शैक्षित उन्नति में अहम योगदान देने वाली अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की बुनियाद आज ही के दिन यानी 24 मई 1920 में पड़ी। जब सर सैयद अहमद ने मुस्लिमों को अंग्रेजी के साथ आधुनिक शिक्षा उपलब्ध कराने के लिए कॉलेज की नींव डाली तो कई धार्मिक मुसलमानों ने उनकी बहुत आलोचना की।
मुसलमान उन्हें कुफ्र का फ़तवा देते रहे। कुछ तो उन्हें मौलवी काफिर भी कहते। आज यही कोशिश देश में ऐसा मुकाम रखती है कि धार्मिक मुसलमान भी अपने बच्चों को यहां दाखिला दिलाने का ख्वाब देखते हैं। आज यह यूनिवर्सिटी ऐतिहासिक-सांस्कृतिक धरोहर है।
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सर सैयद अहमद को यूनिवर्सिटी ऑक्सफोर्ड जैसी यूनिवर्सिटी बनाने का जुनून इस कदर हुआ कि चंदा जुटाने को नाटकों का मंचन कराया, यहां तक कि एक तरह से भिक्षा मांगी। ऐसी जगहों पर भी चंदा लेने चले जाते, जहां आमतौर पर कोई जाना पसंद न करे। बताया जाता है कि तवायफों के कोठे से भी अपने कॉलेज के लिए चंदा लिया। इसके लिए वे एक बार लैला-मंजनू नाटक में लैला का किरदार तक निभा गए थे।
बहुत सारे ऐसे किस्से सुने जाते हैं जिनसे लगता है कि सर सैयद अहमद हिंदुओं तक का विरोध किया करते थे, लेकिन यह भी तथ्य है कि उन्होंने जब अलीगढ़ यूनिवर्सिटी बनाई तो हिंदुओं के लिए दरवाजे खोले। उनकी यूनिवर्सिटी के पहले ग्रेजुएट ईश्वरी प्रसाद बने।
मुस्लिमों के लिए यूनिवर्सिटी खोलने का विचार सर सैयद अहमद को ब्रिटेन में आया था, वे जब आधुनिक शिक्षा समझने को ब्रिटेन गए। वहां वे डेढ़ साल तक ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में रहे और शिक्षा पद्धतियों को समझा और फिर कॉलेज खोलने का इरादा लेकर भारत लौटे। इस इरादे की मजबूती इसी से देखी जा सकती है कि पांच साल में ही कॉलेज की स्थापना कर दी।
वह यह भी चाहते थे कि यूनिवर्सिटी ऐसी जगह बनाई जाए जहां का वातावरण बेहतरीन हो। जगह के चुनाव को उन्होंने तीन सदस्यीय कमेटी बनाई जिसने अलीगढ़ को चुना। इसकी वजह यह थी कि आवागमन की सुविधा अच्छी थी। यहां ग्रांड ट्रंक रोड बन चुकी थी और रेलवे ट्रैक पहले से ही था। यह चुनाव में अहम था कि हजरत अली के नाम पर यह शहर मुस्लिमों के लिए प्रेरक रहेगा।
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सर सैयद अहमद ने 1857 की क्रांति के बाद बड़े पैमाने पर अंग्रेजों द्वारा मुसलमानों के दमन और हत्याओं के बाद समुदाय के भविष्य को बेहतर बनाने का रास्ता चुना। इसी कोशिश के तहत उन्होंने सबसे पहले 1877 में अलीगढ़ में मोहम्मडन एंग्लो ओरिएंटल कॉलेज की स्थापना की थी, जो 1920 में यूनिवर्सिटी बनी।
उर्दू भाषा, गणित, चिकित्सा और साहित्य में गहरी पकड़ रखने वाले सर सैयद ने जिंदगी के आखिरी पारी, लगभग दो दशह अलीगढ़ में ही बिताए और 1898 में निधन हो गया। उनके जीते जी उनका कॉलेज यूनिवर्सिटी नहीं बन पाया। वह उसे ऑक्सफोर्ड ऑफ द ईस्ट का खिताब मिलने का ख्वाब हमेशा संजोए रहे।
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