मुस्कुराने की कोशिश करते चेहरों की कहानियां- ‘स्माइल प्लीज़!’

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       दिनेश श्रीनेत-

साठ और सत्तर के दशक का मध्यवर्गीय और निम्नमध्यवर्गीय जीवन अब कहानियों में नहीं दिखता। जबकि बदलते समय के हाशिए पर आज भी वह मौजूद है। छोटे शहरों और महानगरों के एक-दूसरे से सटे घरों और एलआईजी फ्लैट में रहने वालों की अपनी एक अलग दुनिया होती है। आज के उपभोक्तावादी दौर में यह मध्यवर्ग हाशिए पर चला गया है।

छोटी नौकरियां करने वाले लोग, छोटी-छोटी बचत से जरूरत की चीजें खरीदने वाले, आर्थिक तंगी के बीच बनते-बिगड़ते रिश्तों के बीच जीने वाले लोगों की कहानियां अब बहुत कम कही जाती हैं। सुधांशु गुप्त की कहानियों में यही दुनिया खुलती है।

पिछले संग्रह ‘उसके साथ चाय का आखिरी कप’ की तुलना में उनके नए संग्रह ‘स्माइल प्लीज़!’ की कहानियां इस दुनिया के ज्यादा करीब हैं। इन कहानियों की बुनावट में बहुत से तत्व ऐसे हैं, जो इन्हें समझने की कुंजी बनती हैं। ज्यादातर कहानियां छोटी कहानियां हैं और अपने पाठकों तक कोई संदेश या अर्थ पहुँचाने के दवाब से मुक्त हैं। ये कहानियां किसी छायाकार की तस्वीरों जैसी हैं जो जीवन किसी खास हिस्से को बिना किसी अतिरिक्त टिप्पणी के सामने रख देती हैं।

ज्यादातर कहानियों का नायक एक ही लगेगा। अधिकतर कहानियों में नायक का कोई नाम नहीं है। दूसरे पात्र कभी-कभी नाम के साथ आते हैं मगर कहानी से उन नामों का कोई खास लेना-देना नहीं है। कई बार ऐसा लगता है कि ये सारी कहानियां किसी एक उपन्यास के विविध प्रसंग हैं। इन कहानियों में घटनाएं भी अमूमन नहीं होती हैं।

इसके बावजूद आप कहानी को शुरू करते ही पढ़ते चले जाते हैं। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि कहानीकार स्थितियों की कहानी कहता है। ठीक उसी तरह जैसे पानी में कंकड़ मारने पर लहरें फैलती हैं, कहानी अपना फैलाव लेती है और वापस उसी प्रसंग पर आकर ठहर जाती है।

‘तीन घंटे का अंधेरा’, ‘खाली कॉफी हाउस’ और ‘मार्च में मई जैसी बात’ इसी तरह की कहानियां हैं। इनमें कोई घटना नहीं है, ये एक ठहरे हुए समय की कहानियां हैं। ये ठहरा हुआ समय कुछ भी हो सकता है। आत्मस्वीकृति का समय हो सकता है या फिर अपराधबोध का, संशय का हो सकता है या खुद पर एक विडंबनापूर्ण हास्य का।

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सुधांशु गुप्त के नायक उदात्त नायक नहीं हैं। ये कमजोरियों से भरे, नाकाम, कभी-कभार किसी अपराधबोध में जीते, छोटे-छोटे छल और फरेबों का सहारा लेकर जीते लोग हैं। इस संग्रह की एक कहानी का शीर्षक है ‘मिसफिट’, उनकी कहानियों के किरदार भी मिसफिट हैं। यही उन्हें नायक बनाती है।

सुधांशु की कहानियों के नैरेशन के भीतर एक और अदृश्य नैरेशन चलता है, जिस वर्णन की रोशनी में उनके किरदार खुद के विद्रूप को भी देख पाते हैं। यह बिल्कुल उसी तरह है जैसे कोई आइने में अपने सफेद होते हुए बालों, या बिगड़ी शक्ल या अपनी ही लालच से भरी निगाहों को देखकर हतप्रभ हो जाए। इन्हीं छोटे-छोटे प्रसंगों के माध्यम से कहानीकार की अपने समय पर प्रभावी टिप्पणियां भी नज़र आती हैं।

‘मनी प्लांट’, ‘खाली होता शब्दकोश’ और ‘स्माइल प्लीज!’ ऐसी ही कहानियां हैं। इन कहानियों में बदलते समय और मूल्यों के बीच जीते, खुद को बदलने की सफल-असफल कोशिश करते लोग हैं। ‘पति, पत्नी और सोने का हार!’ तथा ‘ईर्ष्या’ जैसी कहानियां एक स्तर पर तो मानव मन के भीतर जाने कितनी अनजानी परतों को खोलते हैं, मगर दूसरे स्तर पर वे अपने समय पर भी टिप्पणी कर रहे होते हैं।

इन कहानियों का अपना एक संसार है और ये अपने आलोचक और पाठक दोनों से व्यापक विश्लेषण तथा खास संवेदना की मांग भी करती हैं। लेखक ने खुद स्वीकार किया है कि अधिकतर कहानियां एक बैठक में लिखी गई हैं, ठीक इसी तरह इन कहानियों के एक ही सिटिंग में बैठकर पढ़ा भी जा सकता है।

सुधांशु गुप्त की भाषा किसी भी तरह के बनावटी अलंकरण से दूर साफ-सुथरी और सादा है। न अनावश्यक ब्योरे, न बेवजह की दार्शनिकता, न किसी ‘वाद’ या ‘दर्शन’ से जुड़ने की जल्दबाजी और न ही विद्वता का बोझ… मगर कहानीपन की शर्तों लगभग खारिज करने के बावजूद ये विशुद्ध कहानियां ही हैं। एक के बाद एक इन कहानियों को पढ़ेंगे पात्र और परिवेश में एकरसता दिख सकती है, मगर यहीं से इनका विस्तार भी आरंभ होता है। यहां कई रंग नहीं है बल्कि एक ही रंग के बहुत सारे शेड्स हैं।

ज्यादातर कहानियां किसी प्रसंग से विचार की तरफ बढ़ने और विचारों की दुनिया से वापस तल्ख़ हकीकत की तरफ लौटने की प्रक्रिया में लिखी गई हैं। ‘स्माइल प्लीज!’ का नायक सहज रूप से मुस्कुराना भूल गया है, जब वह मुस्कुराने की कोशिश करता है तो उसका चेहरा विद्रूप हो जाता है।

यह संग्रह मुस्कुराने की कोशिश करते विद्रूप चेहरों की कहानियां हैं।


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