जारवा आदिवासियों का घर छिना, संस्कृति छिनी, अब जीवन का संकट

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चंद्रशेखर जोशी

सदियों पहले मानव कहां-कहां जा कर बस गया, यह कल्पना से परे है। अंडमान बंगाल की खाड़ी के हृदय में बसा है। हजारों वर्ष पहले लोग समुद्र में तैरती इस जमीन पर घने जंगलों में जाकर रहने लगे। पुरातात्विक सबूतों से माना जाता है कि यहां करीब 60 हजार वर्ष पहले से बसासत थी। कठिनतम जीवन परिस्थितियों को देख यहां रहने वालों को ग्रेट अंडमानी कहा गया। यहां की मूल जनजातियां जारवा, ग्रेट अंडमानी, ओन्गे और सेंटीनली हैं।

इन 572 द्वीपों की श्रृंखला सपनों की दुनिया के समान है। यहां लोग कैसे बस गए, इसका अनुमान लगाना कठिन है। इन छोटे-छोटे द्वीपों को भी लुटेरों ने नहीं छोड़ा। जिसका बस चला, वे यहां पहुंचे और अपनी हुकूमत चलाई। जंगल में विचरण करने वाले लोगों को और दूर भगा दिया गया। जो भी उन्होंने विकसित किया था, उस पर कब्जा जमा लिया।

1720 ई. के आसपास पेशवा बाजीराव प्रथम के शासनकाल में मराठा साम्राज्य का विस्तार हुआ। दिल्ली और आसपास के भूभाग में तब मुगलों की सल्तनत मजबूत थी। मराठे पूणे, महाराष्ट्र के बाद अंडमान की ओर बढ़ गए। यहां के आदिवासी समूहों को दूर घने जंगलों की ओर भगा कर मराठों ने अंडमान पर अधिकार कर लिया था। बताते हैं कि अंडमानी मराठों से खूब लड़े, पर उनके पास कोई हथियार नहीं थे। आदिम समूहों को जल्द पराजित कर लिया गया।

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दिल्ली के मुगल बादशाह औरंगजेब की मृत्यु के बाद शिवाजी के पौत्र शाहू के नेतृत्व में मराठा शक्ति और मजबूत हुई। मराठों ने इस द्वीप पर बस्तियां बसा लीं, लेकिन 1761 के पानीपत के युद्ध में मराठा सेना अफगान सेनापति अहमदशाह अब्दाली से मात खा गई। इतिहास में इसे पानीपत का तीसरा युद्ध भी कहते हैं। इसके करीब 11-12 साल बाद पेशवा माधवराव प्रथम की मृत्यु हो गई। इसके बाद मराठा राज्य बहुत थोड़ी जगह पर सिमट गया।

तब तक अंडमान गए मराठे वहां की मूल जनजातियों को उत्तर में दिगलीपुर नामक स्थान को खदेड़ चुके थे। यह इलाका सालों बाद तक भी बीहड़ ही था। यहां जीवन बसर करना सबसे बड़ी जंग थी। अंडमानी तब भी जीवित रहे और अपना जीवन चलाते रहे। धीरे-धीरे मराठों की ताकत कम होती गई। द्वीपों में गए मराठों को कोई मदद न मिली और वह अपने वतन लौटने लगे।

उस समय मुगल शासक भारत में ऐशो-आराम की जिंदगी बिताते रहे। अब उनमें साम्राज्य विस्तार की इच्छा खत्म हो चुकी थी, या यूं कहें कि उनकी ताकत क्षीर्ण होने लगी थी। 1857 में अंतिम मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर को अंग्रेजों ने पद से हटा दिया। जफर को बर्मा भेज दिया गया।

1857 के सैनिक विद्रोह के बाद जब भारत की जेलें विद्रोहियों से भर गईं तो अंग्रेजों ने अंडमान में जेल बना दी। यहां सैकड़ों स्वतंत्रता सेनानियों को बंद कर दिया गया। तब माना जाता था कि इस द्वीप से कोई लौट कर नहीं आ पाएगा। इसे कालापानी भी कहा गया।

इन विकट परिस्थितियों में जीने वाले यहां के आदिवासी समूहों को महान अंडमानी नाम दिया गया। 18वीं शताब्दी के अंत में ब्रिटिश साम्राज्य ने पूरे अंडमान, निकोबार द्वीप समूहों को अपना उपनिवेश बना लिया। यहीं से इस द्वीप का इतिहास भी पता चलता है। यह स्थान किसी भी रूप से मनुष्यों के रहने लायक नहीं था। कुछ सालों बाद अंग्रेज इन परिस्थितियों को नहीं झेल पाए और द्वीप को छोड़कर भाग निकले।

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दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान जापान ने अंडमान पर अधिकार कर लिया। इसबीच कई हत्याकांड हुए। बचे हुए अंडमानी जंगली जानवरों के बीच जीवन का संघर्ष चलाते रहे। कुछ समय के लिये इस द्वीप पर नेताजी सुभाषचंद्र बोस का दबदबा भी रहा। बोस ने ही पहली बार पोर्ट ब्लेयर में 30 दिसम्बर 1943 को यूनियन जैक उतार कर तिरंगा फहराया था।

महान अंडमानियों के सामने इधर-उधर से आए लोगों ने सैकड़ों साल तक विकट परिस्थितियां पैदा कर दीं। कई कत्लेआम रचे गए, उनके लिए जंगल का कोई कोना भी सुरक्षित न रहा।

आदिवासियों के संघर्षों की कुछ कहानियां पढऩे से पता चलता है कि उन्हें घरों में कैद रहना कतई पसंद नहीं था। इसके बाद भी उन्हें गुलामों का जीवन बिताना पड़ा। इन द्वीपों को रमणीक बताने वाले, इस बात को नहीं बताते कि वहां के मूल निवासी आज कहां हैं। शहर और बंदरगाह बनाने वालों का हर रोम जारवाओं के खून लथपथ है।

हजारों साल के संघर्ष के बाद भी जारवा समुदाय जिंदा है। अपनी धरती पर बेबसी का जीवन बिताने वाले लोग अब धनवानों की कैद में हैं। इनके पास रहने के लिए जमीन तक नहीं है। कुछ समूह अब भी घुमंतु जीवन बिताते हैं।

किसी समय समुद्र के बीच की धरती को आबाद करने वाले ग्रेट अंडमानियों की संख्या सन् 1789 तक केवल दस हजार थी। वर्ष 1971 की जनगणना के अनुसार पूरे द्वीप में मात्र 24 परिवार ही मूल निवासी बचे थे। इसके बाद झूठे आंकड़ों का खेल भी शुरू हुआ, लेकिन अब भी करीब तीन दर्जन परिवार दुष्ट लोगों के बीच दिन बिता रहे हैं।

प्रकृति की हर मुश्किल पर जीत पाने वाले अंडमानी धरती के अपने जैसे खतरनाक जीव के सामने हार मान बैठे। यही हाल अमेरिका के रेड इंडियंस समेत दुनिया के हर मूल निवासियों के साथ हुआ। इस विनाशलीला को विकास नाम दिया गया।

भारत के पर्वतीय राज्यों समेत कई इलाकों में वहां के मूल निवासियों और आदिवासियों के साथ यह लीला अब तेज गति से चल रही है। महान अंडमानी अपना सब कुछ खो चुके हैं। गौर करें तो हिंद महासागर का एक कोना जारवाओं के खून से तर दिखेगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, यह उनके निजी विचार हैं)

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