सुधीर विद्यार्थी
चंबल का इलाका कभी सिर्फ बीहड़ों और दस्युओं के लिए जाना जाता था। यहां के निवासियों का चरित्र भी कुछ अलग ढंग का रचा-बना होता है। इसका थोड़ा-सा वर्णन क्रांतिकारी रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ की आत्मकथा के शुरुआती हिस्से में हमें मिलता है–‘तोमरघार में चंबल नदी केे किनारे दो ग्राम आबाद हैं, जो ग्वालियर राज्य में बहुत ही प्रसिद्ध हैं क्योंकि इन ग्रामों के निवासी बड़े उद्दंड हैं।
वे राज्य की सत्ता की कोई चिंता नहीं करते। ज़मींदारों का यह हाल है कि जिस साल उनके मन में आता है राज्य को भूमि-कर देते हैं और जिस साल उनकी इच्छा नहीं होती, मालगुजारी देने से साफ इन्कार कर जाते हैं। यदि तहसीलदार या कोई और राज्य का अधिकारी आता है तो वे ज़मींदार बीहड़ में चले जाते हैं और महीनों बीहड़ों में ही पड़े रहते हैं। उनके पशु भी वहीं रहते हैं और भोजनादि भी बीहड़ों में ही होता है।
चंबल धीरे बहो….भाग-1
घर पर कोई ऐसा मूल्यवान पदार्थ नहीं छोड़ते, जिसे नीलाम करके मालगुजारी वसूल की जा सके। एक ज़मींदार के संबंध में कथा प्रचलित है कि मालगुजारी न देने के कारण ही उनको कुछ भूमि माफी में मिल गई। पहले तो कई साल तक भागे रहे। एक बार धोखे से पकड़ लिए गए तो तहसील अधिकारियों ने उन्हें बहुत सताया।
कई दिन तक बिना खाना-पानी के बंधा रहने दिया। अंत में जलाने की धमकी दे, पैरों पर सूखी घास डालकर आग लगवा दी किन्तु उन ज़मींदार महोदय ने भूमि-कर देना स्वीकार न किया और यही उत्तर दिया कि ग्वालियर महाराज के कोष में मेरे कर न देने से घाटा न पड़ जाएगा। राज्य को लिखा गया जिसका परिणाम यह हुआ कि उतनी भूमि उन महाशय महोदय को माफी में दे दी गई।
इसी प्रकार एक समय इन ग्रामों के निवासियों को एक अद्भुत खेल सूझा। उन्होंने महाराज के रिसाले के साठ ऊंट चुराकर बीहड़ों में छिपा दिए। राज्य को लिखा गया जिस पर राज्य की ओर से आज्ञा हुई कि ग्राम तोप लगाकर उड़ा दिए जाएं। न जाने किस प्रकार समझाने-बुझाने से वे ऊंट वापस किए गए और अधिकारियों को समझाया गया कि इतने बड़े राज्य में थोड़े-से वीर लोगों का निवास है, इनका विध्वंस न करना ही उचित होगा। तब तोपें लौटा दी गईं और ग्राम उड़ाए जाने से बचे।
चंबल धीरे बहो….भाग-2
ये लोग अब राज्य-निवासियों को अधिक नहीं सताते किन्तु बहुधा अंग्रेजी बस्ती में आकर उपद्रव कर जाते हैं और अमीरों के मकानों पर छापा मार कर रात-ही-रात बीहड़ में दाखिल हो जाते हैं। बीहड़ में पहुंच जाने पर पुलिस या फौज कोई भी उनका बाल-बांका नहीं कर सकती। ये दोनों ग्राम अंग्रेजी राज्य की सीमा से लगभग पन्द्रह मील की दूरी पर चंबल नदी के तट पर हैं।
यहीं के प्रसिद्ध वंश में मेरे पितामह श्री नारायणलाल जी का जन्म हुआ था। वह कौटुम्बिक कलह और अपनी भाभी के असहनीय दर्व्यवहार के कारण मजबूर हो अपनी जन्मभूमि छोड़ इधर-उधर भटकते रहे। अंत में अपनी धर्मपत्नी और दो पुुत्रों के साथ वह शाहजहांपुर पहुंचे। उनके इन्हीं दो पुत्रों में ज्येष्ठ पुत्र श्री मुरलीधर जी मेरे पिता हैं। उस समय इनकी अवस्था आठ वर्ष और उनके छोटे पुत्र–मेरे चाचा–(श्री कल्याणमल) की उम्र छःह वर्ष की थी। इस समय यहां दुर्भिक्ष का भयंकर प्रकोप था।’
चंबल धीरे बहो….भाग-3
चंबल अब पूरी तरह बदल गया है। मुक्तिबोध की लिखी ‘चंबल की घाटियां’ कविता समय के साथ बहुत पीछे छूट चुकी है–‘दस्यु-पराक्रम/शोषण-पाप का परम्परा-क्रम वक्षासीन है/जिसके कि होने में गहन अंशदान स्वयं तुम्हारा।’ मुक्तिबोध की यह पूरी कविता 10 पृष्ठों में उनकी हस्तलिपि में भी है। उनका जन्म चंबल के ही श्योपुर जिले में हुआ था। उज्जैन चले जाने के बाद भी वे चंबल की स्मृतियों और छवियों से स्वयं को विलग नहीं कर सके।
सुना था कि कूछ वर्ष पहले चंबल के किनारे कवियों और साहित्यकारों ने अपने रचनाओं से इस शापित नदी को गौरव दिया था। कवि शिशुपाल सिंह ‘शिशु’ ने चंबल के डाकुओं की समर्पण-कथा पर जो लिखा है वह हमारे विगत का बहुत जाना-माना अध्याय है–‘ये माई के लाल विषैला जुल्म न सह पाते हैं/किन्तु अमृत की मधुर लोरियां सुनकर सो जाते हैं/इसीलिए उस रोज विनोबा ने जो जादू डाले/झुके अंहिसा के चरणों में हिंसा के मतवाले।’
एक समय इसी डाकू समस्या से प्रभावित विशाल भूखंड में बहने वाली चंबल को पुराण-कथा से जोड़कर ‘शापित नदी’ कहा जाता था। कवि नरेश सक्सेना की कविता में इसकी जीवन-कथा को शिद्दत से महसूस किया जा सकता है–
यह महाराजा रन्तिदेव के अग्निहोत्र में
काटी गई सहस्त्रों गायों और बछड़ों के बहे खून से बनी नदी
यह वेदव्यास के शान्तिपर्व से निकली एक अशांत नदी
बेईमान शकुनी ने अपने पांसे फेंके यहीं
सम्पति और सिक्कों के बदले
पत्नी हारी गई यहीं
फिर पांचो पतियों और पितामह की सहमति से
सबने उसके वस्त्र उतारते देखे
यह उसके आहत वचनों से
अभिशप्त नदी
———
चंबल के तट तीर्थ नहीं हैं
प्राचीन सभ्यताओं का कोई नगर
न मेरे पर्व तीज त्योहार
न पूजन हवन न मंत्रोच्चार
भयानक भांय-भांय सन्नाटा भरी
कटी-फटी विकराल कन्दराएं चंबल के आर-पार
क्षत-विक्षत कर डाली हो जैसे
खुद अपनी ही देह किसी विक्षिप्त स्त्री ने सहसा धीरज खोकर,
टेंटी, करील, झरबेरी और बबूलों के जंगल में
उड़ती हू-हू करती रेल और सदियों का हाहाकार
———-
यमुना, गंगा, कृष्णा, कावेरी, गोमती, अलकनंदा
यह तो लड़कियों के नाम हैं
चंबल नहीं है किसी लड़की का नाम
जबकि, चंबल वह अकेली और अभागी नदी है
जो पुराणों में वर्णित अपने स्वरूप को
आज तक कर रही है सार्थक,
चंबल में पानी नहीं खून बहता है,
चंबल में मछलियां नहीं लाशें तैरती हैं
चंबल प्रतिशोध की नदी है
और वह कौन-सी लड़की है
जो प्रतिशोध और खून से भरी नहीं है
और जिसमें लाशें नहीं तैरतीं,
फिर भी शारदा, सई, क्षिप्रा, कालिन्दी तो लड़कियों के नाम हैं
चंबल नहीं है किसी लड़की का नाम
पर अब चंबल पहले की तरह ठहरी और शापित नदी नहीं है। इसके ढूहों और बियावान इलाकों में सड़कों का जाल बिछ गया है। इसकी धार पर कई बैराज बन चुके हैं। मैंने राजस्थान और मध्य प्रदेश में चंबल का इलाका अधिक नहीं देखा, पर उत्तर प्रदेश में इसके बहाव के मार्ग हमें आकर्षित करते हैं। चंबल का पानी आज भी सबसे अधिक निर्मल है जिसमें लाल सूरज का अक्स देखकर हम बार-बार यही कहते हैं–‘चंबल धीरे बहो!’
(इस रिपोर्ताज के लेखक जाने माने साहित्यकार हैं, उपनिवेशवाद से मुक्ति के क्रांतिकारी संघर्ष पर उनका लेखन अतुलनीय माना जाता है)