इरफान जिबरान
क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (RCEP) समझौता चीन के नेतृत्व में हुआ है, जिसमें पूरा आसियान सहित जापान, कोरिया ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड जैसे अमेरिकी सहयोगी शामिल हैं. चीन, सोवियत संघ नहीं हैं जो घेर दिया जाय. आहज यूरोप, आसियान, कोरिया न्यूजीलैंड का सबसे बड़ा व्यापारिक पार्टनर चीन है. अब कोरिया और जापान भी धीरे धीरे बैलेंस करने की तरफ बढ़ रहे हैं. साउथ चीन सागर में चीन को कोई नहीं रोक पा रहा और न ही रोक पायेगा.
मिडिल ईस्ट में अमेरिका तो ऐसे फंसा है कि न आगे जा सकता है और न ही पीछे. अब अमेरिका बदमाशी करेगा तो चीन जैसे प्रतिद्वंद्वी मौजूद है जो अमेरिका को सीधा उस क्षेत्र से बाहर कर देगा. इस पूरी लड़ाई का सबसे ज्यादा फायदा चीन को होने वाला है.
मुस्लिम देशों-खासकर अरब को सोवियत संघ के चरित्र से ही समस्या थी. तो उनकी मजबूरी होती थी अमेरिका का सहयोग करना. सोवियत संघ आर्थिक तौर पर कभी अमेरिका के अगल बगल भी नहीं पहुंचा था. इसलिए भी ज्यादातर मुस्लिम देश सोवियत संघ से नहीं जुड़ पाए. क्योंकि आर्थिक नुकसान होता है इससे.
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चीन अमेरिका को आर्थिक, सैनिक और मनोवैज्ञानिक रूप से जबरदस्त टक्कर दे रहा है. विशेषज्ञों के अनुसार कुछ ही सालों में चीन अमेरिका को हर मामले में पीछे छोड़ देगा. चीन व्यापारिक और सैनिक दोनों तरीके से अमेरिकी स्थान लेने के लिए तैयार है. इसलिए मिडिल ईस्ट में अमेरिका की चुनौतियां बहुत ज्यादा बढ़ गयी हैं.
आज अमेरिका इस स्थिति में नहीं है कि सिर्फ एकतरफा तरीके से ही इजराइल का सपोर्ट करता रहे. क्योंकि इससे मिडिल ईस्ट में नाराजगी बढ़ेगी और चीन की जगह मजबूत होती चली जायेगी. वैसे भी चीन ने काफी मजबूत जड़ बना ली है. अरब-ईरान, तुर्की-मिस्र, तुर्की-सऊदी आदि बातचीत चीन के प्रयास का ही नतीजा है.
चीन अमेरिका की तुलना में बहुत बड़ा बाजार भी है जो अरब के तेल के लिए और निवेश के लिए अमेरिका का सबसे शानदार विकल्प है. इस लड़ाई में हर तरह से अमेरिका का नुकसान और चीन का फायदा है. अब सिर्फ एक स्थिति में अमेरिका अपनी जगह बनाये रख सकता है वो है 4 जून 1967 के बॉर्डर वाला फिलिस्तीन, जिसकी राजधानी येरूशलम है. अगर अमेरिका न कर सका तो अगले 15-20 साल में चीन यह काम करेगा ही करेगा.
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अक्टूबर 2016 में संयुक्त राष्ट्र की सांस्कृतिक शाखा यूनेस्को की कार्यकारी बोर्ड ने एक प्रस्ताव पारित करते हुए कहा था कि येरुशलम में मौजूद ऐतिहासिक अल-अक्सा मस्जिद पर यहूदियों का कोई दावा नहीं है.
यूनेस्को की कार्यकारी समिति ने ये प्रस्ताव पास किया था. इस प्रस्ताव में कहा गया था कि अल-अक्सा मस्जिद पर मुसलमानों का अधिकार है और यहूदियों से उसका कोई ऐतिहासिक संबंध नहीं है. यहूदी उसे टेंपल माउंट कहते रहे हैं और वे इसे महत्वपूर्ण धार्मिक स्थल मानते हैं.
ताजा विवाद पूर्वी येरुशलम के शेख जर्राह में आबाद फिलिस्तीनियों को इजराइल द्वारा जबरन बेदखल किए जाने की बलपूर्वक कार्रवाई के रूप में सामने आया है. इजराइली सैनिकों ने पवित्र अल अक्सा मस्जिद में घुसकर नमाजियों पर बबर्र हमला किया. इसमें करीब 180 नमाजी घायल हुए थे.
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इसके बाद इजराइल ने कई फिलिस्तीनियों को बंधक बनाया और अल अक्सा में नमाजियों को आने से रोकने की कोशिश की. जब हमास ने उसके उसके खिलाफ मोर्चा खोला. तब इजराइल ने गाजा पट्टी में हवाई हमला किया, जिसमें 13 मंजिला इमारत ध्वस्त हो गई. इस जंग में करीब 28 फिलिस्तीनी नागरिकों की मौत हो चुकी है.
(इरफान जिबरान शोधार्थी हैं और विदेश मामलों पर पैनी नजर रखते हैं.)