आशीष आनंद-
सप्ताह भर में किसान आंदोलन के तंबू आंधी-तूफान ने उखाड़ दिए, लेकिन उन्होंने फिर से आंदोलन के जहाज का लंगर बांधकर हुंकार भरना शुरू कर दी है। आज वे उसी आंदोलन की वर्षगांठ मनाकर सरकार को चुनौती दे रहे हैं, जिसकी बदौलत नरेंद्र मोदी का सही मायने में राजनीतिक कॅरियर शुरू हुआ था और आज प्रधानमंत्री की गद्दी पर दूसरी बार बैठे हुए हैं। उसी आंदोलन की वर्षगांठ पर किसान दिल्ली के बॉर्डरों पर संपूर्ण क्रांति दिवस मना रहे हैं।
चलिए बताते हैं कैसे पचास साल पहले संपूर्ण क्रांति के नारे ने युवाओं में जोश भर दिया था और नरेंद्र मोदी ने कैसे प्रधानमंत्री पद की ओर पहला कदम बढ़ाया।
यह किस्सा नरेंद्र मोदी डॉट इन पर प्रकाशित लेख में दर्ज हैं। इस लेख में लिखा है-
1 मई 1960 को गुजरात के गठन के आसपास का शुरुआती उत्साह और उम्मीदें दशक का अंत आते-आते ठंडी हो गईं। तेजी से सुधार और तरक्की के ख्वाब से आम आदमी का मोहभंग होने लगा।
इंदुलाल याग्निक, जीवराज मेहता और बलवंत राय मेहता जैसे राजनीतिक दिग्गजों के संघर्ष और बलिदान को धन और सत्ता की लालची सियासत ने बेकार कर दिया। 1960 के दशक के अंत और 1970 के दशक की शुरुआत तक गुजरात में कांग्रेस सरकार का भ्रष्टाचार और कुशासन नई ऊंचाइयों पर पहुंच गया था।
1971 में भारत ने पाकिस्तान को युद्ध में हरा दिया था और कांग्रेस गरीबों के उत्थान का वादा करके फिर चुन ली गई। यह वादा खोखला साबित हुआ, ‘गरीबी हटाओ’ का नारा धीरे-धीरे ‘गरीबों को हटाओ’ में बदल गया।
गरीबों की जिंदगी और ज्यादा खराब हो गई। बुनियादी जरूरतों की चीजों की बढ़ती कीमतों ने गुजरात में अकाल जैसे हालात पैदा कर दिए। जरूरत की चीजों के लिए लंबी-लंबी कतारों का अंतहीन सिलसिला आम नजारा हो गया, आम आदमी के लिए कोई राहत नहीं थी।
सुधारात्मक कार्रवाई करने के बजाय जनता की तकलीफ को अनदेखा कर गुजरात में कांग्रेस नेतृत्व गुटबाजी के झगड़ों में उलझा हुआ था। नतीजतन, घनश्याम ओझा की सरकार की जगह को चिमनभाई पटेल ने भरा। हालांकि, यह सरकार भी उतनी ही अक्षम साबित हुई।
गुजरात के लोगों में सरकार के खिलाफ असंतोष बढ़ रहा था। असंतोष सार्वजनिक क्रोध में बदल गया, जब दिसंबर 1973 में मोरबी इंजीनियरिंग कॉलेज के कुछ छात्रों ने अपने खाने के बिल में अचानक तेज बढ़ोत्तरी का विरोध किया।
इस विरोधों को व्यापक जनसमर्थन मिला और सरकार के खिलाफ व्यापक जन आंदोलन फूट पड़ा। राज्य और केंद्र सरकार अपने सभी प्रयासों के बावजूद इस असंतोष को दूर करने में विफल रही। हालात तब और खराब हो गए, जब गुजरात के शिक्षामंत्री ने जनसंघ पर आंदोलन भड़काने का आरोप लगाया, भले ही यह भ्रष्टाचार और बढ़ती कीमतों के खिलाफ एक व्यापक आधारित आंदोलन था।
1973 तक नरेंद्र मोदी सामाजिक कार्यकर्ता बतौर मूल्य वृद्धि, महंगाई और आम आदमी को प्रभावित करने वाले अन्य मुद्दों के खिलाफ चलने वाले कई आंदोलनों में सक्रिय रहे। फिर युवा प्रचारक और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (ABVP) के सहयोगी के रूप में वह नवनिर्माण आंदोलन में शामिल हुए और सौंपी गई जिम्मेदारी को पूरा किया।
नवनिर्माण आंदोलन हर दृष्टि से एक जनांदोलन था क्योंकि समाज के सभी वर्गों के आम नागरिक इससे जुड़ गए थे।
आंदोलन और मजबूत हो गया, जब इसको जयप्रकाश नारायण का समर्थन मिला, जो भ्रष्टाचार के खिलाफ एक जाने-माने योद्धा थे। नरेंद्र मोदी को अहमदाबाद में करिश्माई नेता जयप्रकाश नारायण से बातचीत और निकटता का खास मौका मिला।
उनके तजुर्बे और कई बार की बातचीत ने युवा नरेंद्र के मन पर मजबूत छाप छोड़ी। नवनिर्माण आंदोलन के चलते चिमनभाई पटेल को महज छह महीने के कार्यकाल के बाद इस्तीफा देना पड़ा। नए सिरे से चुनाव हुए और कांग्रेस सरकार को विधिवत हटा दिया गया।
इत्तेफाक यह भी रहा, गुजरात चुनाव के नतीजे 12 जून 1975 को आए और उसी दिन इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी को चुनावी भ्रष्टाचार का दोषी बताकर प्रधानमंत्री के रूप में उनके भविष्य पर सवालिया निशान लगा दिया था।
एक हफ्ते बाद गुजरात में बाबूभाई जशभाई पटेल के नेतृत्व में नई सरकार बनी।
नवनिर्माण आंदोलन नरेंद्र का बड़े पैमाने हुए आंदोलन में शिरकत का पहला मौका था, जिसने सामाजिक मुद्दों पर उनकी विश्वदृष्टि काे निखारा। इसके बाद नरेंद्र को राजनीतिक कॅरियर में दाखिल होने के दरवाजे खुले। उन्हें 1975 में गुजरात में लोक संघर्ष समिति का महासचिव बनाया गया।
फिर 25 जून 1975 की आधी रात को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भारत में आपातकाल की घोषणा कर नागरिक स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की आजादी पर रोक लगा दी। इसी पल नरेंद्र मोदी की जिंदगी के सबसे अहम चरणों में से एक शुरू हो गया था।
अब आप खुद ही सोचें कि तब और आज के हालात में क्या फर्क है! एक फर्क तो साफ है, जिस पद की तानाशाही के खिलाफ कभी नरेंद्र मोदी आंदोलन में शरीक हुए, आज वे खुद उसी पद पर आसीन हैं।