#DilipKumar: कैसे पसमांदा मुसलमानों की आवाज बना जमींदार खानदान का यह पठान

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-जन्मदिन-


आमतौर पर यही दिखाई देता है कि भारतीय सेलेब्रिटी, खासतौर पर हिंदी फिल्म उद्योग का चेहरा समझे जाने वाले खुदगर्ज हैं और समाज को वापस उन्होंने कुछ नहीं दिया। इन्हीं में कुछ अपवाद भी हैं। ऐसा ही एक अपवाद दिलीप कुमार उर्फ यूसुफ खान रहे। बहुत कम लोग जानते हैं कि दिलीप कुमार ने मुस्लिम समुदाय में हाशिए के लोगों के संघर्ष में बड़ी हिस्सेदारी की। ऐसी हमदर्दी ऊंची जाति के किसी शख्स के लिए असाधारण ही है, वह भी उसके लिए, जिसने देश के कुलीन वर्ग के बीच खास मुकाम हासिल कर लिया हो। (Voice Of Pasmanda Muslims)

दिग्गज अभिनेता दिलीप कुमार (Dilip Kumar) ने खासी कामकाजी मसरूफियत के बावजूद महाराष्ट्र में पसमांदाओं के अधिकारों के लिए अखिल भारतीय मुस्लिम ओबीसी संगठन (AIMOBCO) के कार्यकर्ताओं के साथ भागीदारी की। उनकी जिंदगी का यह पहलू 2017 में सामाजिक कार्यकर्ता और AIMOBCO के संस्थापक विलास सोनावणे, जाने-माने गीतकार हसन कमल और AIMOBCO के अध्यक्ष शब्बीर अंसारी से पता चला।

सोनवणे बताते हैं, पहली बार दिलीप कुमार से मुंबई के इस्लाम जिमखाना में मिले थे। जबकि कमल ने बताया कि अभिनेता दिलीप कुमार से मुलाकात ऐसे दौर में हुई, जब वो काफी व्यस्त थे, फिर भी उन्होंने सामाजिक बदलाव की मुहिम में सक्रिय भागीदारी की। वे बताते हैं कि अगर भारतीय सेना से जुड़ा कोई मामला या किसी प्राकृतिक आपदा के बारे में पता चल जाता था तो दिलीप कुमार जो भी कर सकते थे, जरूर करते थे। (Voice Of Pasmanda Muslims)

उनका मानना ​​था कि एक फिल्म स्टार को खुद को बड़े सामाजिक मुद्दों से जोड़ना चाहिए, नहीं तो उनका कॅरियर खत्म होते ही लोग उन्हें भूल जाएंगे।

सोनवणे और अंसारी ने दिलीप कुमार को मंडल आयोग की रिपोर्ट, पसमांदा मुसलमानों के लिए तय हुए प्रावधानों के बारे में बताया। उन्होंने बताया कि कैसे 85 प्रतिशत मुसलमान पसमांदा हैं और एआईओबीसीओ आंदोलन से उनको फायदा मिल सकता है। दिलीप कुमार ने उस वक्त उनसे इसी तरह के ख्यालात साझा किए, बोले- बाकी 15 प्रतिशत तो पारंपरिक तौर पर संपन्न ही हैं, उन्हें आरक्षण की जरूरत नहीं है। (Voice Of Pasmanda Muslims)

तभी दिलीप कुमार ने सोनवणे को मदद का वादा किया। फिर उन्होंने जो किया, वह सभी की उम्मीदों से बहुत ज्यादा था। जल्द ही, दिलीप कुमार आधिकारिक तौर पर 1990 में AIMOBCO में शामिल हो गए और लगभग हर दिन की संगठनात्मक गतिविधियों से जुड़े।

उन्होंने पूरे भारत में 100 से ज्यादा सार्वजनिक सभाओं में भाग लिया। औरंगाबाद और लखनऊ में उनकी जनसभाएं अहम राजनीतिक कार्यक्रम साबित हुईं। उनके सेलिब्रिटी होने की वजह से बहुत बड़ी संख्या में भीड़ जुटी और मांगों पर ध्यान देने के लिए राजनीतिक दलों पर दबाव बना।

इन सभाओं में दिलीप साहब ने इस बात पर जोर दिया कि पसमांदाओं के लिए आरक्षण को धार्मिक मुद्दे के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि यह सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े मुस्लिम समुदाय के उत्थान के लिए सामाजिक उपकरण है। उन्होंने कहा कि जातिगत ढांचे के चलते पसमांदा हाशिए पर पहुंच एग। कामकाजी बिरादरी (समुदायों) से भेदभाव ने उनकी आर्थिक गतिशीलता और सामाजिक विकास को बाधित कर दिया। आरक्षण एक संवैधानिक प्रक्रिया है और हाशिए के समुदायों को सामाजिक और आर्थिक गतिशीलता को यह अवसर मिलना चाहिए।

दिलीप कुमार ने इस मुद्दे पर लोगों को संगठित होने में मदद की, उन्हें आरक्षण के पीछे के तर्क को समझाया और उन्हें एक मंच से आंदोलन के लिए एक साथ लाने की कोशिश की। अनसुनी आवाजों की जुबान बने।

एआईएमओबीसीओ 1978 से पसमांदाओं के मुद्दों के लिए काम कर रहा था, लेकिन दिलीप कुमार का उनके साथ जुड़ाव आंदोलन के लिए बड़ी ऊर्जा बन गई। सरकार को संगठन के बैनर पर उमड़े लाखों लोगों की मांगों को सुनना पड़ा।

7 दिसंबर 1994 को महाराष्ट्र सरकार ने सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े मुसलमानों को ओबीसी की राज्य सूची में शामिल करने का आदेश जारी किया। पसमांदा आंदोलन की एक बड़ी उपलब्धि राज्य सरकार द्वारा इस मुद्दे पर 57 से ज्यादा अधिसूचनाएं जारी करना था। (Voice Of Pasmanda Muslims)

इस संघर्ष में दिलीप कुमार की सामाजिक हैसियत और निजी तौर पर हमदर्दी की गहराई से चर्चा बगैर यह किस्सा अधूरा ही रहेगा। यह दिलचस्प बात है कि ज़मींदार पृष्ठभूमि का एक पठान पसमांदा आंदोलन का कार्यकर्ता कैसे बन गया?

इस आंदोलन में भाग लेने का कारण दिलीप कुमार का महज दयालु स्वभाव मान लेना काफी नहीं था। संस्था के अध्यक्ष अंसारी ने इस सवाल का ठोस जवाब दिया। उन्होंने दिलीप कुमार के जीवन की उन घटनाओं के बारे में बताया जिन्होंने उन्हें पसमांदा के लिए संवेदनशील और आंदोलन से जुड़ने की प्रेरणा दी।

अंसारी ने बताया कि दिलीप कुमार सामाजिक रूप से काफी जागरूक थे, लेकिन शुरुआत में उनके अंदर भी मुस्लिम समाज में जाति के सवाल को लेकर झिझक थी। फिर अंसारी ने कुछ घटनाएं सुनाईं जिन्होंने शायद दिलीप कुमार को जातिवाद की बुराई को लेकर गंभीर कर दिया।

दिलीप कुमार बचपन में फुटबॉल खेलते थे। उनके कई दोस्तों में एक दलित लड़का था, जो फुटबॉल टीम का बेहतरीन खिलाड़ी था और कप्तान बना। जब वह कप्तान बना तो उसने सभी खिलाड़ियों को अपने घर पर डिनर के लिए आमंत्रित किया। उस डिनर पार्टी में केवल दिलीप कुमार ही पहुंचे, बाकी साथी नहीं आए। जब दिलीप कुमार ने उनकी गैरहाजिरी के बारे में पूछा, तो लड़के ने कहा, “मैं एक नीची जाति का हूं, वे न तो हमारे यहां आएंगे और न ही हमारे साथ खाना खाएंगे।”

एक बार महाराष्ट्र में पसमांदा समुदाय के कुछ छात्रों ने उनके संगठन से वित्तीय मदद मांगी। अंसारी ने दिलीप कुमार से कहा कि आरक्षण का लाभ अन्य पिछड़े समुदाय को मिल रहा है और अगर पसमांदा की मदद की जाए तो ये बच्चे भी डॉक्टर और इंजीनियर बन सकेंगे। यह बात सुनकर दिलीप कुमार ने सभी छह छात्रों को आर्थिक मदद की। इसी घटना के बाद दिलीप कुमार आधिकारिक रूप से संगठन में शामिल हुए। (Voice Of Pasmanda Muslims)

अंसारी कहते हैं, पसमांदा मुद्दे पर उनके समर्थन के लिए उनकी बहुत आलोचना हुई, यहां तक ​​कि उलेमाओं के फतवे निकाले और कुलीन मुसलमानों की भौहें तिरछी हो गईं। दिलीप कुमार अक्सर बाबा साहेब आंबेडकर के साथ अपनी मुलाकातों के बारे में बात करते थे कि कैसे उन्होंने उन्हें जाति और जाति के भेदभाव के सवाल पर सोचने को मजबूर कर दिया।

हालांकि, ऐसा भी बताया जाता है कि औरंगाबाद में होटल में दोनों की मुलाकात अच्छी नहीं रही, जब डॉ.आंबेडकर ने फिल्म इंडस्ट्री में मूल्य-मान्यताओं को लेकर कड़ी आलाेचना की। हालांकि दिलीप कुमार इस बात को कहना चाहते थे कि कुछ लोग दबे-कुचले समुदाय के लिए भी हमदर्दी रखते हैं। लेकिन इस मुलाकात का दोनों ओर असर हुआ।

दिलीप कुमार की जिंदगी में इस प्रभाव की वजह कई हो सकती हैं- आंबेडकर के साथ मुलाकात का असर, दलितों और पसमांदाओं के साथ उनका तजुर्बा, मुल्क के बंटवारे के वक्त विस्थापित बचपन का अनुभव। इस सबने उनको बदला। दिलीप कुमार ने अपने जातिगत विशेषाधिकारों का इस्तेमाल नहीं किया, न ही प्रसिद्धि नहीं मांगी और न ही अपनी इस सक्रियता को कॅरियर के लिए इस्तेमाल किया।

यही वजह है कि मौजूदा पीढ़ी के बहुत कम लोग पसमांदा आंदोलन में उनकी भूमिका के बारे में जानते हैं, यही सबूत है कि उन्होंने आंदोलन का निजी फायदे के लिए कभी इस्तेमाल नहीं किया। उन्होंने हमेशा आंदोलन के नेताओं को आगे बढ़ाया।

अंसारी ही कहते हैं, ‘दिलीप कुमार ने खुद को आंदोलन के उस बागबां की तरह माना, जो बगीचे की परवरिश करता है, लेकिन अपने लिए नहीं, सबके लिए’। वे कहते थे, ‘मेरे पिता फल व्यापारी थे, मैं इस बगीचे की बागवानी कर रहा हूं’।

दिलीप साहब हमेशा पसमांदा आंदोलन के बागबान रहेंगे जिन्होंने बाग का पालन-पोषण किया ताकि अन्य लोग फलों का आनंद उठा सकें।

(लेखक नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, ओडिशा में पीएचडी स्कॉलर हैं, यह लेख डेक्कन हेराॅल्ड में प्रकाशित हुआ, लेख का पिछला संस्करण कुछ साल पहले Roundtable.co.in पर प्रकाशित हुआ था)

भावानुवाद: आशीष आनंद

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