तालिबान रिटर्न से काबुल एयरपोर्ट ब्लास्ट तक की हकीकत, जिसका जिक्र कहीं नहीं है

0
622
अफगानिस्तान में तालिबान

नैन्सी लिंडिसफर्न और जोनाथन नेले लिखते हैं: ब्रिटेन और संयुक्त राज्य अमेरिका में अफगानिस्तान के बारे में बहुत सारी बकवास लिखी जा रही है। इस बकवास में ज्यादातर लोग कई अहम सच्चाइयों को पर्दे में रखते हैं। यह लेख मामूली टुकड़ा है। हमने अफगानिस्तान में लिंग, राजनीति और युद्ध के बारे में बहुत कुछ लिखा है क्योंकि हमने लगभग पचास साल पहले मानवविज्ञानी के रूप में वहां फील्डवर्क किया था।

सबसे पहले, तालिबान ने संयुक्त राज्य को हराया है।

दूसरा, तालिबान की जीत हुई है क्योंकि उनके पास ज्यादा लोकप्रिय समर्थन है।

तीसरा, ऐसा इसलिए नहीं है क्योंकि अधिकांश अफगानों को तालिबान से मुहब्बत है। ऐसा इसलिए है क्योंकि अमेरिकी कब्जा असहनीय रूप से क्रूर और भ्रष्ट रहा है।

चौथा, संयुक्त राज्य अमेरिका के अंदर ही आतंकवाद के खिलाफ युद्ध की अवधारणा राजनीतिक तौर पर पराजित हो चुकी है। ज्यादातर अमेरिकी अब अफगानिस्तान से सैन्य वापसी के पक्ष में हैं और किसी भी विदेशी जगह पर बेमियादी जंग के खिलाफ हैं।

पांचवां, यह विश्व इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ है। दुनिया की सबसे बड़ी सैन्य शक्ति को एक छोटे, बेहद गरीब देश के लोगों ने हराया है। इससे पूरी दुनिया में अमेरिकी साम्राज्य की ताकत कमजोर होगी।

छठा, कब्जे को सही ठहराने के लिए अफगान महिलाओं को बचाने की बयानबाजी का व्यापक तरीके से इस्तेमाल किया गया है और अफगानिस्तान में कई नारीवादियों ने कब्जे का पक्ष चुना है। नतीजतन, नारीवाद के लिए यह एक त्रासदी है।

तालिबान की सैन्य और राजनीतिक जीत

यह एक सैन्य जीत इसलिए है क्योंकि तालिबान ने युद्ध जीत लिया है। दो साल से अफगान सरकार के बलों ने हर महीने जितने लोगों की भर्ती की, उससे ज्यादा लोग मारे गए और उनकी ताकत सिकुड़ती चली गई। पिछले दस सालों में तालिबान एक के बाद एक गांवों और कुछ कस्बों पर नियंत्रण करते चले गए और दो सप्ताह से भी कम समय में उन्होंने सभी शहरों को कब्जे में ले लिया।

यह अचानक और बिजली की रफ्तार से काबिज होने की रणनीति के चलते नहीं हुआ। सच यह है कि हर शहर और गांव के ज्यादातर लोग लंबे अरसे से इस पल का इंतजार कर रहे थे। यह तालिबान की राजनीतिक जीत भी है। पृथ्वी पर कोई भी गुरिल्ला विद्रोह लोकप्रिय समर्थन के बिना ऐसी जीत हासिल नहीं कर सकता।

शायद समर्थन सही शब्द नहीं है। हालात भी ऐसे रहे कि अफगानों को पक्ष चुनना पड़ा और ज्यादातर ने तालिबान का साथ देने का विकल्प चुना। बेशक, सभी ने नहीं। लेकिन इतनी बड़ी तादात ने अमेरिकी कब्जेदारों का पक्ष नहीं चुना। राष्ट्रपति अशरफ गनी की सरकार की तुलना में ज्यादातर अफगानों ने तालिबान का साथ देना चुना। पुराने सरदारों की तुलना में तालिबान का साथ देना चुना। दोस्तम और इस्माइल खान की हार इसका सबूत है।

2001 के तालिबान में बड़ी संख्या में पश्तून थे और उनकी राजनीति पश्तून कट्टरवादी थी। 2021 में कई जातियों के तालिबान लड़ाकों ने उज़्बेक और ताजिक बहुल इलाकों में सत्ता संभाली है। यह केवल विदेशी आक्रमणकारियों के खिलाफ युद्ध नहीं है, गृहयुद्ध भी है। तमाम लोगों ने अमेरिकियों, सरकार या सरदारों के लिए लड़ाई लड़ी है। कई लोगों ने जिंदा रहने को दोनों पक्षों के साथ समझौता किया। कई लोग उलझन में रहे कि किस तरफ रहें, वे खौफ और उम्मीद के मिलेजुले भाव के साथ इस इंतजार में रहे कि ‘पता नहीं क्या होगा’।

यह अमेरिकी शक्ति के लिए एक सैन्य हार है। अगर अमेरिकी सैनिक अफगानिस्तान में रहते तो उन्हें आत्मसमर्पण करना पड़ता या मरना पड़ता। मौजूदा पराजय की तुलना में वो मंजर अमेरिकी शासकों के लिए कहीं ज्यादा अपमानजनक होता। अफगानियों के लिए ट्रंप की जगह बाइडेन भी विकल्प नहीं थे।

ज्यादा लोगों ने तालिबान को चुना, इसका मतलब यह नहीं है कि ज्यादातर अफगान बिना सोचे समझे तालिबान का समर्थन करते हैं। इसका मतलब है कि उनके सामने मौजूद सीमित विकल्पों में उन्होंने यह चुनाव करना उचित समझा। लेकिन क्यों?

इसका सीधा और कम शब्दों में जवाब है, कि तालिबान ही एकमात्र महत्वपूर्ण राजनीतिक संगठन रहा जो अमेरिकी कब्जे से लड़ा, जिस अमेरिका के कब्जे से ज्यादातर अफगानियों में नफरत पैदा हो चुकी थी।

हमेशा ऐसा नहीं था। अमेरिका ने 9/11 के एक महीने बाद सबसे पहले बमवर्षक विमान और कुछ सैनिक अफगानिस्तान भेजे। देश के उत्तर में गैर-पश्तून सरदारों के गठबंधन, उत्तरी गठबंधन की सेनाओं ने अमेरिका का समर्थन किया था। गठबंधन के सैनिक और नेता अमेरिकियों से लड़ने को तैयार नहीं थे। विदेशी आक्रमण के अफगान प्रतिरोध के लंबे इतिहास को देखते हुए शर्मनाक स्थिति थी।

दूसरी तरफ, तालिबान सरकार की रक्षा के लिए भी लड़ने को कोई भी तैयार नहीं था। उत्तरी गठबंधन और तालिबान की टुकड़ियों ने एक दूसरे का सामना नकली युद्ध की तरह किया। फिर अमेरिका, ब्रिटिश और उनके विदेशी सहयोगियों ने बमबारी शुरू कर दी।

पाकिस्तानी सेना और खुफिया एजेंसियों ने गतिरोध को समाप्त करने के लिए बातचीत की। यह तय हो गया कि संयुक्त राज्य अमेरिका को काबुल में सत्ता लेने और अपनी पसंद के राष्ट्रपति को स्थापित करने की अनुमति दी जाएगी। बदले में तालिबान नेताओं को अपने गांवों में जाने या पाकिस्तान में सीमा पार निर्वासन में जाने की अनुमति दी जाएगी।

उस समय अमेरिका और यूरोप में इस समझौते का प्रचार नहीं किया गया, लेकिन हमने इसकी सूचना दी और इसे अफगानिस्तान में बड़े पैमाने पर समझा गया।

दो साल तक अमेरिकी कब्जे का कोई विरोध नहीं हुआ। किसी गांव तक में नहीं। उन गांवों में हजारों पूर्व तालिबान थे।

इसके उलट इराक में हुआ था, जहां 2003 में कब्जे के पहले दिन से भीषण प्रतिरोध हुआ। इसी तरह 1979 में अफगानिस्तान पर रूसी आक्रमण के बारे में सोचें, उनका सामना अफगानियों के गुस्से से हुआ।

सवाल यह नहीं है कि तब तालिबान लड़ नहीं रहे थे या क्यों नहीं लड़े। दरअसल, आम लोगों को, यहां तक कि दक्षिण में तालिबान के गढ़ में भी यह उम्मीद जागी कि अमेरिकी कब्जे से अफगानिस्तान में शांति आएगी, भयानक गरीबी से पीछा छूटेगा, रोजी-रोटी का बंदोबस्त होगा।

शांति चाहिए थी। हो भी क्यों न, 2001 आने तक अफगान तेईस वर्षों से जारी युद्ध से पक चुके थे। पहले कम्युनिस्टों और इस्लामवादियों के बीच गृहयुद्ध, फिर इस्लामवादियों और सोवियत आक्रमणकारियों के बीच युद्ध, फिर इस्लामी सरदारों के बीच युद्ध, उत्तर में इस्लामी सरदारों और तालिबान के बीच युद्ध।

तेईस साल के युद्ध ने क्या दिया? मृत्यु, अपंगता, निर्वासन, शरणार्थी शिविर, गरीबी, भयानक दुख, अंतहीन भय और चिंता। इस स्थिति को समझने के लिए सबसे अच्छी किताब है 2005 में प्रकाशित ‘लव एंड वॉर इन अफ़ग़ानिस्तान’। जंग से तंग आ चुके अफगानियों में अमन की प्यास थी। 2001 तक तालिबान समर्थकों ने भी महसूस किया कि शांति युद्ध से बेहतर है।

संयुक्त राज्य अमेरिका समृद्ध था, इसलिए भी अफगानों को लगा कि उनके कब्जे से विकास ही होगा, जो उन्हें गरीबी से बचाएगा। अफगानों ने गरीबी से मुक्ति के लिए तसल्ली की। लेकिन, अमेरिका ने भी युद्ध ही दिया, शांति नहीं।

अमेरिका और ब्रिटेन की सेना ने तालिबान के गढ़ वाले गांवों और छोटे शहरों, खासतौर पर दक्षिण और पूर्व के पश्तून क्षेत्रों में उनके ठिकानों पर कब्जा कर लिया। अमेरिकियों और तालिबान के बीच अनौपचारिक समझौते के बारे में कभी जाहिर नहीं होने दिया गया। अमेरिकी एजेंसियों ने अपनी कार्रवाई को बचे हुए “बुरे लोगों” को जड़ से उखाड़ फेंकने के अपने मिशन के रूप में दिखाया।

इस दरम्यान क्या हुआ। रात के अंधेरे में छापे मारकर दरवाजे तोड़े गए, अफगानियों का अपमान किया गया, पुरुषों को बुरे लोगों के बारे में जानकारी न देने पर पीटा गया। हिरासत में लिए गए कुछ लोग तालिबान थे, जो लड़ाई नहीं कर रहे थे। यहीं पर अमेरिकी सेना और खुफिया ने यातना की नई शैली विकसित की, जिसे दुनिया इराक में अमेरिकी जेल अबू ग़रीब से थोड़ा जान सकती है।

यह सब हुआ तो प्रतिरोध फिर पैदा हुआ। मौका लगने पर ग्रामीणों ने अमेरिकियों को बुरा-भला कहना शुरू किया या कोई प्रतिरोधी हरकत करना शुरू कर दी। जवाब में अमेरिकी फौज ने उनपर हमले करना शुरू कर दिए, बमबारी करके परिवार के परिवार खत्म कर दिए। अमेरिकी सैनिक जॉनी रिको के संस्मरण ब्लड मेक्स द ग्रास ग्रो ग्रीन मेंइस तस्वीर को समझने के लिए उपयोगी विवरण है।

युद्ध देश के दक्षिण और पूर्व में लौट आया। असमानता और भ्रष्टाचार चरम पर पहुंच गई।

अफगानों ने तरक्की की जो उम्मीद की थी और उन्हें जो आसान लग रहा था, उसका उलटा हो गया। कारण? वे विदेश में अमेरिकी नीति को नहीं जानते-समझते थे। वे संयुक्त राज्य अमेरिका के अंदर ही बढ़ती असमानता को नहीं समझ पाए। जहां एक प्रतिशत लोगों के हाथ में ज्यादातर संपत्ति का मालिकाना है।

अमेरिकी पैसा अफगानिस्तान में डाला गया। लेकिन यह हामिद करजई के नेतृत्व वाली नई सरकार में ओहदे संभाल रहे लोगों के पास गया। अमेरिकियों और दूसरे देशों के कब्जा करने वाले सैनिकों के साथ काम करने वालों के पास गया। उन सरदारों या उनके साथियों के पास गया जो सीआईए और पाकिस्तानी सेना द्वारा अंतरराष्ट्रीय अफीम और हेरोइन व्यापार में शामिल थे। उनकी झोली में आया, जिनकी काबुल में ऐशोआराम भरी जिंदगी थी, जो अपने आलीशान घरों के हिस्सों को विदेश से आए प्रवासी कर्मचारियों को किराए पर दे सकते थे। यह पैसा उनके खाते में पहुंचा जो विदेशी वित्त पोषित एनजीओ में काम करते थे। ये सब एक दूसरे के हिस्से को झपटने में भी लग गए।

अफगान लंबे समय से भ्रष्टाचार के आदी थे। उन्हें इससे कोफ्त थी, नफरत थी, लेकिन इस बार पैमाना अभूतपूर्व था। गरीब और मध्यम आय वर्ग के लोगों की नजर में किसी की नई जुड़ती संपत्ति, भले ही उनसे छीनकर नहीं कमाई हो, अश्लील लग रही थी, भ्रष्टाचार लग रहा था।

गौर करने लायक बात यह है कि पिछले एक दशक में तालिबान ने देशभर में दो चीजों स्थापित किया। पहला यह कि वे भ्रष्ट नहीं हैं, 2001 से पहले के कार्यकाल में भी भ्रष्ट नहीं थे। वे देश की एकमात्र राजनीतिक ताकत हैं जिनके बारे में यह सच है।

दूसरा, तालिबान ने अपने नियंत्रण वाले ग्रामीण क्षेत्रों में ईमानदार न्यायिक प्रणाली चलाई। जिनकी प्रतिष्ठा इतनी ज्यादा है कि शहरों में दीवानी मुकदमों के तमाम मामले ऐसे रहे कि दोनों पक्ष ग्रामीण इलाकों में तालिबान न्यायाधीशों के पास चले गए। इसकी वजह थी कि उन्हें वहां बिना रिश्वत, जल्दी और निष्पक्ष न्याय मिलेगा।

आम अफगानियों के मन में यह बात बैठ गई कि जब अमीर लोग जजों को रिश्वत दे सकते हैं, तो वे गरीबों का हक मारने को कुछ भी कर सकते हैं। भूमि की उनके लिए बहुत अहमियत है, जिसे अमीर और ताकतवर, सरदार और सरकारी अधिकारी छोटे किसानों की भूमि पर कब्जा कर सकते थे, धोखा दे सकते थे, गरीब बटाईदारों पर अत्याचार कर सकते थे। लेकिन तालिबान के न्यायाधीश इस बात को समझकर गरीबों के लिए न्याय देने को तैयार रहे।

बीस साल पहले, 2001 में ट्विन टॉवर पर हमले के बाद जो हुआ, उसके बाद बहुत कुछ बदला है। दो दशक के युद्ध और संकट ने राजनीतिक जन आंदोलनों में बड़ा बदलाव किया। तालिबान ने भी सीखा और खुद को बदला, जिसकी वजह से उनके लिए कुछ लोगों ने ‘नव तालिबान’ की संज्ञा दी। तालिबान ने महसूस किया कि पश्तून कट्टरवाद एक बड़ी कमजोरी थी। वे बाद में इस बात पर जोर देने लगे कि वे मुसलमान हैं, सभी मुसलमानों के भाई हैं और चाहते हैं कि सभी जातीय समूह के मुसलमानों का समर्थन मिले।

पिछले कुछ वर्षों में तालिबानों में एक दरार आई और लड़ाकों और समर्थकों के छोटे हिस्से ने खुद को इस्लामिक स्टेट के साथ जोड़ लिया। इस्लामिक स्टेट शियाओं, सिखों और ईसाइयों पर आतंकी हमले करता है। पाकिस्तान में खुफिया एजेंसी से पोषित छोटा हक्कानी नेटवर्क से संबंधित तालिबान भी ऐसा करते दिखते हैं। वहीं तालिबान का बहुसंख्यक गुट ऐसे सभी हमलों की निंदा करता रहा है।

बाद में इस विभाजन पर लौटते हैं, क्योंकि इसके गहरे निहितार्थ हैं।

नए तालिबान ने महिलाओं के अधिकारों को लेकर अपनी चिंताओं पर जोर दिया है। वे कहते हैं कि वे संगीत और वीडियो का स्वागत करते हैं और उन्होंने अपने पूर्व शासन के उग्र और शुद्धतावादी पक्षों को नियंत्रित किया है। वे अब बार-बार कह रहे हैं कि वे पुरानी व्यवस्था के लोगों से बदला लिए बगैर शांति से शासन करना चाहते हैं।

इसमें कितना प्रचार है और कितनी सच्चाई है, यह बताना मुश्किल है। आगे क्या होता है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि विदेशी ताकतें कितना दखल देंगी और अर्थव्यवस्था का क्या होगा। इस बात से सिर्फ इतना ही कहना है कि अफगानों के पास अमेरिकियों, सरदारों और अशरफ गनी की सरकार के मुकाबले तालिबान को चुनने की वजह क्या हैं।

अफगान महिलाओं को बचाने के बारे में क्या?

इस मामले पर बहुत हल्ला है। इस सवाल का जवाब जानना आसान नहीं है।

हमें 1970 के दशक में लौटकर जानना होगा। तब दुनिया भर में लैंगिक और वर्गीय असमानता घनी दिखाई देती हैं। अफगानिस्तान इससे अलग नहीं था।

नैंसी ने 1970 के दशक की शुरुआत में देश के उत्तर में पश्तून महिलाओं और पुरुषों के साथ मानवशास्त्रीय फील्डवर्क किया। जब वे खेती करते थे और पशुओं को चराकर जिंदगी गुजार रहे थे। नैंसी की किताब, बार्टर्ड ब्राइड्स: पॉलिटिक्स एंड मैरिज इन ए ट्राइबल सोसाइटी, उस समय मौजूद वर्ग, लिंग और जातीय विभाजन के बीच संबंधों की व्याख्या करती है।

अगर आप जानना चाहते हैं कि वे महिलाएं खुद अपने जीवन, परेशानियों और खुशियों के बारे में क्या सोचती हैं, तो नैंसी और उनके पूर्व साथी रिचर्ड टाॅपर ने हाल ही में अफगान विलेज वॉयस प्रकाशित किया है, जो उन कई टेपों का अनुवाद है, जो महिलाओं और पुरुषों से बातचीत के दौरान रिकॉर्ड किए गए।

हकीकत जटिल, कड़वी, दमनकारी और प्रेम से भरी थी। यह संयुक्त राज्य अमेरिका में लिंगभेद और वर्गीय जटिलताओं से अलग नहीं थी। लेकिन अगली आधी सदी की त्रासदी ने बहुत कुछ बदल दिया। युद्धों से जन्मी गहरी पीड़ा ने तालिबान के खास तरह के लिंगवाद को जन्म दिया, जो अफगान परंपरा का एक स्वचालित उत्पाद नहीं है।

इस नए मोड़ का इतिहास 1978 में शुरू हुआ। कम्युनिस्ट सरकार और इस्लामी मुजाहिदीन के बीच गृहयुद्ध शुरू हुआ। इस्लामवादी जीत रहे थे, इसलिए सोवियत संघ ने 1979 के अंत में कम्युनिस्ट सरकार के समर्थन में आक्रमण कर दिया। सोवियत और मुजाहिदीन के बीच सात साल के भीषण युद्ध के बाद 1987 में सोवियत सैनिकों ने पराजित होकर अफगानिस्तान छोड़ दिया।

जब हम अफगानिस्तान में रहते थे, 1970 के दशक की शुरुआत में, कम्युनिस्ट सबसे अच्छे लोगों में से थे। वे तीन जुनून से प्रेरित थे। वे देश का विकास करना चाहते थे। वे बड़े जमींदारों की शक्ति को तोड़ना चाहते थे और जमीन को बांटना चाहते थे। वे महिलाओं के लिए समानता चाहते थे।

1978 में प्रगतिशील अधिकारियों के नेतृत्व में एक सैन्य तख्तापलट में कम्युनिस्टों ने सत्ता संभाली। उन्हें अधिकांश ग्रामीणों का राजनीतिक समर्थन नहीं मिला। नतीजतन, ग्रामीण इस्लामवादी प्रतिरोध से निपटने का एकमात्र तरीका गिरफ्तारी, यातना और बमबारी अपना लिया। कम्युनिस्ट नेतृत्व वाली सेना ने जितनी क्रूरता की, विद्रोह उतना ही बढ़ता गया।

फिर सोवियत संघ ने कम्युनिस्टों को समर्थन देने के लिए आक्रमण किया। उनका मुख्य हथियार हवा से बमबारी था, और देश के बड़े हिस्से ‘फ्री फायर जोन’ बन गए। इस कार्रवाई में पांच से 10 लाख अफगान मारे गए। 10 लाख लोग हमेशा को अपाहिज हो गए। 60 से 80 लाख तक लोग ईरान और पाकिस्तान में में पनाह लेने को मजबूर हो गए और लाखों देश के अंदर ही शरणार्थी बन गए। यह सब हुआ महज ढाई करोड़ लोगों के मुल्क में।

कम्युनिस्टों ने सत्ता में आने पर पहली बार भूमि सुधार और महिलाओं के अधिकारों के लिए कानून बनाने की कोशिश की। फिर, जब रूसियों ने आक्रमण किया तो ज्यादातर कम्युनिस्टों ने आक्रमणकारियों का साथ दिया, जिनमें कम्युनिस्ट महिलाएं भी थीं। यातना और नरसंहार का समर्थन करने से नारीवाद के नाम पर भी धब्बा लग गया।

कल्पना कीजिए कि संयुक्त राज्य अमेरिका पर कोई विदेशी शक्ति आक्रमण कर दे, जो 12 मिलियन से 24 मिलियन अमेरिकियों को मार डाले, हर शहर में लोगों को प्रताड़ित करे और 100 मिलियन अमेरिकियों को निर्वासन में डाल दे, संयुक्त राज्य के नारीवादी आक्रमणकारियों का समर्थन करें। इसके बाद, आपको क्या लगता है कि ज्यादातर अमेरिकी किसी विदेशी शक्ति द्वारा दूसरे आक्रमण के बारे में, या नारीवाद के बारे में कैसा महसूस करेंगे?

आपको क्या लगता है कि ज्यादातर अफगान महिलाएं एक और आक्रमण के बारे में कैसा महसूस करती होंगी? इस बार अमेरिकियों ने किया था। सोवियत हमले में मृत, अपंग और शरणार्थियों के आंकड़े अमूर्त नहीं थे। वे जीवित महिलाएं थीं, उनके बेटे-बेटियां, पति, भाई-बहन, माता और पिता थे।

जब सोवियत संघ चला गया, हार गया, तो अफगानियों ने राहत की सांस ली। लेकिन तब मुजाहिदीन के स्थानीय नेताओं ने कम्युनिस्टों और आक्रमणकारियों का प्रतिरोध किया था और स्थानीय सरदार बन गए और फिर जीत का सेहरा बांधने और लूट के लिए एक-दूसरे से लड़ने लगे। उससे पहले ज्यादातर अफगानों ने मुजाहिदीन का समर्थन किया था, लेकिन अब उन्हीं के लालच, भ्रष्टाचार और अंतहीन बेकार की जंग से घृणा होने लगी।

1994 की शरद ऋतु में दक्षिणी अफगानिस्तान के सबसे बड़े पश्तून शहर कंधार में तालिबान ने दस्तक दी। वे बीसवीं सदी के नवाचारों, हवाई बमबारी और पाकिस्तान में शरणार्थी शिविरों के उत्पाद थे। वे अफ़ग़ानिस्तान पर शासन करने वाले अभिजात्य वर्ग से भिन्न सामाजिक वर्ग के थे।

कम्युनिस्ट शहरी मध्य वर्ग के बेटे और बेटियां थे या ग्रामीण इलाकों में मध्यम स्तर के किसान थे, जिनके पास पर्याप्त जमीन थी। उनका नेतृत्व काबुल में देश के एकमात्र विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले लोगों ने किया था। वे बड़े जमींदारों की शक्ति को तोड़कर देश का आधुनिकीकरण करना चाहते थे।

कम्युनिस्टों से लड़ने वाले इस्लामवादी समान वर्ग पृष्ठभूमि के पुरुष थे और ज्यादातर एक ही विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र थे। वे भी देश का आधुनिकीकरण करना चाहते थे, लेकिन एक अलग तरीके से। वे काहिरा में मुस्लिम ब्रदरहुड और अल-अल्जहर विश्वविद्यालय के विचारों को देखा।

तालिबान शब्द का अर्थ है इस्लामिक स्कूल के छात्र, न कि सरकारी स्कूल या विश्वविद्यालय के। 1994 में कंधार में प्रवेश करने वाले तालिबान के लड़ाके युवा थे, जिन्होंने पाकिस्तान में शरणार्थी शिविरों में मुक्त इस्लामी स्कूलों में अध्ययन किया था। वे ऐसे बच्चे थे, जिनके पास कुछ नहीं था।

तालिबान के नेता अफगानिस्तान के गांवों के मुल्ला थे। उनके शहर की मस्जिदों के इमामों जैसे कुलीन संबंध नहीं थे। उनकी सामाजिक स्थिति एक जमींदार या सरकारी कार्यालय में हाईस्कूल के स्नातक से काफी नीचे थी।

तालिबान का नेतृत्व 12 लोगों की एक समिति ने किया। युद्ध होने पर सोवियत बमों की चपेट में आकर सभी बारहों ने एक हाथ, एक पैर या एक आंख खो दी थी। तालिबान, बाकी बातों के अलावा, गरीब और मध्यम पश्तून गांव के पुरुषों की पार्टी थी।

20 साल के युद्ध ने कंधार को अराजक और युद्धरत लड़ाकों की दया पर छोड़ दिया था। फिर एक घटना ने तालिबान को हीरो बना दिया, जब तालिबान ने एक लोकल कमांडर को पकड़कर फांसी पर लटका दिया, जिसने एक लड़के से कुकर्म किया था और दो-तीन महिलाओं से बलात्कार किया था। लोगों की गरिमा और सुरक्षा को बहाल करने के दृढ़ संकल्प की यह नजीर बन गई, इसके साथ ही अन्य इस्लामवादियों के पाखंड से उनकी घृणा स्पष्ट हो गई।

शुरुआत में तालिबान को सउदी अरब, अमेरिका और पाकिस्तानी सेना ने वित्त पोषित किया था। तब वाशिंगटन एक शांतिपूर्ण देश चाहता था, जो मध्य एशिया से तेल और गैस पाइपलाइन को वहां से गुजार सके।

बहुत से अफ़गान व्यवस्था बहाल होने और मामूली सुरक्षा के लिए ही आभारी थे, लेकिन तालिबान सांप्रदायिक थे और देश को नियंत्रित करने में असमर्थ थे। तालिबान के कठोर रवैये और मनमानी कर पाने में नाकामी को देखते हुए 1996 में अमेरिकियों ने अपना समर्थन वापस ले लिया। इसके बाद उन्होंने तालिबान के खिलाफ इस्लामोफोबिया का एक नया और घातक प्रचार शुरू कराया।

रातोंरात अफगान महिलाओं को असहाय और उत्पीड़ित साबित कर दिया, अफगान पुरुषों को तालिबान और तालिबान को कट्टर, बर्बर, परपीड़क पितृसत्ता के रूप में बदनाम कर दिया।

9/11 से चार साल पहले ही तालिबान को अमेरिकियों ने निशाना बनाया और नारीवादियों और अमरीकी शासकों के तमाम बौद्धिक लोगों ने अफगान महिलाओं की सुरक्षा के लिए आवाज उठाना शुरू कर दी थी। जब तक अमेरिकी बमबारी शुरू हुई तो हर कोई यह समझने लगा कि अफगान महिलाओं को मदद की जरूरत है। इसमें क्या गलत होगा?

बमबारी 7 अक्टूबर को शुरू हुई। युद्ध की तस्वीरों ने लोगों को हिला दिया। यूरोप में बहुत से लोग बमबारी के पैमाने और अफगानों की तबाही से स्तब्ध रह गए। संयुक्त राज्य अमेरिका में प्रतिशोध और देशभक्ति के माहौल असहमति की आवाजें दुर्लभ या न सुनी जाने वाली थीं। अपने आप से पूछें, जैसा कि सबा महमूद ने उस समय पूछा था।

आप एक नागरिक आबादी पर बमबारी करके ‘अफगान महिलाओं को कैसे बचा सकते हैं’, जिसमें खुद महिलाएं, उनके बच्चे, उनके पति, पिता और भाई शामिल हैं? यह सवाल होना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

इस्लामोफोबिया के आधार पर बदला लेने को असमान युद्ध दुनिया की नज़र में बहुत अच्छा नहीं लगता, इसलिए कुछ ऐसा किया गया जो सदाचारी लगे।

17 नवंबर 2001 को राष्ट्रपति बुश की पत्नी लौरा बुश ने अफगान महिलाओं की दुर्दशा पर खासी फिक्र और दुख जताया। कुछ दिनों बाद ब्रिटिश प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर की पत्नी चेरी ब्लेयर ने लाैरा बुश की ही बात को दोहराया। अमीर जंगखोरों की पत्नियां पीड़ितों को दोष देने और पृथ्वी के सबसे गरीब लोगों से एक अफगानियों के खिलाफ युद्ध को जायज ठहराने का सदाचारी अंदाज में प्रचार करने लगीं। ‘सेविंग अफगान वीमेन’ अमेरिकी युद्ध को सही ठहराने के लिए उदारवादी नारीवादियों की पुकार बन गई।

इस्लामोफोबिया का कोरस अमेरिकी उदारवादियों के बीच गूंजने लगा। अंतहीन युद्धों के लिए उनके पास केवल एक ही औचित्य था – अफगान महिलाओं की पीड़ा। यह एक चतुर चाल थी। इसने तालिबान के निस्संदेह लैंगिक भेदभाव वाले शासन और संयुक्त राज्य अमेरिका में सेक्सिज्म के बीच फर्क को समझने से रोक दिया। इसने उन काल्पनिक ‘सेव वीमन’ मुहिम से जुड़ी महिलाओं को हज़ारों वास्तविक अफगान महिलाओं से, अमेरिकी बमों द्वारा मारे गए, घायल, अनाथ या बेघर और भूखे पुरुषों और बच्चों से दूर कर दिया। यह आक्रमणकारी और भ्रष्ट शासकों का, खाए-अघाए वर्ग का नारीवाद था।

यह सच है कि तालिबान गहराई से लैंगिक भेदभाव वाले हैं। दूसरी ओर, सोवियत आक्रमणकारियों की क्रूरता का पक्ष लेने वाले कम्युनिस्टों ने कम से कम एक पीढ़ी के लिए अफगानिस्तान में नारीवाद को बदनाम किया था। फिर अमेरिका ने आक्रमण किया और अफगान महिला पेशेवरों की एक नई पीढ़ी ने नए आक्रमणकारियों के साथ महिला अधिकारों की जीत बताने की कोशिश की। इनमें कुछ कॅरियरवादी थे, कुछ फंडिंग के बदले मुंहफट बयानबाजी कर रहे थे। जबकि तमाम ईमानदार और निस्वार्थ सपने से प्रेरित थे। उनकी विफलता दुखद है।

तालिबानियों की रूढ़ियों के बारे में भ्रम

अफगानिस्तान के बाहर पिछले 25 सालों में तालिबान की रूढ़ियों के बारे में बहुत भ्रम फैला है। रूढ़िवादी शब्द सुनते ही लगता है कि वे सामंती, क्रूर और आदिम हैं। हकीकत यह है कि नए तालिबान लैपटॉप वाले लोग हैं, जो पिछले 14 सालों से कतर में अमेरिकियों के साथ बातचीत करते रहे हैं, राजनीतिक कार्यालय चला रहे हैं।

तालिबान मध्ययुग की उपज नहीं हैं। वे बीसवीं सदी के उत्तरार्ध के कुछ सबसे खराब वक्त के उत्पाद हैं। हवाई बमबारी, शरणार्थी शिविरों, साम्यवाद, आतंक के युद्ध, आधुनिक निगरानी और पूछताछ, जलवायु परिवर्तन, इंटरनेट राजनीति और नवउदारवाद के बीच बढ़ती असमानता के बीच उनका जीवन भी ढला है। वे भी वैसे ही रहते हैं, जैसे बाकी लोग।

कबीलाई समाज में उनकी जड़ें भ्रमित करने वाली हो सकती हैं। जनजातियां नास्तिक संस्थाएं नहीं होतीं। खेती-किसानी और आस्थाओं को परंपरागत और आधुनिक समझ के साथ जिंदगी यहां भी चलती है। अफगानिस्तान का इतिहास कभी भी जातीय समूहों के बीच प्रतिस्पर्धा का मामला नहीं रहा है, बल्कि समूहों के बीच जटिल गठबंधनों और समूहों के भीतर ही विभाजन का रहा है।

वामपंथी पूर्वाग्रह से कई बार यह सवाल होता है कि तालिबान गरीबों और साम्राज्यवाद विरोधी के पक्ष में कैसे हो सकता है, जब वे “प्रगतिशील” नहीं हैं! बेशक, तालिबान समाजवाद और साम्यवाद के विरोधी हैं। वे खुद, या उनके माता-पिता या दादा-दादी, समाजवादियों और कम्युनिस्टों द्वारा मारे गए और प्रताड़ित किए गए। इसके अलावा, कोई भी आंदोलन, जिसने बीस साल का गुरिल्ला युद्ध लड़ा है और एक महान साम्राज्य को हराया है, वह साम्राज्यवाद विरोधी है, या शब्दों का कोई अर्थ ही नहीं है।

हकीकत यही है कि तालिबान इतिहास में उपजे अंतर्विरोधों से बना ऐसा बंडल है, जो गरीब किसानों की आवाज है और साम्राज्यवादी कब्जे के खिलाफ है, जिसे बड़ी संख्या में महिलाओं का भी समर्थन है, जिसकी सूरत कभी नस्लवादी और सांप्रदायिक होती है और कई बार नहीं भी।

तालिबान को लेकर वर्गीय राजनीति के नजरिए से भी भ्रम पैदा होता है, कि जब वे साफतौर पर समाजवाद के कट्टर विरोधी है तो गरीबों के पक्ष में कैसे हो सकते हैं। इसका उत्तर यह है कि रूसी कब्जे के तजुर्बे ने समाजवादी बदलाव की उम्मीदों पर पानी फेर दिया। जबकि वर्गीय हकीकत नहीं बदली, न ही सत्ता संभालने वालों ने गरीब किसानों के हक में काेई आंदोलन चलाया। दरअसल, तालिबान वर्ग की भाषा में नहीं, बल्कि सामान्य न्याय और भ्रष्टाचार को सामने रखकर बात करते है और उसी के आधार पर सही गलत की व्याख्या करते हैं।

इसका मतलब यह नहीं है कि तालिबान गरीबों के हित में शासन करेगा। हमने देखा है, पिछली शताब्दी और उससे भी पहले कई किसान विद्रोह के बाद भी सत्ता शहरी अभिजात वर्ग के हाथ में आई। तालिबान भी तानाशाह बनने का इरादा रखता है, न कि लोकतांत्रिक। ऐसा होना अनोखी बात नहीं होगी।

अमेरिकी सदी के अंत की शुरुआत

Taliban China USA Afghanistan

काबुल का पतन दुनियाभर में अमेरिकी शक्ति के की निर्णायक हार का प्रतीक बन गया। इसी के साथ यह अमेरिकियों के बीच अमेरिकी साम्राज्य से बेरुखी का भी पड़ाव है। सबूत है जनमत सर्वेक्षण। वर्ष 2001 में, 9/11 के बाद 85 से 90 फीसद अमेरिकियों ने अफगानिस्तान पर आक्रमण को मंजूरी दी थी, बाद में इस समर्थन में गिरावट होती रही है। पिछले महीने 62 प्रतिशत अमेरिकियों ने सैनिक वापसी की बाइडेन की योजना पर सहमति जताई, जबकि सिर्फ 29 प्रतिशत ने वापसी का विरोध किया।

युद्ध की यह अस्वीकृति आम है। रिपब्लिकन पार्टी से जुड़ा मजदूर वर्ग का हिस्सा, सैनिकों के परिवार, ग्रामीण क्षेत्र, जहां ट्रंप के नारे अमेरिका फर्स्ट को आधार मिला, वह भी अब विदेश में युद्धों के खिलाफ है। अमेरिका में दक्षिणपंथी देशभक्ति सेना समर्थक, सैनिक समर्थक है, लेकिन युद्ध समर्थक नहीं। जब वे ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ कहते हैं, तो उनका मतलब होता है कि अमेरिका को अमेरिकियों के लिए महान बनना चाहिए, न कि दुनिया में युद्ध करना चाहिए।

डेमोक्रेट्स में भी मजदूर वर्ग का हिस्सा युद्धों के खिलाफ है। यह सही है कि ऐसे लोग भी हैं जो सैन्य हस्तक्षेप का समर्थन करते हैं। लेकिन समग्र रूप से अमेरिकी लोग अमेरिकी साम्राज्य के खिलाफ हो गए हैं।

1918 से, संयुक्त राज्य अमेरिका दुनिया के सबसे शक्तिशाली राष्ट्रों में शुमार हो गया। प्रतिस्पर्धा में पहले जर्मनी, फिर सोवियत संघ रहा और अब चीन है। इसी के साथ, दबदबा बनाने की कोशिशों के बीच वह ‘अमेरिकन सेंचुरी’ अब खत्म हो रही है। दीर्घकालिक कारण चीन की आर्थिक वृद्धि और संयुक्त राज्य की सापेक्ष आर्थिक गिरावट है।

कोविड महामारी और अफगानिस्तान की हार ने पिछले दो वर्षों में अमेरिका को खास मोड़ पर खड़ा कर दिया है। कोविड महामारी ने अमेरिका के शासक वर्ग और सरकार की संस्थागत अक्षमता को उजागर कर दिया, व्यवस्था लोगों की रक्षा करने में विफल रही। यह अराजक स्थिति और शर्मनाक विफलता दुनिया के सामने साफ है।

अफगानिस्तान में क्या हुआ! सैन्य बजट और साजोसामान के हिसाब से अमेरिका की सैन्य ताकत विशाल है। इसके बावजूद इस विशाल सैन्य ताकत को छोटे से देश के गरीब लोगों ने हरा दिया, जिनके पास सब्र और हिम्मत के अलावा कुछ खास नहीं है। इसका असर कहां तक होगा? तालिबान की जीत से सीरिया, यमन, सोमालिया, पाकिस्तान, उज्बेकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, ताजिकिस्तान और माली में अमेरिका विरोधी ताकतों को हिम्मत देगी, जिसका परिणाम कैसा होगा, अंदाजा ही लगाया जा सकता है।

संयुक्त राज्य अमेरिका के अनौपचारिक साम्राज्य की ताकत एक सदी से तीन अलग-अलग पिलर पर खड़ी है। एक दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और वैश्विक वित्तीय प्रणाली का वर्चस्व। दूसरा लोकतंत्र, क्षमता और सांस्कृतिक नेतृत्व की प्रतिष्ठा। तीसरा दुश्मनों को दंडित करने के लिए आक्रमण।

सैन्य शक्ति अब चली गई है। कोई भी अक्लमंद सरकार इस बात पर भरोसा नहीं करेगी कि अमेरिका उन्हें किसी विदेशी आक्रमणकारी या अपने ही लोगों से छुड़ा सकता है। ड्रोन हत्याएं सैन्य रूप से निर्णायक नहीं होतीं। बाकी दोनों पिलर भी प्रतिद्वंद्वियों की टक्कर से हिल रहे हैं। यही संकेत है कि यह अमेरिकी सदी के अंत की शुरुआत है।

अफगानिस्तान में आगे क्या हो सकता है?

PROBLEMATIC LIFE OF AFGAN POPULATION, PC: INTERNET

अगले कुछ सालों में अफगानिस्तान में क्या होगा, यह कोई नहीं जानता। लेकिन हम कुछ दबावों की पहचान कर सकते हैं।

पहला, अफगानों के दिलों में शांति की गहरी लालसा है। वे 43 साल के युद्ध से गुजर चुके हैं। सोचिए कि पांच-दस साल के गृहयुद्ध और आक्रमण ने कई देशों को तबाह कर दिया तो 43 साल का असर क्या होगा। काबुल, कंधार और मजार, तीन सबसे महत्वपूर्ण शहर, सभी बिना किसी हिंसा के तालिबान के कब्ज में आ गए। ऐसा इसलिए, क्योंकि तालिबान, जैसा कि वे कहते रहते हैं, एक शांति वाला देश चाहते हैं, और वे बदला नहीं लेना चाहते। ऐसा इसलिए भी हुआ कि जो लोग तालिबान का समर्थन नहीं करते, उनसे नफरत करते हैं, उन्होंने भी लड़ने का विकल्प नहीं चुना।

तालिबान नेता इस बात को बखूबी जानते हैं कि उन्हें आम लोगों की शांति की हसरत पूरी करना चाहिए। इसके लिए यह भी जरूरी है कि तालिबान निष्पक्ष न्याय करते रहें। इस मामले में उनका रिकॉर्ड अच्छा है। प्रलोभनों और दबावों ने कई देशों में नई सरकारों और कई सामाजिक आंदोलनों को भ्रष्ट कर दिया।

आर्थिक पतन भी संभावित है। अफगानिस्तान एक गरीब और शुष्क देश है, जहां 5 प्रतिशत से भी कम भूमि पर खेती की जा सकती है। पिछले बीस वर्षों में शहरों का विकास हुआ है। यह विकास कारोबार के अलावा एक हद तक अफीम उगाने से होने वाली आमदनी पर निर्भर रहा है। बड़ी विदेशी मदद के बिना आर्थिक आर्थिक तबाही का खतरा मंडराता रहेगा।

तालिबान भी यह जानता है, इसीलिए वे स्पष्ट रूप से अमेरिका से डील की पेशकश कर चुके हैं। अमेरिकी सहायता देंगे, बदले में तालिबान उन आतंकवादियों को ठिकाना नहीं देगा जो 9/11 जैसे हमले शुरू कर सकते हैं। ट्रंप और बाइडेन दोनों प्रशासनों ने इस सौदे को स्वीकार कर लिया है। लेकिन अमेरिका उस वादे को पूरा करेगा, संदेहास्पद है।

अभी की स्थितियों में कुछ भी बदतर पूरी तरह से संभव है। अमेरिकी प्रशासन ने लंबे समय से विनाशकारी आर्थिक प्रतिबंधों से इराक, ईरान, क्यूबा और वियतनाम को उनकी अवज्ञा के लिए दंडित किया है। फिर मानवाधिकारों के नाम पर अफगान बच्चों को भूखा रखने के लिए अमेरिका में कई आवाजें उठेंगी। फिर अफगानिस्तान के अंदर विभिन्न राजनीतिक या जातीय ताकतों का समर्थन कर अंतरराष्ट्रीय हस्तक्षेप का खतरा पैदा हो सकता है। संयुक्त राज्य अमेरिका, भारत, पाकिस्तान, सऊदी अरब, ईरान, चीन, रूस और उज्बेकिस्तान सभी को लुभाया जाएगा। यह पहले भी हो चुका है, और आर्थिक पतन की स्थिति में यह छद्म युद्धों को भड़का सकता है।

फिलहाल, ईरान, रूस और पाकिस्तान समेत अधिकांश पड़ोसी देशों की सरकारें स्पष्ट रूप से अफगानिस्तान में शांति चाहती हैं।

तालिबान ने भी क्रूरता से शासन नहीं करने का वादा किया है। उन परिवारों को कठोरता का सामना करना पड़ सकता है जिन्होंने भ्रष्टाचार और अपराध के माध्यम से बड़ी संपत्ति जमा की है। आपको क्या लगता है कि गांवों के गरीब सैनिक क्या करना चाहेंगे?

जलवायु भी चुनौती है। 1971 में पूरे उत्तर और केंद्र में सूखे और अकाल ने पशुओं, फसलों और इंसानी जीवन को तबाह कर दिया। यह इस क्षेत्र पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का पहला संकेत था, जिसने पिछले पचास वर्षों में बड़े पैमाने पर सूखे से बर्बादी मुसीबत दिखाई। देरसबेर, खेती-पशुपालन अनिश्चित होने की संभावनाएं बहुत हैं।

ये सभी खतरे वास्तविक हैं। इसी के साथ अफगानिस्तान इतिहास के नए पायदान पर पैर रख चुका है।

आप क्या कर सकते हैं? शरणार्थियों का स्वागत

पश्चिम में बहुत से लोग अब पूछ रहे हैं, ‘हम अफगान महिलाओं की मदद के लिए क्या कर सकते हैं?’ अमूमन यह सवाल इस तरह होता है, जैसे ज्यादातर अफगान महिलाएं तालिबान का विरोध करती हैं और अफगान पुरुष उनका समर्थन करते हैं। यह कैसी बकवास है! क्या किसी समाज में ऐसा होना मुमकिन है?

असल सवाल है, वे अफगान नारीवादियों की कैसे मदद कर सकते हैं? इसका जवाब है, उन्हें हवाई जहाज के टिकट देकर यूरोप और उत्तरी अमेरिका में शरण देना। लेकिन, पनाह की जरूरत केवल नारीवादियों को ही नहीं होगी। हजारों पेशेवर लोगों को परिवारों के साथ शरण चाहिए है, जिन्होंने अफगान सरकार के लिए काम किया। इनमें से कुछ लोग प्रशंसनीय हैं, कुछ भ्रष्ट राक्षस हैं, कुछ बीच की स्थिति में हैं, और इसके अलावा सिर्फ बच्चे हैं।

यहां एक नैतिक होना जरूरी है। संयुक्त राज्य अमेरिका और नाटो देशों ने बीस वर्षों में अपार दुख दिया है। कम से कम उन्हें इतना तो करना चाहिए कि उन लोगों को बचाएं, जिनके जीवन को उन्होंने तबाह कर दिया। अमेरिकी और ब्रिटिश सरकारों की उनके लिए काम करने वाले लोगों को बचाने में विफलता शर्मनाक है। यह वास्तव में एक विफलता नहीं है, बल्कि एक विकल्प है।

अफगानों के लिए अभियान अभी भी संभव हैं। बेशक नस्लवाद और इस्लामोफोबिया को लेकर तमाम बातें होंगी। लेकिन पिछले दिनों जर्मनी और नीदरलैंड की सरकारों ने अफगानों के किसी भी निर्वासन को निलंबित कर दिया। कोई भी राजनेता, कहीं भी, जो अफगान महिलाओं के लिए बोलता है, उसे सभी अफगानों के लिए सीमाएं खोलने के लिए भी बोलना चाहिए।

तालिबान और आईएस जैसे आतंकी नेटवर्क

तालिबान ने केवल पश्तून आंदोलन बनना बंद कर दिया और ताजिकों-उज्बेकों की भर्ती करते हुए राष्ट्रीय हो गए हैं। उनमें हाजरा भी हैं। भले ही कम हों संख्या में। हाजरा परंपरागत रूप से मध्य पहाड़ों में रहने वाले लोग हैं। जिनमें से काफी मजार और काबुल जैसे शहरों में भी बस गए, जहां उन्होंने कुलियों के रूप में या दूसरे कम पगार वाले कामों को किया।

वे अफगान आबादी का लगभग 15 प्रतिशत हैं। पश्तूनों और हाजराओं के बीच दुश्मनी की जड़ें आंशिक रूप से भूमि और चराई के अधिकारों को लेकर लंबे समय से चले आ रहे विवादों में हैं। हाजरा शिया हैं, और लगभग सभी अन्य अफगान सुन्नी हैं।

इराक में सुन्नियों और शियाओं के बीच संघर्ष ने उग्रवादी इस्लामी परंपरा को विभाजित कर दिया है। यह विभाजन जटिल है, लेकिन महत्वपूर्ण है। इराक और सीरिया दोनों में इस्लामिक स्टेट ने शियाओं का नरसंहार किया है, जवाब में शिया मिलिशिया ने दोनों देशों में सुन्नियों का नरसंहार किया है।

अल कायदा के परंपरागत नेटवर्क शियाओं पर हमला करने के कट्टर विरोधी रहे हैं और मुसलमानों के बीच एकजुटता की वकालत करते हैं। लोग बताते हैं कि ओसामा बिन लादेन की मां खुद शिया थीं। अल कायदा और इस्लामिक स्टेट के बीच विभाजन में यह मुख्य मुद्दा था।

अफगानिस्तान में तालिबान ने भी इस्लामी एकता पर जोर दिया है। इस्लामिक स्टेट द्वारा महिलाओं का यौन शोषण भी तालिबान के मूल्यों के खिलाफ है। लैंगिग भेदभाव को गहराई से मानने के बावजूद वे शुद्धतावादी और विनम्र हैं। कई वर्षों से अफगान तालिबान शियाओं, ईसाइयों और सिखों पर आतंकी हमलों की सार्वजनिक निंदा करते रहे हैं। फिर भी हमले होते हैं।

दरअसल, इस्लामिक स्टेट के विचारों का पाकिस्तानी तालिबान पर विशेष प्रभाव पड़ा है। वहीं अफगान तालिबान एक अलग संगठन है। पाकिस्तानी तालिबान एक कमजोर नेटवर्क है, जो अफगानों के नियंत्रण में नहीं है। उन्होंने ही पाकिस्तान में शियाओं और ईसाइयों के खिलाफ कई बार बमबारी की है, हत्याकांडों को अंजाम दिया है। पिछले दिनों इस्लामिक स्टेट और हक्कानी नेटवर्क ने काबुल में हाजराओं और सिखों पर आतंकवादी बम विस्फोट किए तो तालिबान नेतृत्व ने उन सभी हमलों की निंदा की।

अफगानिस्तान में इस्लामिक स्टेट तालिबान से अलग छोटा आतंकी गुट है, जिसका असर पूर्व में निंगराहार प्रांत में है। वे कट्टर शिया विरोधी हैं। इसी तरह हक्कानी नेटवर्क, लंबे समय से चला आ रहा मुजाहिदीन गुट है, जिस पर पाकिस्तान के कट्टरपंथियों का नियंत्रण बताया जाता है। लेकिन अभी यह तालिबान से घुलमिल गया है और उनका नेता भी तालिबान नेताओं में से एक है।

इन स्थितियों में भविष्य को लेकर कोई निश्चित बात नहीं हो सकती। साल 1995 में मज़ार में हाजराओं के एक विद्रोह ने तालिबान को उत्तर पर नियंत्रण करने से रोक दिया था, उनके प्रतिरोध की परंपरा इससे भी गहरी रही है। पड़ोसी देशों में हाजरा शरणार्थी भी अब फिर खतरे में पड़ सकते हैं। ईरान की सरकार तालिबान के साथ मेलजोल की कोशिश कर रही है और उनसे शांतिपूर्ण रहने की भीख मांग रही है।

वे ऐसा इसलिए कर रहे हैं क्योंकि ईरान में पहले से ही करीब 30 लाख अफगान शरणार्थी हैं, जो बरसों से वहां हैं। ये ज्यादातर अफगान शरणार्थी हाजरा शिया हैं, जो ज्यादातर शहरों के गरीब मजदूर परिवार हैं। हाल ही में, ईरानी सरकार ने खुद आर्थिक तंगी से हताश होकर इन अफगानों को वापस अफगानिस्तान भेजना शुरू कर दिया है।

पाकिस्तान में भी करीब 10 लाख हाजरा शरणार्थी हैं। क्वेटा के आसपास के क्षेत्र में बसे इनमें से 5000 से ज्यादा सांप्रदायिक हत्याओं और नरसंहारों का शिकार हो चुके हैं। उनकी हिफाजत को पाकिस्तानी पुलिस और सेना कुछ नहीं करती। उन लोगों को अब ज्यादा जोखिम हो सकता है। लिहाजा, अफगानिस्तान के भविष्य के लिए जरूरी यही है कि सब ज्यादातर अफगानों की तरह शांति के लिए प्रार्थना और कोशिश करें।

हालात को ग्राहम नाइट के शब्दों से समझा जाए। उनके बेटे, ब्रिटिश रॉयल एयर फोर्स के सार्जेंट बेन नाइट 2006 में अफगानिस्तान में मारे गए थे। बीते दिनों ग्राहम नाइट ने प्रेस एसोसिएशन से कहा कि यूके सरकार को नागरिकों को बचाने के लिए तेजी से आगे बढ़ना चाहिए था:

”हमें तालिबान के कब्जे पर कोई आश्चर्य नहीं है, क्योंकि जैसे ही अमेरिकियों और अंग्रेजों ने कहा कि वे जाने वाले हैं, हमें पता था कि यह होने वाला है। तालिबान ने अपनी मंशा बिल्कुल स्पष्ट कर दी थी कि जैसे ही अमेरिकी-अंग्रेज बाहर जाएंगे, वे अंदर आ जाएंगे।

युद्ध की वजह से तमाम लोगों की जान चली गई, जिसको जीतने की जरूरत ही नहीं थी। मुझे लगता है कि समस्या यह थी कि हम उन लोगों से लड़ रहे थे जो देश के मूल निवासी थे। हम आतंकवादियों से नहीं लड़ रहे थे, हम ऐसे लोगों से लड़ रहे थे जो वास्तव में वहां रहते थे और हमारी मौजूदगी उनको पसंद नहीं थी।”


Disclaimer: यह लेख अफगानिस्तान में 50 साल फील्डवर्क कर चुके मानवविज्ञानी नैंसी लिंडिसफर्न और जोनाथन नेले ने लिखा है, जो उनके अनुभव पर आधारित निजी विचार हैं, ‘द लीडर’ तथ्यों की स्वतंत्र रूप से पुष्टि नहीं कर सकता। अंग्रेजी में प्रकाशित मूल लेख पढ़ने को लिंक क्लिक करें।

भावानुवाद: आशीष आनंद


यह भी पढ़ें: 20 साल बाद तालिबान को वापसी की ताकत कैसे और क्यों मिली?


(आप हमें फ़ेसबुकट्विटरइंस्टाग्राम और यूट्यूब पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं)

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here