तालिबान पर क्या रुख अपनाएं भारतीय मुसलमान, लेखक अशफाक अहमद की नसीहत

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    अशफाक अहमद-

भारत में मुसलमानों की अच्छी खासी संख्या है, लेकिन उनमें ज्यादातर गरीब और दैनिक संघर्षों से जूझते लोग हैं। उनके उलट बहुत थोड़े लोग हैं जो कुछ हद तक प्रीविलेज्ड मुस्लिम हैं।

यह आर्थिक और सामाजिक आधार पर सेफ जोन में या सेमी सेफ जोन में हैं, यह लिख पढ़ भी लेते हैं तो सोशल मीडिया पर पोस्ट/कमेंट करते नजर आ जाते हैं।

इनमें से ज्यादातर में आपको दूरदर्शिता का नितांत अभाव मिलेगा, यह फौरी मुद्दों पर फोकस करते हैं और हर जगह अपनी राय जाहिर कर देना चाहते हैं। यह धार्मिक तौर निजी जीवन में बिलकुल कट्टर नहीं होते, अगर आप इनकी दिनचर्या नोट करें तो पाएंगे कि यह ज्यादातर मौकों पर अपने मजहब के नियम ठुकरा रहे होते हैं।

लेकिन दिखावे के तौर पर यह इस्लाम के नाम पर वैश्विक बंधुत्व के पैरोकार होते हैं, शरई निजाम के समर्थक होते हैं और दुनियाभर के मुसलमानों से अपना रिश्ता जोड़ते नजर आते हैं।

जहां भी मुसलमान किसी दूसरे धर्म के लोगों के हाथों प्रताड़ित होता है, यह सगे भाई बंधुओं की तरह तड़पते हैं, लेकिन जहां ऐसा करने वाला खुद मुसलमान हो, वहां यह उसके साथ खड़े हो जाते हैं। फिर चाहे पीड़ित भी खुद ही मुसलमान हो। ऐसी हालत में यह पीड़ित मुसलमान में कोई न कोई एब निकालकर आतताई मुसलमान को इस्लामिक नजरिए से हक पर बताने लग जाते हैं।

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अफगानिस्तान पंद्रह सौ किलोमीटर दूर है भारत से, सीधा कोई हमसे रिश्ता भी नहीं, इस्लाम का कोई तीर्थ भी नहीं वहां कि धार्मिक भावनाएं जुड़ी हों। लेकिन कल से आप बहुतों की वाॅल पर उनके कसीदे पढ़े जाते, उन्हें लहालोट होते देख सकते हैं। इन्हें तालिबान से और कोई मतलब नहीं, पर वे इनके वह इस्लामिक भाई हैं जो इनका पसंदीदा शरई निजाम लाएंगे।

यह बात और है कि खुद लोकतांत्रिक देश में रहते, अपने अल्पसंख्यक होने की वजह से देश में लोकतंत्र का सीमित होना भी इन्हें अखर रहा है और अगर देश को हिंदू राष्ट्र घोषित करके हिंदू धर्म के हिसाब से इसे संविधान के बजाय मनुस्मृति टाईप हिंदू कानून व्यवस्था की तरफ शिफ्ट किया जाए तो बिलबिला कर रह जाएंगे।

फिर भी, अपने से दूर, एक असंबंधित देश में इन्हें इस्लामिक हुकूमत चाहिए। वहां पहले भी मुसलमान थे और इस्लामिक हुकूमत ही थी लेकिन उसे इन्होंने अमेरिका परस्त घोषित कर दिया है।

अब उनकी हार, या उन पर पड़ती मार इनके लिए खुशी का सबब है। इन्हें फर्क नहीं पड़ता कि अपने विरोधियों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं के साथ नई हुकूमत का क्या बर्ताव रहने वाला है.. यह ‘माशाअल्लाह’ कर के उनके पक्ष में खड़े हो गए तो उनकी हर करतूत अब डिफेंड करना इनकी मजबूरी है।

तालिबान मध्ययुगीन मानसिकता के बर्बर लोग हैं.. और उसी तरह शासन चलाएंगे, इसकी पूरी संभावना है। खबरें आने भी लगी हैं कि मुस्लिम बच्चियों के दुर्दिन शुरू हो चुके।

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खबरें सच भी हो सकती हैं, झूठी भी हो सकती हैं, बढ़ा-चढ़ा कर भी बताई हो सकती हैं, लेकिन तय है कि भारत का सांप्रदायिक मीडिया ऐसी की खबरों की सुर्खियां बनाएगा, दूसरी ओर सांप्रदायिक आईटी सेल इस तरह की खबरों के साथ ही भारतीय मुसलमानों के ट्वीट/पोस्ट/कमेंट्स के स्क्रीनशॉट लगाकर यही साबित करेंगे कि यहां के मुसलमान भी तालिबानी मानसिकता के हैं और यह भारत में भी यही चाहते हैं।

उन सैकड़ों या हजारों मुसलमानों को भारत के करोड़ों मुसलमानों का प्रतिनिधि बना दिया जाएगा, जो ‘माशाल्लाह’ लिखकर तालिबान के इस्लामी भाई बनने की कोशिश कर रहे हैं।

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इस तरह ट्विटर/फेसबुक से लेकर व्हाट्सएप तक नफरत बढ़ेगी और यह पहले से ही संक्रमित दिमागों को और ज्यादा चार्ज करेगी। रोजी रोटी के संघर्ष से जूझता कोई गरीब मुसलमान किसी छोटी सी गलती पर भी, ऐसी ही किसी चार्ज्ड भीड़ के हाथ लग गया तो उसकी लिंचिंग तय है। वह गरीब मुसलमान उस नफरत की कीमत चुकाएगा जिसका उससे कोई लेना देना नहीं था, वह उस जहर को भोगेगा जो उसने कभी नहीं फैलाया।

कुछ दिन उस गरीब की मौत पर हल्ला होगा। फिर यह भीड़ आगे बढ़ जाएगी.. वह भी, जो हिंदुओं के एक बड़े वर्ग के मन में मुसलमानों के प्रति नफरत के प्रचार-प्रसार का माध्यम बन रही है और वह भी जो इन सोशल मीडियाई मुजाहिदों को पूरी कौम का प्रतिनिधि मानने को तैयार बैठी है।

(लेखक के यह निजी विचार हैं, फेसबुक वॉल से साभार, अशफाक अहमद हिंदी में विज्ञान को सरलता से लिखकर मशहूर हुए हैं)


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