प्रिय क्यों थे। अपनी अदाकारी, आवाज़, रुपहले परदे पर बनी शख्सियत के चलते ही।

हमने उनके जाने के बाद उन्हें देखा कैसे? एक राजनीतिक शख्सियत के साये के तौर पर। एक तरफ उनके नाम और धर्म को लेकर बातें लिखी जा रही थीं, तो दूसरी तरफ उन्हें नेहरू से जोड़ कर लिखा जा रहा था। कुछ मूढ़मतियों ने कुछ दूसरे मूढ़मतियों के जवाब में गुलजार, फ़िराक़ आदि को गिनवाना चालू कर दिया।

क्या जरूरी है इस तरह की बातें करना? दिलीप कुमार का सेकुलर होना, नेहरूवियन होना ऐसा भी मौलिक है क्या? हो भी, तो इसे ऐन मौत के दिन गिनवाना क्यों जरूरी है जबकि उनकी विचारधारा जांच कर तो हमने उन्हें नहीं चाहा था?

आज से चालीस-पचास साल बाद की कल्पना करिए। कुछ लोग अक्षय कुमार की तस्वीर नरेंद्र मोदी के साथ लगा के लिखेंगे कि कैसे अक्षय कुमार उनके मूल्यों के वाहक थे। कोई विद्या बालन की फोटो लगाएगा और लिखेगा कि कैसे मोदीजी के महान स्वच्छता अभियान का प्रचार विद्या ने किया था।


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इसी में कोई एक होगा जो कंगना राणावत की फोटो और ट्वीट लगा के उन्हें दक्षिणपंथी मूल्यों का वाहक बताएगा। उस वक्त भी इसका प्रतिवाद करने वाले होंगे। बताएंगे कि कैसे ये सब एक प्रतिगामी विचार के लोग होते थे। जैसे आज दिलीप कुमार को कुछ पागल बदनाम कर रहे हैं।

दोनों स्थितियों में फ़र्क क्या है? लोग वही हैं, केवल सत्ताएं बदल रही हैं। उसके हिसाब से राजनीतिक पाले बस तय हो रहे हैं। किसी भी दौर में सत्ताधारी वर्ग की विचारधारा का ही समाज पर राज होता है। सत्ता की विचारधारा को वर्चस्वशाली विचारधारा कहते हैं। हर समाज अपने दौर की सत्ता के विचार यानि वर्चस्वशाली विचारधारा के प्रभाव में रहता है। ये बात 1845 में मार्क्स-एंगेल्स लिख गये।

एक हम लोग हैं कि बार-बार बंट जा रहे हैं फर्जी पालों में। बार-बार सब पढ़ा-लिखा भूल जाते हैं, जो हमारे पुरखे बता गए। नेहरू की सत्ता में नेहरू का विचार वर्चस्वशाली विचार था, तो सब कुछ नेहरूवियन था। यहां तक कि आज अटल बिहारी वाजपेयी को भी नेहरूवियन दक्षिणपंथी कहा जाता है। यही हाल मोदी के दौर में है। उनकी सत्ता है, तो उनका विचार समाज पर राज कर रहा है। एक से एक प्रगतिशील आदमी अपने भीतर मोदी का बोनसाई संस्करण पाले बैठा है।

अगर हम किसी लेखक को, कलाकार को, रचनाकार को उसकी रचना के कारण चाहते हैं तो उसके मरने के बाद उसी हिसाब से बात भी करेंगे न? या आधार बदल जाएगा? केवल इसलिए कि कुछ मूर्खों ने धर्म के आधार पर बकवाद शुरू कर दिया, तो हम भी उसी में फंस के काउन्टर-आरगुमेंट करने लग जाएं? मौत में पॉलिटिकल करेक्टनेस खोजने लग जाएं?

किसी का मरना-जीना हमारे लिए राजनीतिक सुविधा का मामला है क्या? ऐसी मंशा अगर न भी हो, तो सत्ता का फ़र्क कम से कम नहीं बिसराया जाना चाहिए। वो दौर और था, ये दौर और है तो सिर्फ इसलिए कि उस दौर की सत्ता अलग थी। समानता ये है कि तब भी ज्यादातर लेखक-कलाकार सत्ता के साथ थे, आज भी अधिकतर सत्ता के चारण हैं।

(अभिषेक श्रीवास्तव जनपक्षधर पत्रकारिता और लेखन की दुनिया में जानी मानी शख्सियत हैं)


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