प्लांट से अस्पतालों तक ऑक्सीजन का सफर

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अवधेश पांडे-

अंग्रेज वैज्ञानिक प्रीस्टले, स्वीडन के वैज्ञानिक कार्ल शीले ने ऑक्सीजन की खोज की और फ्रांसीसी वैज्ञानिक लैबूजिये ने इसे ऑक्सीजन नाम दिया। लेकिन बात यहीं खत्म नहीं हुई। लैबूजिये लगातार इस पर काम करते रहे। जैसे जैसे उन्हें नए तथ्य प्राप्त होते गए ऑक्सीजन के बारे में उनकी समझ उतनी मजबूत होती गई।

लैबूजिये ने अपने प्रयोग में देखा कि ऑक्सीजन गैस में रखी जलती मोमबत्ती का प्रकाश साधारण हवा में रखी मोमबत्ती के प्रकाश से काफी तेज था। इसी प्रकार उन्होंने नाइट्रोजन गैस के साथ ऑक्सीजन को मिश्रित करके जब मोमबत्ती रखी तो उसकी चमक वायु के समान ही थी। विद्वान वैज्ञानिक ने इससे यह निष्कर्ष निकाला कि साधारण वायु नाइट्रोजन व ऑक्सीजन गैसों का मिश्रण है।

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ऑक्सीजन की खोज इंग्लैंड से शुरू हुई। इंग्लैंड के वैज्ञानिकों ने ही सिद्ध किया कि वायुमंडल में ऑक्सीजन नाइट्रोजन व कार्बन डाई ऑक्साइड के साथ बहुत कम मात्रा में लगभग 1 फीसद उत्कृष्ट गैसें रहती हैं, जिन्हें शुरुआत में निष्क्रिय गैसें कहा जाता था। ये गैसें 1894 से 1900 के बीच खोजी गईं और इनमें सबसे बड़ी भूमिका इंग्लैंड के रसायन विज्ञानी विलियम रैमजे और उनके सहयोगियों ने निभाई।

सांस लेने के लिए जरूरी ऑक्सीजन, प्लांट्स में कैसे बनती है और कैसे बनती है और कैसे अस्पतालों तक पहुंचती है। यह बहुत जटिल प्रक्रिया है। कृत्रिम श्वसन हेतु ऑक्सीजन गैस क्रायोजेनिक डिस्टिलेशन प्रॉसेस (CDP) के जरिए बनाई जाती है। वातावरण में मौजूद वायु (Air) जिसमें 78 प्रतिशत नाइट्रोजन, 20 प्रतिशत ऑक्सीजन, 0.3 प्रतिशत कार्बन डाई ऑक्साइड व 1 प्रतिशत अक्रिय गैसों के अलावा धूल व जलवाष्प के कण मौजूद होते हैं।

इन सभी गैसों को अलग-अलग किया जाता है, जिनमें से एक ऑक्सीजन भी है। क्रायोजेनिक डिस्टिलेशन प्रॉसेस में हवा को फिल्टर किया जाता है, ताकि धूल-मिट्टी के कण हट जाए। उसके बाद कई स्टेप में हवा को कंप्रेस किया जाता है और कंप्रेस गैस को मॉलीक्यूलर फिल्टर एडजॉर्बर (MFA) से ट्रीट किया जाता है, इस पूरी प्रक्रिया से हवा में मौजूद पानी के कण ( Droplets), कार्बन डाई ऑक्साइड और हाइड्रोकार्बन अलग हो जाते हैं।

इस प्रक्रिया के बाद गैस कंप्रेस एयर डिस्टिलेशन (CAD) कॉलम में जाती है, जहां पहले इसे ठंडा किया जाता है। यह प्रक्रिया एक प्लेट फाइन हीट एक्सचेंजर एंड एक्सपेंशन (PFHEE) टरबाइन में होती है। इसके बाद ऑक्सीजन को 185 डिग्री सेंटीग्रेट तक गर्म किया जाता है, जिससे उसे डिस्टिल्ड किया जा सके।

इस प्रक्रिया को अलग-अलग स्टेज में कई बार दुहराया जाता है इसे फ़्रेक्सनल डिस्टिलेशन कहते हैं। इस प्रक्रिया से नाइट्रोजन, ऑक्सीजन और आर्गन जैसी गैसें अलग-अलग हो जाती हैं। इसी प्रक्रिया के बाद लिक्विड ऑक्सीजन और गैस ऑक्सीजन मिलती है।

इस ऑक्सीजन में 20 प्रतिशत हीलियम मिलाकर इसे क्रायोजेनिक टैंकों के जरिए एक जगह से दूसरी जगह भेजा जाता है। एक क्रायोजेनिक टैंक लगभग 60 -70 लाख रुपए में तैयार होता है। इसमें दो मजबूत लेयर होती हैं। अंदर वाली लेयर में अत्यधिक कम ताप-185 पर ऑक्सीजन संरक्षित होती है।लिक्विड ऑक्सीजन को तय तापमान पर बड़े-बड़े क्रायोजेनिक टैंकरों में भरकर डिस्ट्रीब्यूटर्स के जरिए हॉस्पिटल्स में सप्लाई किया जाता है।

कुछ बड़े हॉस्पिटल्स में सेंट्रलाइज्ड ऑक्सीजन केबिन या टैंक होते हैं, जहां से जिस हॉस्पिटल बेड पर ऑक्सीजन की जरूरत है वहां पाइपलाइन के जरिए इसकी सप्लाई होती है। छोटे हॉस्पिटल्स में ऑक्सीजन बड़े-बड़े सिलेंडरों में पहुंंचाई जाती है, फिर पाइपलाइन के जरिए मरीज के बेड तक पहुंचती है। बेहद छोटे हॉस्पिटल्स, जहां पाइपलाइन की सुविधा नहीं है, वहां ऑक्सीजन के छोटे सिलेंडर मरीज के बेड के पास लगाए जाते हैं।

(लेखक रसायन विज्ञान के सीनियर लेक्चरर हैं, जनहित में साभार)


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