20 साल बाद तालिबान को वापसी की ताकत कैसे और क्यों मिली?

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आशीष आनंद-

यह संदेह तो अब किसी को नहीं है कि अफगानिस्तान में अब तालिबान सरकार चलेगी। बेहद रोमांचक तरीके से तालिबान ने देश की सत्ता को अपने हाथों में ले लिया। कई देशों की सत्ताएं इस उथल-पुथल को अपने हितों के हिसाब से आंकते-नापते हुए फैसले लेते नजर आए और आगे की रणनीति पर राय-मशविरा कर रहे हैं। (Taliban China USA Afghanistan)

इस घटनाक्रम पर अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने औपचारिक संबोधन में कहा, ‘हम लगभग 20 साल पहले स्पष्ट लक्ष्यों के साथ अफगानिस्तान गए थे, 11 सितंबर, 2001 को हम पर हमला करने वालों को सबक सिखाने, यह सुनिश्चित करने कि हम पर हमला करने के लिए अलकायदा अफगानिस्तान को एक आधार के रूप में इस्तेमाल न कर सके। यह हमने एक दशक पहले ही कर दिया। हमारा मिशन कभी भी राष्ट्र निर्माण के लिए नहीं था।’

उन्होंने यह भी कहा, चीन और रूस यही चाहेंगे कि अमेरिका बेमियादी तौर पर दलदल में फंसा रहे, अगर तालिबान अमेरिकी हितों पर हमला करता है तो उसे ‘विनाशकारी’ प्रतिक्रिया का सामना करना पड़ेगा। (Taliban China USA Afghanistan)

फिर, ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन से फोन पर बातचीत में बाइडेन ने ”पिछले 20 वर्षों में अफगानिस्तान में हासिल लाभ को नहीं खोने, आतंकवाद से किसी भी उभरते खतरे से खुद को बचाने और अफगानिस्तान के लोगों का सहयोग जारी रखने के महत्व पर जोर दिया।”

अफगानिस्तान में तालिबान का नियंत्रण.

इस तमाम अफरातफरी के बीच अमेरिका को वैश्विक टक्कर दे रहे चीन ने तालिबान के सत्ता में आने का स्वागत किया। यह भी कहा कि चीनी दूतावास सुचारू चलता रहेगा। ईरान ने इस वाकये को कुछ ऐसे बताया, जैसे अमेरिका की ‘असफलता का स्मारक’ हो। पाकिस्तान ने भी चीन के सुर में सुर मिलाया। (Taliban China USA Afghanistan)

कुल मिलाकर अमेरिका और उसके सहयोगी देश तालिबान के सत्ता में आने से दुखी हैं या वो रास्ते तलाश रहे हैं कि आने वाले दिनों में उनको नुकसान न हो। वहीं चीन और उसके सहयोगी देश तालिबानी सत्ता के साथ भविष्य के ख्वाब देख रहे हैं।


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इस मामले पर तीन पक्षों से बात को समझने की जरूरत है। एक चीन खेमा, दूसरा अमेरिकी खेमा और तीसरा खुद तालिबान के नेतृत्व में अफगानिस्तान।

यह सवाल आम है कि तालिबान इतना ताकतवर कैसे हो गया? कैसे वह हर अनुमान को धता बताकर बीस साल बाद अफगानिस्तान की सत्ता पर वापसी कर गया? इस सवाल के जवाब अलग-अलग हो सकते हैं। ऊपरी तौर पर कई जवाब सही लग सकते हैं। लेकिन, किसी भी घटना की कोई ठोस जमीन तो होगी ही। तालिबान की वापसी की भी है। यहां सबसे पहले कुछ बुनियादी बातों को समझना जरूरी है।

पहला, आधुनिक विश्व में कोई भी युद्ध या सत्ता परिवर्तन किसी गुट या व्यक्ति की महज इच्छा का परिणाम नहीं होता, बल्कि उसके पीछे आर्थिक वजह होती है। दो विश्व युद्ध रहे हों या फिर इराक, अफगानिस्तान, सीरिया…। दूसरा, यह दुनिया साम्राज्यवादी मंसूबों के जाल में फंसी है। (Taliban China USA Afghanistan)

मुनाफे की खातिर कुछ साम्राज्यवादी देश अपनी मल्टीनेशनल कंपनियों और पूंजी के विस्तार के लिए किसी भी हद तक गुजर सकते हैं। वे अपने नफा-नुकसान को इससे तय करते हैं कि हम कितना खर्च कर रहे हैं और इस जमीन से कितना माल बटोर लेंगे। उन्हें इससे मतलब नहीं कि कितने लोग मारे जाएंगे या कितने लोग तरक्की करेंगे।

इतिहास में थोड़ा पीछे जाएं। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद दो ध्रुवीय विश्व बना। एक खेमा समाजवादी सोवियत संघ के साथ था तो दूसरा अमेरिकी साम्राज्यवाद के। दूसरे विश्वयुद्ध के दस साल गुजरने के बाद सोवियत संघ का खेमा भी उसी अंदाज पूंजी विस्तार के मकसद की राह पर चल पड़ा, जैसे अमेरिकी गुट। तब तक चीन ठीक जगह था।

बीस साल और बीते कि चीन भी उसी रास्ते पर आ गया। अमेरिका और रूस के बीच इस ध्रुवीय जंग में सोवियत खेमा बिखर गया। इस दौर में अमेरिका ने सोवियत संघ के खिलाफ अफगानिस्तान के ‘कबीलाई समाज’ में कट्टरपंथ के बीज बोए और उन्हें मजबूत करके सोवियतों के खिलाफ मैदान में उतार दिया था। (Taliban China USA Afghanistan)

सोवियत संघ का सैन्य दल अफगानिस्तान से वापस हो गया। अब कट्टरपंथियों की नई लड़ाई अमेरिका से शुरू हाे गई। तालिबान सत्ता में आए और उन्होंने ऐतिहासिक सांस्कृतिक विरासत को नष्ट करने के साथ समाज को मध्ययुगीन परंपरा में धकेल दिया। फिर, ट्विन टॉवर पर हमला हुआ और अलकायदा और तालिबान को खदेड़ने के नाम पर अमेरिकी फौज अफगानिस्तान में आ धमकीं। तालिबान सत्ता से बेदखल कर दिए गए। अमेरिका ने अपने मनमाफिक निजाम को स्थापित किया, जिसका अंत बीस साल बाद अब हुआ।

इतनी बात दुनिया के अधिकांश समझदार लोग जानते हैं। लेकिन, इस मौके पर दो सवाल उठ रहे हैं। क्या अमेरिका इतना कमजोर हो गया कि तालिबानी हावी हो गए? दो दशक तक अमरीका ने क्या किया, जो अब घर वापसी की अपमानजनक स्थिति से सामना हुआ? अमेरिका अभी भी कौन से हित अफगानिस्तान में देख रहा है, जिसको नुकसान पहुंचने पर धमकी दे रहा है?

इन सवालों का सीधा जवाब यह है कि अमेरिका को दो दशक में जितना हासिल करना था, कर चुका और अब बिना फिजूल खर्च रोककर अपनी जरूरत को शांतिपूर्ण तरीके से हासिल करने की कोशिश में है। असमंजस भी है, लेकिन तालिबान से रिश्ते बनाए रखने की सदिच्छा भी है। (Taliban China USA Afghanistan)


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यह सच्चाई है कि अब अमेरिका वाकई में कमजोर हो गया है। कमजोर का मतलब, वह उतना ताकतवर नहीं रहा, जितना दूसरे विश्वयुद्ध के समय या उसके बाद हो गया था। अमेरिका, उस वक्त जब जापान में दो परमाणु बम फेंककर तबाही मचा सकता था, तो आज भी कर सकता है। परमाणु ताकत तो उसके पास पहले से कहीं ज्यादा है। लेकिन, चाहकर भी नहीं कर सकता। उसको आर्थिक तौर पर जहां यूरोपी देशों ने कंपटीशन देकर कमजोर कर दिया, तो सीधे तौर पर हर मोर्चे पर चीन उसके सामने खड़ा है।

जैसा कि पहले ही बताया कि दूसरे विश्वयुद्ध के तीन दशक बाद चीन ने जिस रास्ते अपनी ताकत बढ़ाना शुरू की, वह उसकी वजह से न सिर्फ ताकतवर हो चुका है, बल्कि उसकी तकनीक और पूंजी इस स्तर पर पहुंच गई है कि उसको निवेश की जगह और उपभोक्ता बाजार, सस्ता श्रम चाहिए। (Taliban China USA Afghanistan)

अमेरिका और चीन के बीच व्यापार युद्ध जगजाहिर है, जो कोरोनाकाल में भी सामने आया। बीते दो साल में सच्चाई यही है कि चीन ने अमेरिका के मुकाबले बाजी मार ली। अमेरिका के हमजोली रहे कई देशों को अपने पाले में खींचने में कामयाब रहा। कई देश अपने वैश्विक ध्रुव बदल चुके हैं। पाकिस्तान, अमेरिका का साथ छोड़कर खुले तौर पर चीन के साथ खड़ा हो चुका है

अफगानिस्तान का घटनाक्रम दरअसल वैश्विक शक्ति संतुलन में बदलाव की मुखर तस्वीर है।

थोड़ा और करीब से समझा जाए। चीन की सरहद अफगानिस्तान से सटी हुई है। लगभग 76 किलोमीटर की सीमा साझा है। अमेरिका परस्त सरकार होने की वजह से चीन को अफगानिस्तान में निवेश की सीमाएं थीं। निवेश के खतरे भी थे, इसलिए पाकिस्तान के मुकाबले बहुत कम अफगानिस्तान में निवेश किया। (Taliban China USA Afghanistan)

फिर भी, चीन ही है जिसने दो साल पहले अफगानिस्तान में पहली रेल लाइन की सौगात दी। एक और रेल प्रोजेक्ट अमेरिकी दुश्मन ईरान का है। कुदरती दौलत से भरपूर अफगानिस्तान में निवेश और बाजार की संभावनाएं बेशुमार हैं। जहां की 70 फीसद आबादी में 25 साल से कम उम्र के युवा हैं, उभरता हुआ मध्यम वर्ग है। सिर्फ सत्ता की नजरें इनायत होना चाहिए या सत्ता अपने हितों के हिसाब से हो।

चार दशकों के युद्ध और घोर गरीबी से जूझ रहे अफगानिस्तान दुनिया का वह देश है, जहां सोना, प्लेटिनम, चांदी, तांबा, लोहा, क्रोमाइट, लिथियम, यूरेनियम, जस्ता, पारा और एल्युमिनियम का विशाल भंडार है। यहां के हाई क्वालिटी वाले पन्ना, माणिक, नीलम, फ़िरोज़ा और लैपिस लाजुली पर रत्न बाजार लंबे अरसे से लार टपका रहा है। (Taliban China USA Afghanistan)

यूनाइटेड स्टेट्स जियोलॉजिकल सर्वे (USGS) ने खनिजों के व्यापक वैज्ञानिक अनुसंधान से निष्कर्ष निकाला कि अफगानिस्तान में 60 मिलियन मीट्रिक टन तांबा, 2.2 बिलियन टन लौह अयस्क, 1.4 मिलियन टन दुर्लभ पृथ्वी तत्व (REE) जैसे लैंथेनम हो सकता है।


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पेंटागन के अधिकारियों के अनुसार, ग़ज़नी प्रांत में एक जगह उनके शुरुआती विश्लेषण से पता चला कि लिथियम होने की संभावना, बोलीविया जैसी है, जो दुनिया का सबसे बड़ा ज्ञात लिथियम भंडार है। यूएसजीएस का अनुमान है कि हेलमंद प्रांत में खाननेशिन खान से 1.1-1.4 मिलियन मीट्रिक टन आरईई का उत्पादन होगा। कुछ रिपोर्टों का अनुमान यहां तक है कि अफगानिस्तान में आरईई संसाधन पृथ्वी पर सबसे बड़े हैं। (Taliban China USA Afghanistan)

दरअसल, आरईई आधुनिक तकनीक का अनिवार्य हिस्सा बन गए हैं। उनका इस्तेमाल सेल फोन, टेलीविजन, हाइब्रिड इंजन, कंप्यूटर, लेजर और बैटरी में किया जाता है। अमेरिकी कांग्रेस के निष्कर्षों ने आरईई को राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण कहा है। इसके बावजूद, अफगानिस्तान पुनर्निर्माण के लिए विशेष महानिरीक्षक (एसआईजीएआर) की रिपोर्ट के अनुसार, अफगानिस्तान के उद्योगों के विकास के लिए वाशिंगटन के पास एकीकृत रणनीति नहीं है।

चीनी आरईई पर पेंटागन की बढ़ती निर्भरता को महसूस करते हुए, जुलाई 2019 में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने 1950 के रक्षा उत्पादन अधिनियम की धारा 303 में संशोधन किया। इसके अलावा, ट्रंप प्रशासन ने उच्च मांग वाले खनिजों के खनन को बढ़ावा देने के मकसद से एनर्जी रिसोर्स गवर्नेंस इनिशिएटिव (ईआरजीआई) शुरू किया। ईआरजीआई में कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, बोत्सवाना, पेरू, अर्जेंटीना, ब्राजील, कांगो लोकतांत्रिक गणराज्य, नामीबिया, फिलीपींस और जांबिया शामिल हैं। अफगानिस्तान को भी ईआरजीआई का हिस्सा बनाने की रणनीति रही।

आरईई टैंक नेविगेशन सिस्टम, गाइडेड मिसाइल सिस्टम, उपग्रहों और सैन्य संचार प्रणालियों के उत्पादन के लिए महत्वपूर्ण हैं। अफगानिस्तान आरईई आपूर्ति के दीर्घकालिक समाधान का हिस्सा हो सकता है, अगर यहां के समृद्ध खनिज संसाधनों का प्रभावी ढंग से दोहन किया जाए। स्थायी शांति का रास्ता बनाकर यह अमेरिका के लिए फायदेमंद हो सकता है और उसकी चीन समेत अन्य देशों पर निर्भरता कम होगी। (Taliban China USA Afghanistan)

यहीं पर यह ख्याल आ सकता है कि कहीं इसीलिए तो अमेरिका ने अपने सैनिकों की वापसी का ऐलान कर तालिबान को आने का मौका नहीं दिया। दूसरी ओर यह भी हो सकता है कि तालिबान के मार्फत खनिज संसाधनों पर चीन की ही रणनीति रही, जिसने अमेरिका और उसकी सरपरस्ती में चल रही सरकार को बेदखल कर दिया। तालिबान को साजोसामान देकर और भविष्य के ख्वाब दिखाकर प्रोत्साहित किया।

अफगानिस्तान लंबे समय से विदेशी सहायता पर निर्भर देश रहा है। जबकि उसकी अर्थव्यवस्था में तरक्की की छलांग के लिए खनिज संपदा भरपूर है, बशर्ते वो हाथ आए। हर वक्त युद्ध और अशांति से यह नहीं हो सकता। शायद यही बात अब तालिबान को भी समझ में आ चुकी है। इसीलिए तालिबान अंतरराष्ट्रीय समुदाय के साथ अच्छे संबंधों को बनाने की बात कर रहा है। अब दो दशक पहले जैसा, निहायत ही बर्बर बर्ताव बनाए रखने की आसार नहीं हैं। ये अलग बात है कि अपने जनमानस को जिस कट्टर विचारों पर खड़ा करके यहां तक पहुंचा है, उसे बनाए रखना भी मजबूरी होगी।

तालिबान से रिश्ते बनाने में चीन का कई लिहाज से फायदा है। एक तो, इस तरह अमेरिका का क्षेत्रीय दखल खत्म कमजोर हो गया, अपने निवेश को सुरक्षित करते हुए खनिज संसाधनों पर काबिज होते हुए पूंजी का विस्तार और नया बाजार हाथ की संभावनाएं अच्छी हैं। तालिबान के सहयोग से उइगर विद्रोहियों से भी निपटा जा सकता है। वन बेल्ट वन रोड प्रोजेक्ट के लिए फायदेमंद है।

चीनी विशेषज्ञों ने मौजूदा घटनाक्रम से पहले ही यह कहा था कि अफगानिस्तान से यूएस की वापसी से क्षेत्र में चीनी नागरिकों के विरुद्ध हिंसा न हो इसलिए तालिबान पर भरोसा करने की जरूरत होगी।

रिश्ता वरीयता के बजाय जरूरत से पैदा होता है। चीन का आकलन है कि तालिबान अधिक व्यावहारिक हो गए हैं, हालांकि इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि उनकी नीति कैसी दिखेगी। चीनी अधिकारियों को तालिबान के साथ काम करने के अलावा विकल्प नहीं दिखते, इसके बावजूद कि संबंध जटिल होंगे और आने वाले समय में कई कारकों से यह तय होगा कि रिश्ते कैसे बनेंगे।

मौजूदा अफरातफरी में जहां अधिकांश देश अस्थायी या स्थायी तौर पर दूतावास बंद कर रहे हैं। वहीं चीन ने तालिबान का और तालिबान ने अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में चीनी निवेश का खुले तौर पर स्वागत किया है और यह भी संकेत दिया है कि वे चीनी निवेशकों और श्रमिकों की सुरक्षा की गारंटी देंगे। (Taliban China USA Afghanistan)

2019 में, अफगानिस्तान में चीनी राजदूत ने इस बात पर जोर दिया कि अफगानिस्तान चीन की बेल्ट एंड रोड पहल के साथ-साथ चीनी-पाकिस्तानी-अफगान क्षेत्रीय आर्थिक एकीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। मौजूदा वर्ष, 2021 के पहले छह महीनों में अफगानिस्तान में कुल चीनी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश केवल 2.4 मिलियन डॉलर था और हस्ताक्षरित अनुबंधों का मूल्य केवल 13 हजार डॉलर था।

देखा जाए तो यह गिरावट है। उस वक्त, जब अमेरिका की सरपरस्ती में चल रही सरकार रही। वर्ष 2020 में अफगानिस्तान में कुल चीनी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश 44 मिलियन डॉलर था, जो पाकिस्तान में चीनी निवेश के तीन प्रतिशत से भी कम था, पाकिस्तान में उसी वर्ष यह निवेश 110 मिलियन डॉलर था।

चीन में दो प्रमुख परियोजनाएं – चीन की सबसे बड़ी सरकारी तेल कंपनी, चाइना नेशनल पेट्रोलियम कॉरपोरेशन द्वारा अमु दरिया बेसिन तेल परियोजना और राज्य के स्वामित्व वाली चाइना मेटलर्जिकल ग्रुप कॉर्पोरेशन और जियांग्शी कॉपर कंपनी लिमिटेड द्वारा अयनक तांबे की खदान तालिबानी अशांति के चलते कभी रफ्तार नहीं पकड़ सकीं। सुरक्षा खतरों के चलते चुनौतियां बनी रहीं और काम को रोकना पड़ा। राजनीतिक अस्थिरता और अशांति के चलते नए प्रोजेक्ट से हाथ खींच लिया गया। (Taliban China USA Afghanistan)

इस दरम्यान बीजिंग अफगान सरकार और तालिबान के बीच कूटनीतिक संतुलन बनाने की कोशिश करता रहा। इस रोशनी में देखा जाए तो तालिबान को एक वैध राजनीतिक ताकत के रूप में चीनी अधिकारियों की हालिया मान्यता खासी अहमियत रखती है।

चीन के पास आर्थिक रूप से देश में बड़ी भूमिका निभाने की क्षमता है, लेकिन ऐसा कर पाना तब ही मुमकिन है, जब स्थायी शांति और राजनौतिक स्थिरता होगी। चीन उस स्थिरता को प्रोत्साहित करने के लिए द्विपक्षीय, त्रिपक्षीय (चीन, पाकिस्तान और अफगानिस्तान) और बहुपक्षीय संबंधों का जाल बुन रहा है। निकट भविष्य में स्थिरता नहीं आती तो चीन अफगानिस्तान में शायद आर्थिक भागीदारी न करे।

तालिबान भी कहां कह रहा कि वह ‘उजड्डपन’ से काम करेगा, पहले की तरह। तालिबान प्रवक्ताओं ने साफ तौर पर कहा है कि हम अंतरराष्ट्रीय समुदाय से कटकर नहीं रहना चाहेंगे, सभी से बातचीत और सहयोग के दरवाजे खुले हैं, यहां तक कि देश के अंदर की हस्तियों से भी बातचीत करेंगे और उन्हें सुरक्षा की गारंटी देंगे। (Taliban China USA Afghanistan)

यह अलग बात है कि वे जनमानस में जिस धार्मिक कट्टरता और सांस्कृतिक पिछड़ेपन के वाहक हैं, वे उसे गरीब आबादी पर जरूर थोपेंगे। यह संकेत उन्होंने इस्लामिक अमीरात बनाने की बात कहकर दिया है। औरतों के मामले में भी कहा है कि वे शरिया कानून के मुताबिक सभी का सम्मान करेंगे। इस तरह इस्लामी जगत के भी प्यारे बने रहेंगे।

यही वह संतुलन है, जो कारपोरेट जगत के लिए आकर्षण है। यानी एक ऐसा देश, जहां बेहिसाब दौलत है, जहां के शासक ऐसे हों जो अहमक, अहंकारी, लोकतंत्र से बेपरवाह, तानाशाही प्रवृत्ति के हों, जो अपनी जनता से सख्ती से निपट सकें और अपने साथ कारपोरेट हितों को आगे रखें। वे सत्ता में हैं तो राजनीति शांति भी बनी रहेगी, क्योंकि अशांति फैलाने का हुनर भी उन्हीं के पास है।

तालिबानी सत्ता अमेरिका से खटास होने के चलते उससे नजदीकी तो नहीं बनाएगी। दूसरा विकल्प चीन है, जो उसकी हसरत को पूरा कर सकता है और पड़ोसी भी है। यह बात हवाई नहीं है। जैसे ही तालिबान ने अफगानिस्तान पर कब्जा लिया, एक चीनी अधिकारी ने तुरंत ही कहा कि चीन अफगानिस्तान के साथ ”मैत्रीपूर्ण और सहयोगी” संबंधों को बढ़ाने के लिए तैयार है। (Taliban China USA Afghanistan)

1996 में तालिबान के सत्ता में आने के बाद, चीनी सरकार ने उस शासन के साथ कभी भी आधिकारिक संबंध स्थापित नहीं किए। तालिबान के कट्टरपंथी स्वभाव, अल-कायदा के साथ उनके जुड़ाव और उन्हें पनाह देने और उइगर उग्रवादियों के साथ उनके संदिग्ध संबंधों ने चीन के सामने निगेटिव तस्वीर बनाई। लेकिन हाल के वर्षों में, चीनी अधिकारियों ने अफगानिस्तान में बिगड़ती सुरक्षा स्थिति और जमीन पर शक्ति संतुलन में बदलाव के जवाब में तालिबान के साथ संबंध विकसित किए हैं।

2015 में, चीन ने शिनजियांग उइगर स्वायत्त क्षेत्र की राजधानी उरुमकी में तालिबान और अफगान सरकार के प्रतिनिधियों के बीच गुप्त वार्ता की मेजबानी की। जुलाई 2016 में, एक तालिबान प्रतिनिधिमंडल ने शेर मोहम्मद अब्बास के नेतृत्व में बीजिंग का दौरा किया। तालिबान के प्रतिनिधियों ने अफगानिस्तान की घरेलू राजनीति में चीन से सहयोग और समर्थन मांगा।

2019 में चीन से जुड़ाव और बढ़ा, जब अमेरिका और तालिबान के बीच शांति वार्ता में तेजी आई। उस वर्ष जून में, चीनी अधिकारियों की नजर में उदार और कतर में तालिबान के राजनीतिक कार्यालय के चीफ बारादर ने अफगान शांति प्रक्रिया के लिए चीन का दौरा किया। (Taliban China USA Afghanistan)

सितंबर 2019 में दोहा में तालिबान और अमेरिका के बीच वार्ता विफल होने के बाद, चीन ने बीजिंग में दो दिवसीय इंट्रा-अफगान सम्मेलन में भाग लेने के लिए बरादर को फिर से न्योता दिया। कोविड महामारी के चलते यह बैठक नहीं हो पाई।

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28 जुलाई को चीनी स्टेट काउंसलर और विदेश मंत्री वांग यी ने नौ तालिबान प्रतिनिधियों के एक प्रतिनिधिमंडल के साथ एक हाई-प्रोफाइल आधिकारिक बैठक की, जिसमें समूह के सह-संस्थापक और उप नेता मुल्ला अब्दुल गनी बरादर भी शामिल थे। तालिबान के सदस्यों की यह पहली चीन यात्रा नहीं थी, लेकिन यह बैठक दो पक्षीय वरिष्ठ नेताओं की मौजूदगी और राजनीतिक संदेश में अभूतपूर्व थी।

इस बैठक में तालिबान ने वादा किया कि अफगानिस्तान को आतंकवादियों के लिए आधार के रूप में इस्तेमाल नहीं करने देंगे। इसके बदले चीन ने अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में चीनी निवेश और आर्थिक सहायता की पेशकश की। वांग यी ने तालिबान को “निर्णायक सैन्य और राजनीतिक ताकत” के रूप में वर्णित किया। वांग ने इस बैठक में “अफगानिस्तान में विफल अमेरिकी नीति” पर जोर दिया और चीन की ‘परोपकारी’ भूमिका के साथ ‘दखलंदाजी न देने के सिद्धांत’ को समझाकर अमेरिका से फर्क बताया। (Taliban China USA Afghanistan)

अभी, काबुल में तालिबानी कब्जे के बाद, ऐसे समय में जब दुनिया हैरानी-परेशानी से देख रही थी, कि अफगानिस्तान में क्या हो रहा है? चीन ने कहा कि वह अफगानिस्तान के साथ संबंधों को मजबूत करने के अवसर का स्वागत करता है, जो लंबे समय से बड़े देशों द्वारा अपने भू-रणनीतिक महत्व की वजह से घिरा रहा है।

विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता हुआ चुनयिंग ने संवाददाताओं से कहा, “तालिबान ने बार-बार चीन के साथ अच्छे संबंध विकसित करने की उम्मीद जाहिर की है और हम अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण और विकास में चीन की भागीदारी को बढ़ाना चाहते हैं।”

“हम इसका स्वागत करते हैं। चीन अफगानियों के इस अधिकार का सम्मान करता है कि वे अपना भाग्य खुद तय करें। हम अफगानिस्तान के साथ मैत्रीपूर्ण और सहकारी संबंधों को विकसित करने के लिए तैयार हैं।” (Taliban China USA Afghanistan)


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