कहानी संग्रह – आखिरी दावत और अन्य कहानियां

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       दिनेश श्रीनेत-

कहानी संग्रह ‘बुरे मौसम में’ और लघु उपन्यास ‘मौत की किताब’ के बाद उर्दू में अपने किस्म के अनूठे कथाकार खालिद जावेद की हिंदी में तीसरी किताब ‘आख़िरी दावत और अन्य कहानियां’ के नाम से आई है। इस संग्रह की खूबी यह है कि इसमें जिस तरह से कहानियों का चयन किया गया है उससे खालिद की लेखनी के विविध शेड्स हिंदी के पाठकों तक ज्यादा उभर कर आएंगे। इसकी भूमिका कवि कथाकार उदयन बाजपेयी ने लिखी है और उन्होंने बड़ी बारीकी से खालिद की कहानी के उन पहलुओं की तरफ इशारा किया है, जिसे पहली बार उन्हें पढ़ने वालों के लिए जानना जरूरी है।

वे लिखते हैं, ‘अगर उनके (खालिद जावेद के) में किसी शल्य चिकित्सक सी निर्ममता है तो पात्रों की पीड़ा और विडंबना से तादात्म्य भी है। मानो वे अपने ही शरीर की शल्य चिकित्सा करते हुए उस पर सोच-विचार कर रहे हों।’

खालिद की कहानियों को पढ़ते हुए यह भी समझा जा सकता है कि कैसे देश में हिंदी के अलावा दूसरी भाषाएं अपनी जमीन से जुड़कर यथार्थ को देखने-परखने की एक नई भाषा ईजाद कर रही हैं। कहानी का नैरेटिव इस कदर सघन और परत-दर-परत हो सकता है, हिंदी कहानी के मौजूदा परिदृश्य में तो हम यह भूल ही चुके हैं।

इन दिनों हिंदी में जैसी कहानियां लिखी जा रही हैं वो पत्रकारिता का एक्सटेंशन या विस्तार पर है। जहां चीजों को आत्मपरक शैली में रिपोर्ट कर दिया जाता है। जहां कहानी इस कदर फार्मुलाबद्ध हो चुकी है कि उस पर सारी चर्चा ही गांव की कहानी, पॉलिटिकल कहानी, स्त्री विमर्श की कहानी के आधार पर होती है। कई बार तो एक बेहतर पत्रकार की रिपोर्ट अपनी शैली में हिंदी के तथाकथित बड़े कहानीकारों की रचनाओं पर भारी पड़ती है। शायद यही वजह है कि हिंदी कहानी के मौजूदा परिदृश्य में कहानी पर कम कहानीकारों पर ज्यादा चर्चा होती है।

खालिद की कहानियों को पढ़ना किसी ऐसे शख़्स के साथ लंबी बातचीत करना है जिससे मिलने से आप अक्सर कतराते हैं, क्योंकि वह आपके वजूद में छिपी कमजोरियों, कमीनेपन और नीचता को उजागर करने लगता है, मगर जब वह शख़्स उस लंबी बातचीत के बाद आपसे विदा लेता है तो उस तकलीफदेह प्रक्रिया (जिसे उदयन ‘शल्य चिकित्सा’ कहते हैं) से गुजरकर आपको लगता है कि आप पहले के मुकाबले ज्यादा बेहतर इंसान हैं। हिंदी में इस तरह की डार्कनेस, तटस्थ निर्ममता, कड़वी स्पष्टता कृष्ण बलदेव वैद के अलावा किसी लेखक में देखने को नहीं मिलती।

इसी संग्रह की एक कहानी आखिरी दावत के बारे में उदयन अपनी भूमिका में लिखते हैं, ‘एक-एक वाक्य की ईंट लगाकर खालिद ने पूरी कहानी को कुछ इस तरह तामील किया है कि उसका एक-एक दृश्य, उन दृश्यों में उच्चारित एक-एक वाक्य और उस सबसे निकलता मृत्यु की भयावहता और जीवन की अश्लील विडम्बना का एक ऐसा अनूठा अनुभव संभव करता है जो दुनिया की बहुत कम कहानियों में उपलब्ध हो सकेगा।’

खालिद की कहानियों की प्रस्थापनाएं भी बहुत दिलचस्प हुआ करती हैं, जैसे ‘तफ़रीह की एक दोपहर’ में कहानी एक भूत सुना रहा है, जिसने एक पुराने जर्जर सिनेमाघर में अपना अड्डा बना रखा था और अब वो सिनेमाघर टूट रहा है। ‘सन्नीपात’ में कर्फ्यू की एक रात में एक बूढ़ा और बीमार पत्रकार बड़बड़ा रहा है। वहीं ‘ज़िंदों के लिए एक तज़ियतनामा’ में एक स्वप्न सरीखी सुंदर और साफ-सुथरी दुनिया में एक आदमी पेशाब के लिए भटक रहा है मगर उसे कोई ऐसी जगह नहीं मिल रही है जहां वो पेशाब कर सके। ‘आखिरी दावत’ में एक नब्बे साल की बूढ़ी औरत आखिरी सांसे ले रही हैं और तीन लोग जल्दी-जल्दी अपनी दावत निपटा रहे हैं।

हर कहानी की अपनी अजीबो-गरीब सिचुएशन और उसमें फंसे अजीब से किरदार कहानी को बयान करने का अंदाज भी तय कर देते हैं, जैसे ‘तफ़रीह की एक दोपहर’ भूल के लंबे मोनोलॉग सी है, तो ‘ज़िंदों के लिए एक तज़ियतनामा’ बोर्खेज की कहानियों की तरह सर्रियल या अतियथार्थवादी शैली में बात कहती है। खालिद के वाक्य किसी घंटे की आवाज़ जैसे होते हैं जिसकी प्रतिध्वनियां बहुत दूर तक और देर तक गूंजती हैं।

अपनी कहानियों की तासीर के विपरीत खालिद लोकप्रिय साहित्य और खास तौर पर इब्ने सफी में खासी दिलचस्पी रखते हैं, इसलिए कई बार उनके वाक्यों में यथार्थ, दर्शन और उसमें छिपा हास्य एक साथ नज़र आता है। इसका अंदाजा ‘आखिरी दावत’ के इस छोटे से हिस्से लगाया जा सकता है, ‘मैं अपने लिए नहीं बल्कि अंजानी भूख के फंदे में फंसी इंसानी नस्ल से पहले पैदा हुई तमाम छिपकलियों के लिए खा रहा था। मैं विकास की यात्रा में अजनबी रास्ते पर एक खुद से उगने वाले जंगली पौधे की तरह उगे हुए इंसानी जबड़े का कर्ज अदा कर रहा था। वह एक अकेला जबड़ा जिसने चबाना सीखा था। काया-कल्प होती हुई, घटती और लिथड़ती हुई जिंदगी का उतारा गया एक-एक छिलका मेरे ऊपर भूत की तरह सवार था।’

मेरे लिए यह संग्रह बहुत खास है क्योंकि इसकी बहुत सी कहानियों का मैं पहला पाठक रहा हूँ। इतना ही नहीं ‘जलते हुए जंगल की रोशनी में’ और ‘आखिरी दावत’ जैसी कहानियों की रचना प्रक्रिया का गवाह रहा हूँ। उर्दू नहीं पढ़ सकने की वजह से ज्यादातर कहानियों को मैंने खालिद से ही सुना है। खालिद जावेद की कहानियों पर आप चलताऊ ढंग से कुछ नहीं लिख सकते, उनकी कहानियों की संरचना ही ऐसी है कि आपकी बेइमानी पकड़ में आ जाएगी, वहीं ईमानदारी के साथ लिखना भी एक चुनौती है।

आलोचकों के बौद्धिक आलस्य, आत्मश्लाघा और प्रायोजित प्रशंसा के इस दौर में इस बात के खतरे रहते हैं कि ज्यादातर लोग ऐसे लेखकों और रचनाओं के प्रति एक चुप्पी साध लेते हैं, जो पढ़े जाने से पहले ज्यादा सचेत और संवेदनशील होने की मांग करते हैं। हालांकि हिंदी और उर्दू का पाठक लेखकों व आलोचकों के मुकाबले ज्यादा जागरुक है। कुछ साल पहले हिंदी में प्रकाशित खालिद के शार्ट नावेल ‘मौत की किताब’ की लोकप्रियता इस बात की तस्दीक करती है।


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